कहीं जा के खो जाऊं मैं
कहीं जा के खो जाऊं मैं
बस यही ख़याल मँडरा रहा है
दुनिया की इस भीड़ से
इस भीड़ के रिवाज़ों से
उन बादलों के बीच
या सागर के किनारों पे
कहीं जा के खो जाऊं मैं
बस यही दिल चाह रहा है
कहाँ मिलेगी ख़यालों को आज़ादी
कहाँ मिलेगी ज़ेहन को सादगी
क्या शांति बस सोच है
कैसा अजीब ये ढोंग है
इस बेढंगी दुनिया से दूर
कहीं जा के खो जाऊं मैं
बस यही ख़याल मँडरा रहा है
उन परिंदों से सीख लूं
या प्रकृति को देख लूं
या जीने का तरीका मैं
बादलों से सीख लूं
ये दीवारें, ये घर, इन लोगों से दूर,
क़रीब हो तो बस ख़्वाहिशों का नूर
उस महकते हुए बाग़ान में
या बाग़ान के फूलों में
बहते हुए पानी में
या पतझड़ के झूलों में
कहीं जा के खो जाऊं मैं
बस यही दिल चाह रहा है
कहीं जा के खो जाऊं मैं
बस यही ख़याल मँडरा रहा है।
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