मुक्ति
तट पे बैठ , मैं प्रशन भव से कर रही,
हूँ भीड़ में परंतु , क्यों संवाद स्वयं से कर रही |
क्यों संसार के विलास मेरी दृष्टि में अखर रहें,
नित जीवन के संघर्ष, क्यों बोझ से ना लग रहे |
क्यों फल की चिंता छोड़ कर्म में ये मन रम रहे,
कहो भव, क्या ये पग मुक्ति की ओर बढ़ रहे |
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