परिपाटी जो अब नया चला हैं जीने का, - ZorbaBooks

परिपाटी जो अब नया चला हैं जीने का,

परिपाटी जो अब नया चला हैं जीने का,

पथिक का बदल गया हैं ध्येय आज,

चलने का पथ पर उसका क्रम बदला हैं,

बदल गया तस्वीर लिये हुए तीखे तासीर 

हित हो जाए बस, इसलिये नियम बदला हैं।।

अब जलज खिलते नहीं पंक में, देखो,

छल बल और पहुंच से पाते हैं परिणाम,

जिनकी लाठी कहते हैं भैंस भी उसका’

बिना कर्म के यहां खाते पुरुषार्थ के आम,

देखो हुआ गजब खेल हैं, जीवन बदला हैं।।

आज सभा में जय-जय नाद का स्वर, 

बलशाली का करते हैं सब मिल के गुणगान,

जो पैसे के मारे छींटे, उसका रखा जाता ध्यान,

समय चक्र जो आज, अधिक करें हैरान,

हर कोई बढ़त चाहता, देखो संयम बदला हैं।

आज-कल जो चलता हैं विज्ञापन का दौर,

सफलता बिकती हैं खरीददार दमदार जो हो,

सुख का बिकता हैं ठौर, करना व्यापार जो हो,

धर्म टांगा जाए खूंटी पर, सही आधार जो हो,

आज-कल महिमा हैं धन की, मन बदला हैं।।

आज जो क्रमिक विकास हुआ हैं, कुछ बदलाव,

मानव के मन में जगने लगा स्वार्थ का चाव,

अब तो, पल में नैतिक नियमों पर लगता हैं दाँव,

मानक जीवन के मूल्य बिकते कौड़ी के भाव,

छूटा कहीं दूर समभाव, जीवन का क्रम बदला हैं।।


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मदन मोहन'मैत्रेय'