माघ की दोपहर
माघ का महीना, धूप की हल्की चादर,
छाया संग मिलती, जैसे कोई साजिश करती।
मैं वृक्ष के तने पर लेटा हुआ,
उसकी झुकी डालों का सहारा लिया हुआ।
हर तरफ हरियाली का मेला,
बड़े-छोटे वृक्षों ने धरती को घेरा।
नीचे झाड़ियां, खेतों की कहानियां,
कट चुकी फसलें, हवा में उनकी निशानियां।
हल्की नमी, मिट्टी की महक,
शांति में डूबी यह गांव की ललक।
मैदान में चरती बकरियां,
और पास खेलते जीवन की छवियां।
शहर का शोर, प्रदूषण का भार,
यहां कहीं नहीं, बस सुकून अपार।
वृक्ष की गोद में लेटा हुआ,
प्रकृति के संग मैं जुड़ा हुआ।
सोचता हूं, कवि और वैज्ञानिक क्यों,
यहीं आकर लिखते अपने स्वप्न और सच को।
प्रकृति की आवाज़ को जो सुन सके,
उनकी लेखनी में सच्चाई भर सके।
यह वृक्ष, यह खेत, यह गांव की गहराई,
जीवन की असली कहानी यहां पाई।
माघ की दोपहर में छुपा यह राज़,
शहर से दूर, यही है सुकून का साज।
– सुमित महतो
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