जीवन के संग’ उत्सव का भाव……
जीवन के संग’ उत्सव का भाव।
चाह हृदय कुंज में, छाए रंग बसंत।
झूमूं मधुर गुंज से, गाए राग विहंग।
अनुराग भाव लिए प्रेम, उठे लिए तरंग।
फिर से नूतन हो जाऊँ, जैसे हो नवनीत।
उर्मित मन के आँगन में कोमल भाव जगाऊँ।।
मधुर स्नेह से, सिक्त हृदय को कर लूं।
उन्मुक्त रहूं अब व्यर्थ विचार प्रवाह से।
किंचित फिर बचा रहूंगा, गलत राह से।
जो दूषित कर दे, बच जाऊँगा द्वेष दाह से।
स्वभावगत जीवन से सीखूं नियम पुनीत।
उर्मित मन के आँगन में कोमल भाव जगाऊँ।।
कहता हूं, धैर्यशील के गुण को जो पा लूं।
रिक्त नहीं हो पाऊँगा समभाव से पथ पर।
जटिल नियम से दूर कहीं रह जाऊँगा कट कर।
उन पैमानों का लाभ कहां, बतलाए जो बंट कर।
गुणा-भाग के द्वंद्वों से दूर गाऊँ लय में गीत।
उर्मित मन के आँगन में कोमल भाव जगाऊँ।।
स्वाध्याय’ जीवन में करने का लाभ जो निर्मल हो।
पढ डालूं खुद को ही, मन में जो उलझे-सुलझे वैन।
अँधियारे का वह रंग समेटे जो लट-पट करते रैन।
खुद को ही सही समझ पाऊँ, पाऊँ द्वंद्व से चैन।
जीवन के संग चलता जाऊँ, सही बनाऊँ नीति।
उर्मित मन के आंगन में कोमल भाव जगाऊँ।।
उत्सव वह पुनीत, जीवन जिसके रंग घुला हो।
बसंत रंग खिलने को हो, उपवन में पुष्प खिले।
जीवन पथ पर राग-द्वेष से भिन्न मधुमय गांव मिले।
सिक्त प्रेम रस में भीगा पथ पर शीतल छांव मिले।
मैं मुस्कराऊँ जीवन के संग, बढती जाए प्रीति।
उर्मित मन के आँगन में कोमल भाव जगाऊँ।।
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