सुख का उदगम माँ की गोद है - ZorbaBooks

सुख का उदगम माँ की गोद है

संतान की इच्छाओं का ,स्तर -स्तर हर्षित रहे

माता-पिता सर्वस्व लुटाने बरबस रहते तैयार

सुरपुर का सब मीठा फल रखते उसके लिए संभाल

धिक्कार है ऐसे संतान को , बावजूद इसके

अपने बूढे माता -पिता से , विमुख होकर जीता

रखता नहीं उनका खयाल,तब भी पिता चाहता

नहाते वक्त भी न टूटे, मेरे पुत्र का बाल

न ही पाँवों में पड़े कंकड़ी का दाग

व्यर्थ है उसकी साधना , पूजा -पाठ , सन्यास

कर में धर्मदीप न हो , तो सब है बकवास

चित्त प्रभु के चरणों में,चाहे जितना लगा ले

जितना कर ले दान – पुण्य , तप , उपवास

नहीं मिलने वाला सुख – शांति का आवास

क्योंकि सुख का उदगम माँ की गोद है

पिता का प्यार है और है सेवा-धर्म प्रयास

इसलिए दायित्व ग्रहण कर एक अच्छी संतान का

क्या है माता- पिता की इच्छा , जान चिंता कर

किसी भी बुरे कर्म के लिए चरण उठाने से पहल्रे

सोचो कहीं तुम्हारी पद- ध्वनियाँ , तुम्हारी आने-

वाली पीढियों के कानों तक तो नहीं पहुँच रही

क्योंकि जैसा संदेश , भूमि से अम्बर को जायगा

वहाँ से आने वाला , वैसा ही तो आयगा

हो कोई दुनिया में ऐसा कोई माता-पिता तो

दिखा, जो हाथ जोड़कर, देवी- देवताओं से कहे

हे देव ! हमें जीने दो , मरे हमारे बच्चे सगहे

वे तो चाहते , बरसे रंग रिमझिम कर गगन से

भीगे मेरे संतान का स्वप्न निकलकर मन से

एक पापी भी सजग पुत्र के हित जीता

सोचता , त्रिलोक में जो भी सुख सुंदर है

सब समेटकर अपने पुत्र के हाथों पर रख दूँ

विधु की कोमल रश्मि,तारकों की पवित्र आभाओं-

को दूध संग मिलाकर , गिलास में भर पिला दूँ

जिससे मेरा पुत्र रोगरहित ,शोकहीन होकर जीये

यौवन की शिरा-शिरा में सुख-उल्लास नाचते रहे

लेकिन संतान ऐसा नहीं सोचता , वह तो खुद

अमृत को पी , गरल तृषित पिता को पिलाता

लगातार संतान के अत्याचार की तीव्र आँच पर

पिता का अपमानित मन , अकुलाता रहता

सोचता, दीन-दानवों से लड़कर जब निर्द्वंद्व हुए तब

धमनियों को बंद करने अपने ही खून चले आए

लाचार पिता मन ही मन सोचता , पुत्र

यही तो है परिवर्तन का घूमता हुआ चक्र

जो आज मेरी तरफ है,कल तुम्हारी तरफ होगा

आज जिस जगह मैं हूँ , कल यहाँ तू होगा

डॉ. तारा सिंह


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