प्रेम रस" मंजिल सुधी रखूं सहेज.......... - ZorbaBooks

प्रेम रस” मंजिल सुधी रखूं सहेज……….

प्रेम रस” मंजिल सुधी रखूं सहेज।

मर्यादा से भी कुछ अलग कर्म है।

जीवन से जीवंत भाव का तेज बनूं।

मानवता के बिंदु पर’ सहज दया हृदय में हो।

और भी अश्रु होते है, जीव जगत मानव के बाद।

सहृदय होकर’ जीवन के प्रति सतेज बनूं।।

करुणा का भाव’ प्रेम के रस का एक अंग।

औरो के प्रति उदार हृदय, चलूं संग-संग।

लाभ बिना भी कुछ कर्म संपादित होते है।

औरो के संग सहज भाव से उर्मित प्रेम रंग।

ईश्वर रचित यह अखिल विश्व सृष्टि अगाध।

मानवता के बिंदु पर, नहीं पथिक निषेध बनूं।।

विहंग सा’ कोकिल नाद उच्चारित कर लूं।

पंख लगे जो’ उड़ता फिरूँ नील गगन में।

बनकर वन्यजीव जीवन के संग मुसकाऊँ।

पल भर इनको समझ सकूं, लता-पता हो जाऊँ।

इनका मूक कंठ’ आँखों में झलक उठे आर्तनाद।

इनको स्नेह बांध कर समझूं, जीवन भाव विशेष।।

शहरों के बाहर भी जीवन है, जंगल में’ राहों पर।

किलोल करती हुए गायें, जैसे सहारा ढूँढती हो।

घरों से दरकिनार की गई वह लाचार वृद्धा जैसी।

नजर में अश्रु बिंदु’ लाचार हो गुजारा ढूंढती हो।

कत्ल खाने में जीव’ कोशिशें करें, हो आजाद।

कहीं तो जागृति हो प्रकाशमय’ जीवन का संदेश।।

जीवन के प्रति’ मानवता का वह अलख ज्योत।

प्रज्वलित करने को तत्पर होकर’ प्रेम के रंग।

ईश्वर का है सकल सृष्टि, बाते कहूं विषय संग।

जीवंत जगत का परस्पर हो, स्नेह मय तत्व बोध।

जीवंतता का प्रमाण है सकल सृष्टि’ नहीं हो प्रमाद।

आत्म चिंतन का विषय है, घृणा कहीं नहीं बचे शेष।।

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मदन मोहन'मैत्रेय'