इंसानियत
उठ गया आज इन्सानियत का जनाजा,
दफ़न हो गई मिट्टी में मानवता।
भरी बाजार में एक इंसान को तड़पते देखा,
सैंकड़ों की भीड़ में इंसानियत को मरते देखा,
इंसानियत का जनाजा उठते देखा।
लगा रहा था गुहार मदद का,
पर किसी को न हाथ बढ़ाते देखा,
खड़ी भीड़ में हर शख्स को,
मौत को तस्वीरों में कैद करते देखा,
इंसानियत का जनाजा उठते देखा।
तड़प-तड़पकर घायल सांस थमते देखा,
मानवता को दम तोड़ते देखा।
थम गए कदम मेरे, इंसान के इस भयानक रूप देख,
आज इंसान नहीं इंसानियत को श्मशान में जलते देखा।
हर रोज की हजारों ऐसी ही कहानी है,
कुछ गुमनाम तो कुछ लोगों की जुबां पर है,
इस तरह मानवता को शर्मशार होते देखा,
इंसानियत का जनाजा उठते देखा।
Discover more from ZorbaBooks
Subscribe to get the latest posts sent to your email.