चकित हुआ" भ्रमित हुई अभिलाषाओं से...... - ZorbaBooks

चकित हुआ” भ्रमित हुई अभिलाषाओं से……

चकित हुआ” भ्रमित हुई अभिलाषाओं से।

लाभ अधिक पा लूं’ इन आशाओं से।

भाव हृदय में ग्रसित हुए थे, जो पहले।

तुम ठहरो!. हम बात तो अपनी कह ले।

चंचलता का ओढ आवरण, ऐसे जो मुसकाए।

बीता न रात का आलम, धीरज धर न पाएँ।।

जीवन तुम हो और मैं, एक बात तो सुन लो।

हैरान अभी भी हूं, पथ पर हैरत भरे चमत्कार से।

निखरेगा नव प्रभात’ मिट जाएगा भ्रमित घात।

किंचित चकित हुआ हूं, इस अंधियारी रात से।

सहज विकल होकर तुमसे अपनी बात बताएँ।

बीता न रात का आलम, धीरज धर न पाएँ।।

औने-पौने बिक जाने को है, आज परमार्थ।

अभिलाषाओं के संग तान टेरता स्वार्थ हृदय में।

ऊहापोह का भाव’ बीत रहा यह रात इस भय में।

मन देखे बस स्व लाभ को, जीता है इसी मैं में।

पथ पर आगे निकले कई, हम तेरे संग हो जाए।

बीता न रात का आलम, धीरज धर न पाएँ।।

अब वह नवीन रंग’ पथ पर आनंद भाव में लिपटा।

मिलता नहीं है, ढूंढा पर’ किंचित कहीं नहीं पाया।

अंधकार एक रात प्रहर का, दूजे द्वंद्व का बादल छाया।

फिर उपहास का भय भी, विचार हृदय में आया।

तुम जो जीवन साथ रहो’ रुककर यह रात बिताएँ।

बीता न रात का आलम, धीरज धर न पाएँ।।

चकित हुआ’ अभिलाषाएँ जो अधिक पंख फैलाए।

अहो! ..चमत्कार विस्मय का, तुमसे स्नेह बढाए।

तुम जो’ बात सुनो मेरे मन की, सही-सही समझाएँ।

हालात विकल करने को है, आश्वासन तुमसे पाएँ।

कुंठित जो कर दे मन धारना, पहले ही तेरा हो जाए।

बीता न रात का आलम, धीरज धर न पाएँ।।


Discover more from ZorbaBooks

Subscribe to get the latest posts sent to your email.

Leave a Reply

मदन मोहन'मैत्रेय'