एक सहारा
देर अँधेरी रातों में
हम अक्सर डूबे रहते है
उन यादों में जिनका गंतव्य ही
दुखो की गहराई है।
जहा अधूरे सपनो का टूटे ख़्वाबों का
दबाव ज्यादा होता है
जो अंदर समेटे हर आस हर उम्मीद को
आंसू बना बाहर ला देती है।
नाकामयाबी की घुटन
चीख बन निकल जाती है
गमो के उस सागर में
मन बहुत घबराता है।
निकलने की चाहत से हम बहुत झटपटाते है।
हर कोशिश दिशा में हाथ पाँव चलाते है
क्या बीच सागर की गहराई में फसा कोई मुसाफिर
बाहर आ पाता है?
बातें कहु तो जरूर आ जाता है।
हकीकत कहु तो शायद न
क्यूंकि
गहरायी से तट तक एक सहारा
कहा ही मिल पाता है!
खुद का सहारा बन पाना आसान कहा होता है !
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