कहीं जा के खो जाऊं मैं - ZorbaBooks

कहीं जा के खो जाऊं मैं

कहीं जा के खो जाऊं मैं  

बस यही ख़याल मँडरा रहा है  

दुनिया की इस भीड़ से  

इस भीड़ के रिवाज़ों से  

उन बादलों के बीच  

या सागर के किनारों पे  

कहीं जा के खो जाऊं मैं  

बस यही दिल चाह रहा है  

कहाँ मिलेगी ख़यालों को आज़ादी  

कहाँ मिलेगी ज़ेहन को सादगी  

क्या शांति बस सोच है  

कैसा अजीब ये ढोंग है  

इस बेढंगी दुनिया से दूर  

कहीं जा के खो जाऊं मैं  

बस यही ख़याल मँडरा रहा है  

उन परिंदों से सीख लूं  

या प्रकृति को देख लूं  

या जीने का तरीका मैं  

बादलों से सीख लूं  

ये दीवारें, ये घर, इन लोगों से दूर,  

क़रीब हो तो बस ख़्वाहिशों का नूर  

उस महकते हुए बाग़ान में  

या बाग़ान के फूलों में  

बहते हुए पानी में  

या पतझड़ के झूलों में  

कहीं जा के खो जाऊं मैं  

बस यही दिल चाह रहा है  

कहीं जा के खो जाऊं मैं  

बस यही ख़याल मँडरा रहा है।  


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Abu huraira