अतृप्त
विगत स्वप्न पलकों के पीछे
ध्यानमग्न कुछ गुमसुम थी
प्रणय प्रेयसी की फिर प्यासी
एक निशा अतृप्त रही!
स्वाप्न, अरे हाँ स्वप्न बच गया
केवल रिक्त ह्रदय में
ह्रदय शून्य भावना रहित हो
अपने में ही खोयी थी,
रिक्त पात्र, घट-जल का रे अब
केवल वाष्प संजोये थी !
ह्रदय संजोये भार भावना
करुणा से ऑंखें भींगी
बीत गयी फिर एक यामिनी
छोड़ रेत पर पुनः नमी
ओस बूँद भी रही कलपती
"अरी यामिनी छोड़ मुझे तुम
यहाँ अकेले कहाँ चली ?
स्वप्न दिए जो तुमने मुझको
कैसे मैं ढो पाऊँगी!"
Discover more from ZorbaBooks
Subscribe to get the latest posts sent to your email.