विडंबना.....विचारों की उत्पति और मन का विचरना....(चिंतन शिविर से) - ZorbaBooks

विडंबना…..विचारों की उत्पति और मन का विचरना….(चिंतन शिविर से)

मानव मन निरंतर गतिशील रहता है, निरंतर ही अपने लिए एक नए आनंद की खोज में लगा रहता है। उसे हर पल एडवांचर का अनुभूति करने की अभिलाषा रहती है। वह चाहता है कि” उसका पल-प्रति पल आनंद के सागर में हिलोरे लेता रहे। किन्तु” ऐसा होना संभव ही नहीं है, क्योंकि” सभी चीज समय के बाहूँ पाश में बंधा हुआ है। सभी चीज के लिए एक सीमा निर्धारित की गई है, एक मर्यादा बनाया गया है, उससे अधिक कभी भी नहीं हो सकता।

उदाहरण के तौर पर हम उत्सव को ले-ले, तो उत्सव और उत्सव के रंग, दोनों ही समय के अनुसार बदलते रहते है। जब बसंत हिलोरे लेने लगता है, पवन मंद-मंद सुमधुर सुवासित सुगंध ले कर आती है, तभी तो राग-रागिनी के संग फाग का मल्हार जागृत हो उठता है। तो वर्षा ऋतु बीत जाने के बाद नवरात्र और फिर दीपावली। तो वर्षा के झोंको के बीच सावन माह का आनंद और रक्षाबंधन का उमंग। अब हम पूरे वर्ष सावन की फुहार की इच्छा करें अथवा चाहें कि, शालों भर होली का उमंग यथावत रहें, तो यह संभव ही नहीं हो सकता।

परन्तु….मन’ वह तो यही कामना करेगा कि” पूरे वर्ष फागुन की वह कामिनी सी लहरें यथावत रहे। वह चाहेगा कि” उमंगों की दरिया में हमेशा डुबा ही रहे। बस यही से विकारों का जन्म होता है। मन” हमेशा ही अतृप्त ही रहता है, चाहे इसे पूरी दुनिया की सुख-सुविधा में डुबा दो, फिर भी अतृप्त ही रहेगा। चाहेगा कि” कुछ और मिल जाता तो, कुछ श्रेष्ठ मिल जाता तो। बस न मन की वासना कम होती है और न ही हम उस पर नियंत्रण ही लाद पाते है और यह “विडंबना है कि” अनियंत्रित मन के जंजीरों में जकड़े हुए हम पतन” को प्राप्त हो जाते है, हमारी अधोगति हो जाती है।

मन जब अनियंत्रित रहेगा, तो खुराफात करेगा ही, क्योंकि” इसका स्वभाव ही ऐसा है। जब इच्छाएँ अधिक पाने की ओर लालायित होगी, तो स्वतः ही विकार पनपेंगे और मन के सह मिलते ही विशाल विष वृक्ष बन जाएंगे। जो कि” हमारे स्वभाव को ही कुचल देगा, वाणी की मृदुलता को ही खा जाएगा। आँखों से शर्म और आदर्श की चादर को ही नोच डालेगा। मर्यादा की दीवार को तोड़ कर धरासाई कर देगा, फिर तो मन और भी निरंकुश बनता चला जाएगा और विकारों की गठरी को बढाता चला जाएगा।

मैं तो यह नहीं कहता कि” सन्यासी बन जाइए। क्योंकि’ यह उचित भी नहीं है और यह ठोस आधार के साथ कहा नहीं जा सकता कि” सन्यासी बन जाने के बाद मन नियंत्रण में आ जाएगा, अथवा हम विकारों से मुक्त हो जाएंगे। परन्तु….यह तो जरूर कहूंगा कि” मानव जरूर बनिए और इसके लिए जरूरी है कि” मन को नियंत्रित करने के लिए कोशिश कीजिए। एक बार कोशिश तो कर के देखिए, विकार स्वतः ही आपका पीछा छोड़ देगा। बाकी तो विडंबना ही होगा…क्योंकि” अनियंत्रित मन तो विनाश को ही बुलावा देगा।

क्रमशः-


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मदन मोहन'मैत्रेय'