चरित्र हैं पवित्र तो मोह क्या शरीर का
चरित्र हैं पवित्र तो मोह क्या शरीर का ।। पाप तो भरा पर जिंदगी है शिव का जिंदगी हैं शिव का ।।
धधक रही शरीर तो विशाल काय अग्नि में जीवन भर जो किया भी वो मिल रही पृथ्वी में , मिल रही पृथ्वी में ।। पर क्या करूं इस शरीर का जिंदगी को अपना समझकर खोया हुआ हूॅं मोह में । चरित्र है पवित्र तो मोह क्या शरीर का।।
विशाल सी थी सेना उसकी वह कौरव कहलाया था मौत तो उसे भी न बकस सकी कितना भी शकुनि ने दाऊ पेच चलाया था। जल गई आकांक्षाएं कौरव की जो द्वेष भावना था। कृष्ण तो बस एक नियति थे कौरव का आखिरी समय आया था। मोह माया से हटकर कृष्ण ने अर्जुन को सिखाया है। चरित्र हैं पवित्र तो मोह क्या शरीर का।।
धधकती चिता जो देख कर यही मन में। ख्याल आता है कोई ना लेके आया है कोई ना लेके जाएगा असुल तो बड़ा है पर सुकुन नहीं मिल पाएगा। चरित्र है पवित्र तो मोह क्या शरीर का।।
चिता पर भी लेंटने के लिए पहले पाप को भोगना पड़ता हैं वो पवित्र अग्नि में भी जलने के लिए बहुत सारा इंतहान पार करना पड़ता है। चरित्र है पवित्र तो मोह क्या शरीर का।।
दिल का कोई काम नहीं होता हमें अग्नि को हासिल करने के लिए क्योंकि उसे मोह माया का ज्ञान नहीं होता । उसका एक ही असुल है जितना पाप किया है उसका हिसाब मिलने के बाद सही। चरित्र है पवित्र तो मोह क्या शरीर का।।
वो धधकती ज्वाला मोह माया हरती है उसे क्या तुम सिखाओगे कि मेरी बेटी तो इतनी ही बड़ी है। अंत ही अनंत है ये जानना ही एक सर्वोपरि ज्ञान है जिसने इसे नहीं जाना उसके सामने चिंदी के समान हैं। चरित्र है पवित्र तो मोह क्या सरीर का।।
मर्यादा, लाज और प्यार को वो नहीं मानता है वो सब राख में मिल जाता है। शिव का बनने का भी एक मोका मिल जाता है। कर्म अच्छा करो तो शिव खुद तेरे बनेंगे। खुद को देखने से पहले शिव तुमको देखेंगे और बोलेंगे। चरित्र है पवित्र तो मोह क्या शरीर का।।
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