अंधकार" मोह का जाल हृदय में लिपटा"........ - ZorbaBooks

अंधकार” मोह का जाल हृदय में लिपटा”……..

अंधकार” मोह का जाल हृदय में लिपटा”

हे रघुनंदन’ कह दूं, भजन तेरो हो पाए ना’

लालसा कब से शूल बना अतिशय मन में’

सीता के पति राम’ स्मरण तेरो हो पाए ना।

मैं मन भूला जीव जगत का, स्वामी हो तुम मेरे।

भ्रम भाव से प्रभु बचा लो’ शरण पड़ा हूं तेरे।।

आकांक्षा का तरु विशाल’ बन बैठा है’

माया जगत की लालच मुझे दिखाए’

अंतस मन में जगी वेदना, राह नजर न आए’

प्रभु एक तुम मेरे स्वामी, कैसे तुम्हें मनाए।

दीनबंधु प्रभु असुर निंकंदन, स्वामी तुम हो मेरे।

व्यर्थ की माया उलझ पड़ी है, शरण पड़ा हूं तेरे।।

वांक्षा कल्पतरु हो राघव, अवध पति अवधेश’

भ्रम भाव से मुझे बचाओ, हर लो मन: क्लेश’

हे लक्ष्मण के भैया, जीवन की पार लगाओ नैया”

मोह के फांद से प्रभु बचा लो, दया करो अवधेश।

प्रभु अकारण करुणा-वरुणालय, स्वामी तुम हो मेरे।

भक्त हृदय में रमणे बाले, प्रभु शरण पड़ा हूं तेरे।।

मन भ्रमणा के वशीभूत, नाम तेरा नहीं लेता’

जग के मोह में फंसा हुआ, बनता रहता नेता’

कलह जगत के जंजाल का, अपने अंक समेटा’

भ्रम भ्रमणाओं को सपनों सा कब से बैठा सेता।

मन आरत हो तुम्हें पुकारूं रघुवर’ स्वामी तुम हो मेरे।

ग्रंथ वचन है’ शरणागत अपनाते हो, शरण पड़ा हूं तेरे।।

अहंकार जो बली बना है, हूं पथ का भूला राही’

दीनबंधु हे रघुनंदन, आ कर बांह थामना मेरा’

भव सागर में फंसा जीव हूं, प्रभु पार लगाओ बेड़ा’

तुम स्वामी हो-मैं सेवक हूं, अपने पास ही देना डेरा।

हे राम’ कौसल्या के लाल धनुर्धर’ स्वामी तुम हो मेरे।

तारण हार हो प्रभु श्री राम रमापति’ शरण पड़ा हूं तेरे।।


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