नूतनता......अभिप्राय और प्रयोजन....(चिंतन शिविर से) - ZorbaBooks

नूतनता……अभिप्राय और प्रयोजन….(चिंतन शिविर से)

जीवन में हमेशा एक सा ही स्वभाव रहे, एक सा ही रस रहे और जीवन एक ही ढर्रा पर चलता रहे, तो सब कुछ नीरस सा लगेगा। मन में उकताहट होने लगेगी और जीवन बोझ सा लगने लगेगा। जो बस काटना है, इसलिये ही जी रहे है, इस तरह की अनुभूति होने लगेगी। तभी तो…..नूतनता चाहिए, आचार-विचार में, आहार-विहार में, रहन- सहन में और लौकिक व्यवहार में। नूतन का शाब्दिक अर्थ नवीनता लिए होता है।

जब हम कोई नई चीज खरीदते है, तो हमारे हर्ष की सीमा नहीं होती। साथ ही हम विकल हो जाते है दूसरे के सामने बड़ाई हांकने के लिए। जब हम कोई नूतन परिधान खरीदते है, तो फिर बेताब हो जाते है पहनने के लिए। उसके बाद तो मन की आकांक्षा बलवती हो जाती है कि” लोग उसे देखें और कद्र करें। जानने बाले ही नहीं अनजान लोग भी कद्र करें। आपका नहीं, आपके श्रेष्ठ विचारों का नहीं, अपितु” आपने जो नूतन परिधान पहना है, उसकी कद्र करें। आपको अपनी नहीं, अपितु संसार के लौकिक वस्तुओं के नवीनता की चिन्ता है।

हां, जीवन में हमेशा नवीनता का हर्ष बना रहे, नूतनता का सरस प्रवाह होता रहे, इसके लिए ही तो नाना प्रकार के उत्सव है। लग्न महोत्सव है और सामाजिक गतिविधियां है। संसार में नित- नए उपक्रम होते रहते है, बस मानव के नूतनता की अभिलाषा को पूर्ण करने के लिए। उसके अतृप्त मन के तृप्ति के लिए। परन्तु…..ऐसा क्या हो पाता है?….यह गुढ प्रश्न है और इसका दीर्घकालिक उत्तर होगा” नहीं। ऐसा संभव ही नहीं है, क्योंकि’ संसार को लौकिक वस्तुओं की नूतनता क्षणिक होती है, जो फिर से पुराना हो जाता है।

फिर से नूतनता की अभिलाषा हृदय कुंज में हिलोरे लेने लगता है। क्योंकि’ वस्तुओं की नूतनता से कभी भी मन तृप्त नहीं हो सकता। इसके लिए तो हमें अपने विचारों को नूतनता के धागे में पिरोना पड़ेगा। हमें अपने व्यवहार में नूतनता लाना पड़ेगा। हमें अपने वाणी को नूतन भाव का अमली-जामा पहनाना होगा। जब हम खुद को बदल लेंगे, खुद नूतन-नवीन हो जाएंगे, तभी सही अर्थों में तृप्त हो पाएंगे। नहीं तो बस नूतन-नवीन की परिभाषा को ही ढूंढते रह जाएंगे और यह जीवन संध्या ढल जाएगी व्यर्थ ही।

फिर तो” कहते फिरने का समय आ जाएगा कि” जीवन में मैंने इतना कुछ किया, परन्तु….हाथ कुछ नहीं आया। सच कहूं तो, जब तक आपके आचार-विचार, रहन- सहन और व्यवहार नूतन नहीं होंगे, आपका मानव होना ही व्यर्थ है। क्योंकि” नूतनता का अभिप्राय ही यही है कि” आप मक्खन की तरह नवनीत रहो। हमेशा सजग रहो और अपने हृदय कुंज में नवीनता का संचय करते रहो। यही तो मानव जीवन का प्रयोजन भी है, क्योंकि” ईश्वर ने असीम अनुकंपा कर के हमको और आपको, सारे जगत को जीवन प्रदान किया है।

क्रमशः-


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मदन मोहन'मैत्रेय'