भटकता बचपन
भटकता बचपन- (लघुकथा)
नव्या ज्यों ही ट्यूशन पढ़कर अपने घर के दरवाज़े पर पहुँची,पड़ोस में रहने वाला चार साल का बच्चा-प्रखर दौड़ता हुआ उसके पास आया और बोला –
दीदी, एक बात बताऊँ ? इससे पहले वह कुछ बोल पाती,प्रखर कहने लगा- आज मेरे स्कूल की छुट्टी थी।मैंने आज डोरेमान देखा,बहुत मज़ा आया। मैंने ड्राइंग भी की। ये देखो,कैसी है?
नव्या जो कि खुद लगभग चौदह-पंद्रह साल की थी, कुछ समझ नहीं पा रही थी कि वह क्या कहे?
नव्या ने कहा- बहुत सुन्दर ड्राइंग है। इसका मतलब बहुत मज़े किए आज।
प्रखर ने प्रसन्नता व्यक्त करते हुए सिर हिलाया और मुस्कराता हुआ चला गया।
नव्या घर आई और अपनी माँ से कहने लगी-मम्मी, प्रखर क्यों आया था? मैंने तो इसे बुलाया नहीं था। आया और अपनी बात बताने लगा।
नव्या की मम्मी ने उसे समझाया, बेटा उसे अपने मन की बात कहनी थी, उसे कोई मिला नहीं होगा , जिससे अपने मन की बात कह सके।
उसकी माँ और पापा तो काम पर गए होंगे। दादी बूढ़ी हैं, बीमार रहती हैं,दवा खाकर सो गई होंगी।आस-पास कोई उसकी उम्र का बच्चा भी नहीं है, जिसके साथ खेल सके और अपनी बात कह सके।
नव्या सोचने लगी,भौतिक विकास की दौड़ में बचपन कितना निरीह हो गया है।
डाॅ बिपिन पाण्डेय
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