राह

ज़ुबां से निकला शब्दों का तीर

प्यादे से आज़ पिट गया वज़ीर

चलूँ बाज़ी की चाल आख़िरी या

शब्दों को पुनः सजाऊँ मैं ?

राह कौन सी जाऊँ मैं, राह कौन सी?

सपना देखा और उठ चल गया

कुछ क़दम अंगारों से जल गया

मरहम औरों से चाहूं या

स्वयं मरहम लगाऊँ मैं ?

राह कौन सी जाऊँ मैं ?

ज़मीन से दूर , ऊँचे – ऊंचे पहाड़ में

आज़ बैठा मैं, कल उडूंगा बयार में

पग–पग का हिसाब चलूँगा या

साथ किसी का पाऊँ मैं ?

राह कौन सी जाऊँ मैं ?

चार दिन मिले मुझे उधार में

चांदनी का सोंधापन, इस संसार में

बना रहा मैं कर्ज़दार यूं ही

उस जहां को त्याग , नया संसार बसाऊँ मैं ?

राह कौन सी जाऊँ मैं ; राह कौन सी ?

धूप से चलकर छाँव के साये में

चार लोग हैं, जीवन किराये में

चारों को तो अपना ही कहता हूं

पर व्यक्ति विशेष किसे बुलाऊँ मैं ?

राह कौन सी जाऊँ मैं ; राह कौन सी ??


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