जगत की रीति अजब-अनोखो’…….

जगत की रीति अजब-अनोखो’

कहीं स्वार्थ की चढी कराही’

मन भावते मीठो-मीठो स्वाद बताए’

कहीं तो भ्रम का जाला बुनता जाए।

अपनी-अपनी पड़ी जगत में सब की।

पता चले नहीं रे’ कब दे जाये धोखों।।

भावना” अटपट सी राह पकड़ कर’

अपने हित को’ बड़ी -बड़ी बात सुनाए’

अटपट सी चलती यहां लेन-देन भी’

हित सधते ही मन अपना गाल बजाए।

परमार्थ तो कह दूं बात है कब की।

मन साधन में रमता, ढूंढ रहा बस मौकों।।

मन विलास में रमता जाए, गीत सुरीली गावे’

अपने हित की बात करें, मीठी लाड लडावे’

मधुर चाशनी शब्दों की, धर के ओंठ चखावे’

हम तेरे है समझ ही लेना, कह के बात बनावे।

अपनापन का भाव मधुर’ बाते है मतलब की।

बात बनाए स्नेह से भीगा, खुब लगाए छौंको।।

जगत की रीति, अजब-गजब की यारी’

अपने हित के मतलब से चलती जीवन गाड़ी’

पथ पर आते-जाते पथिक’ दिखते नहीं अनाड़ी’

यहां अपने मतलब का काम, चलते चाल सनाड़ी।

लाभ हृदय में पाले, यहां चले है चाल अजब की।

मौका मिलते ही श्री राधे, नोट गिनेंगे सौ को।।

जगत की रीति’ धर्म-कर्म से अलग कहीं’

मर्यादा धन की’ अधिक महिमा-मंडित दिखलाए’

जो दिखते है धनवान यहां, अकसर पुजा जाए’

जीवन का अनुभव तीखा’ यहां गदहा पंजीरी खाए।

कहते है नहीं चाह अधिक’ करते चाह दरब की।

एक-एक की गांठ बांध कर भाव लगाए नौ को।।


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मदन मोहन'मैत्रेय'