उलझा रहा था’ कल तक प्रश्नों से…….
उलझा रहा था’ कल तक प्रश्नों से।
शांत हुआ हूं, आज सुलझ पाया हूं।
जीवन सरिता से ले आया हूं जल निर्मल।
स्वभावगत’ अब पथ पर चल पाया हूं।
मन’ मानव बनने का था प्रयत्न किए।
कौरव से भाव हृदय में थे, मुक्त अभी हो पाया हूं।।
आत्म वंचना कल तक व्याधा बनकर थे।
लाभ तनिक नहीं, भय ही भय छाया था।
मन अहंकार में डुबा फिर पथ पर घबराया था।
चिन्ताओं के बादल के संग, दूर निकल आया था।
अब संभलूंगा समय बिंदु पर, लाखों यत्न किए।
कौरव से भाव हृदय में थे, मुक्त अभी हो पाया हूं।।
आशाओं के दीप जलाए, कंचन की लालसा पाले।
भ्रम में डुबा ही तो था, जग विजित सकल कर लूं।
आभाएँ फैलाने को यश का, कोई सुलभ वर लूं।
मंजिल तक पहले ही पहुंचूं, कोई राह अलग धर लूं।
संशय से जो छला गया, उन बिंदु को मंथन किए।।
कौरव से भाव हृदय में थे, मुक्त अभी हो पाया हूं।।
अब जो मुक्त हुआ हूं, ऊहापोह के चलते भावों से।
जीवन सरिता के नीर, पीऊँगा तृप्ति को पाऊँगा।
बीते समय के तीक्ष्ण भाव को, भूल सहज जाऊँगा।
आगे पथ पर बढना भी है, कोई गीत मधुर गाऊँगा।
आगे बढना है अब निश्चल हो कर नव भाव लिए।
कौरव से भाव हृदय में थे, मुक्त अभी हो पाया हूं।।
कल तक जो उलझा था, पथ पर था यक्ष प्रश्न।
अब जीवन के संग हूं, सहज मुक्त भाव को पाकर।
तृप्त भी हूं जीवन सरिता के निर्मल रंग चढाकर।
आगे जाऊँगा संग- संग, हूं हृदय में भाव जगा कर।
अब उन्मुक्त भी हूं पथ पर, नवीनता का लाभ लिए।
कौरव से भाव हृदय में थे, मुक्त अभी हो पाया हूं।।
Discover more from ZorbaBooks
Subscribe to get the latest posts sent to your email.