मूर्धन्य’ जीवंतता का वह……
मूर्धन्य’ जीवंतता का वह प्रथम लक्ष्य।
सहजता को पाने का चलता प्रयत्न।
अवसादों से कहीं दूर’ ठौर हो, है यत्न।
स्वाभाविक है, जीवंत होने को दिग-दिगंत।
वह” आचरण की चक्कियों में पीसता खुद को।
मानवता के आवरण को लपेटने को हो तत्पर।।
सहज ही अधर पर मौन मुस्कान खिलाए हुए।
टकटकी लगाए देखता है, नयनों में स्नेह बसाए हुए।
उम्मीदों के फसल को मेहनत से सींचता नियमित।
प्रखरता’ अपने शब्दों में निरंतर बढाए हुए।
संघर्ष की परिपाटियों पर यत्न से घिसता खुद को।
सहजता’ जीवन के नियमों को बैठा है रट कर।।
अचल सा होने की भावनाओं से सहज ही तैयार।
गगन को देखता है, निश्चल होकर तारों के समूह को।
विकलता” अब न करें हैरान, शूल चुभोते थे पहले।
अब वह सहज ही मिटाएगा विषमता अति दुरूह को।
निरंतर प्रेरणाओं से ओतप्रोत, प्रेम में भिंगता खुद को।
अब वह जीवंतता के शिखर पर बैठने को, है सज कर।।
मानवता के चीन्हित बिंदुओं को’ वह रेखांकित कर।
मौन होकर मंथन में जुटा है, वह राह पर पथिक।
हौसलों से अब वह मुश्किलों के बने सुमेरू” ढाह देगा।
वह अडिग है’ जानता है, समय निश्चित ही राह देगा।
विवेचित किया है भावनाओं को’ खुद में रीझता खुद को।
भ्रमणाओं का विशेष फैलाव, चला है आज तज कर।।
मूर्धन्य लक्ष्य’ जो निर्धारित करने को यत्नशील।
वह पथिक ढृढता से पथ पर, जो काफिला से छूटा है।
ध्येय हृदय में ढृढता के साथ, सहजता पाने को वह।
गौर से देखने पर लगता है, कभी तो वह केंद्र से टूटा है।
नाउम्मीदी का तूफान भी है, बचने को खींचता खुद को।
हौसलों के संग पद चिन्ह उकेरता, पथिक वह तत्पर।।