मन' चलो नव प्रभात की ओर..... - ZorbaBooks

मन’ चलो नव प्रभात की ओर…..

मन’ चलो नव प्रभात की ओर’

जहां उदित हुए दिवाकर, प्रमुदित हो’

साम्राज्य मिटाने को गहन अंधकार का’

करते जगत को प्रथम रश्मि से सराबोर।।

माना’ अंधकार अब तक फैला था’

दुर्भावनाओं की मलिनता समेट कर’

विषमताओं की जटिलता लपेट कर’

अंधकार जो था’ स्याह सा मटमैला था।।

अभी तो क्षितिज पर फैला होगा ओस’

समेट लेना’ प्रमुदित होकर बाजुओं में’

अंगड़ाई लेना फिर से सजग होने को’

पंछियों का कलरव, सुन लेना मधुर शोर।।

चलो माना’ भ्रम भी था दबाव का कारक’

तुम कुंठित भी थे, खुद के लिए निर्णय से’

कहां टकरा जाओगे खुद से, इसी भय से’

तुम द्वंद्व में थे, सच स्वाद अधिक कसैला था।।

अब नभ में निखर आया है नवल प्रभात’

तुम रिक्त भी हो जाओ, आत्म वंचना से’

छोड़ो भी द्वंद्व भार, व्यग्र थे जिसे ढोने को’

चलो नवीनता को वरण करने को हो विभोर।।

माना यह भी’ तुम अभी तक अवसाद में थे’

व्यर्थ प्रमाद था’ अतिरिक्त आकांक्षा के बल का’

तुम को भय भी था, पल-पल चलते हुए छल का’

मन’ भिन्नता का वह प्रहार, जो बना विषैला था।।

शिखा पर अब उदित हुए किरण लिए दिवाकर’

लालिमा युक्त आभाएँ ले, करने को प्राणवान’

लिए प्रखर प्रकाश, कराते जीवंतता का भान’

सजीवता का ग्राह्य रस ले चढते ऊपर की ओर।।

माना यह भी, भ्रमित थे मलिन भावनाओं से’

तुम अब सजग हो, चलो नव प्रकाश की ओर’

थकावट को उतार दो, अब चलो होने विभोर’

उल्लास का रंग चढाए, सुनने कलरव का शोर।।


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