मेरे प्रिय पाठक बंधुओं को नमस्कार
जी मेरा नाम प्रसेनजीत है। मैं वाराणसी के पास एक छोटे से गांव में रहता हूं। बचपन में मेरा मन पढ़ाई में नहीं लगता था। ऐसा नहीं था कि मुझे पढ़ाई अच्छी नहीं लगती थी। लेकिन उन दिनों टिंचर अपनी फ्रस्ट्रेशन बच्चों पर उतारते थे। मैं केवल वह अकेला बच्चा था जों रोज़ ज़लील होता और सबसे ज्यादा मार खाता। मुझे बस चित्रकारी पसंद थी। जिसे मैं सिद्दत से करता। मुझे बचपन में कामिक्स पढ़ने का जूनून था। उस जूनून में मैं स्केच तैयार करता और सपने देखता और मैं अपने फिक्शनल दुनिया में खो सा जाता। जों मुझे सुकून देती। जब भी मैं गर्मीयों की छुट्टी में अपने नानी के गांव जाता, तों शाम को सोते समय हम सभी भाई बहन एक साथ कहानीया सुनते,कभी नाना, तों कभी नानी और कभी मामा और कभी मौसी। मेरी दादी ने एक भी कहानी नहीं सुनाई, हां चाचा लोग सुनाते थे।
उनकी कहानियों में जादू होता, परिकथाएं बांधे रखती थी।इमेज़ हकीकत बन कर हमेशा के लिए ठहर जातें।
खैर छोड़ें अब चलते हैं मेरे लेखनी के सफ़र पर…
मुझे कविताएं लिखने का शौक है।पर मैं अपने कल्पना के दुनिया में एक कहानी लिखना चाहता था। बार बार प्रयास करता रहा,जब भी मन होता तों लिखता। बस खुद के लिए लेकिन व्याकरण वर्तनी त्रुटियां भरी होती थी। एक सवाल हमेशा रहता। क्या मैं लिख पाऊंगा? क्या मेरी कहानी लोगों तक पहुंचेगी? मेरा हमेशा से विज़न जनरेशन से 20 साल आगे का रहा है। मेरे दिमाग़ में फिक्शन हमेशा की तरह शार्ट सर्किट सी चिंगारीया छोड़ती। मुझे 20 साल हों गये और मेरे लिखें कापियों में दिमक लग गये थे। मेरे लिखने का शौक अतीत में खो सा गया।
इसी बीच मेरे साथ एक घटना घटी इस एक्सीडेंट ने मेरे जीवन को पूरी तरह बदल दिया। मुझे अपने जिंदगी से नफ़रत हों गई, हर रात महादेव से मृत्यु की कामना करता और हर सुबह निराश होता।
लेकिन मुझे मेरी मां की चिंता ने चिता तक जाने से रोके रखा।
फिर आज से चार पांच साल पहले मैंने दुसरा स्वप्न देखा एक दम फ़िल्म के ट्रेलर जैसा, मैं नींद से उछल पड़ा तुरन्त उस सपने को अपनी डायरी में नोट किया। इस डर से कि कहीं वह दृश्य धुंधली ना हों जायें।
मैंने 15 साल पहले सपने में जों झलकियां देखीं थीं उसका दूसरा हिस्सा इतने सालों बाद फिर सपने में दिखा।
सुबह यह सब मैंने अपने मां को बताया और फिर से मुझमें लिखने का जूनून जाग उठा।
मैंने अपने पूराने पन्ने खोजें, उसमें कुछ जोड़ा जों कुछ तो यादों में जिंदा थें। मुझे जीने की वज़ह मिलीं , अपने अंदर दबे गुब्बार कों शब्दों में रचता गया। पेंटिंग की तरह।पूरी शिद्दत ,इमानदारी और कठीन परिश्रम के साथ मैंने फ़ोकस किया। दिन रात लगा रहा। कई साल बीत गये, फिर भी पांडुलिपि अधूरी सी लगती, बार बार संपादित करता।कभी कभी आवश्यकता से अधिक हों जाता। फिर छोड़ देता कुछ महिने इसे भूलने की कोशिश करता,उस बीच किताबें पढ़ता,घुमने जाता और गेम्स खेलता।
लेकिन इस बीच मेरी पांडुलिपि कहीं सांस लें रहीं होती।
और मैं फिर से उसमें रंग भरने की कोशिश में नये उर्जा के साथ लग जाता ।
अंत में एक बात समझ में आईं आप चाहें कितनी भी कोशिश कर लो, चीजें तब तैयार होकर निखरती है ,”जब आप उसे समय और धैर्य के साथ तपाकर तराशते हों।”
जब मुझे लगा शब्द खुद अपनी जगह बना रहे हैं। तब मैं हैरान था? मेरा सपना मेरे आंखों के सामने था। मेरी पहली किताब, “रेनेसां: एक अनन्त युद्ध” अब आप के साथ हैं।भले ही यह किताब काल्पनिक है।पर आप इसमें मानवता के मूल जीवन और धर्म की सनातन परिभाषा की गहराई को महसूस करते हैं।
रेनेसां एक सवाल छोड़ जाती है।
क्या मृत्यु कों अवलुप्त किया जा सकता है?
जहां न मरने का भय हों,ना मारने कि इच्छा।
यह तों इसका दार्शनिक नजरिया था। आइये इसके दुसरे पहलू पर इतु सा नज़र फेर लेते हैं।
एक बात की गारंटी हैं आप इस बुक से बोर नहीं होंगे,जब भी आप खुशी में धमाके करेंगे, अगर चुपचाप सामने वाला आपको देखकर मुस्कुराया, तों पक्का उसने रेनेसां पढ़ ली है।
आप कन्फ्यूज हो जायेंगे, आप का फेवरेट कैरेक्टर कौन सा है। कुछ लोगों के भाई थानोस भी होते है।
फेवरेट??
मैं चाहता हूं आप मेरे मेहनत को सराहें, प्यार दें, सलाह दें, आपके लिए लिखता रहूं।
आप खुश रहें, स्वस्थ रहें, सदैव उर्जावान रहें।
ऐसी मनोकामना महादेव मेरी पूर्ण करें !
लेखक -प्रसेनजीत
धन्यवाद!
@prasen