मीठी पानी थी वो ज़हर हो चली।
मीठी पानी थी।
वो भी ज़हर हो चली।।
धूप धीरे से बेअसर हो चली।
हमें रात तेरी खबर हो चली।।
मेरी यह ग़ज़ल ख़ुद के लिए-
होनी नहीं थी,मगर हो चली।
म्यान में जो तलवार थी।
वो भी पुरानी हों चली।।
मैं कमाता हूँ जिस शहर में-
उसकी हवा भी ज़हर हो चली।
बहुत कम वक्त देती है मुझे-
ज़िन्दगी इस कदर हो चली।
मन का बोझा जब से ढोया-
नींद आँखों से बेअसर हो चली।
ज़माने हुए,जब माँ कहती थी-
उठ भी जाओ,दोपहर हो चली।
वो वक्त जब मिल बैठते थे सब साथ
बात, गुड़िया और जलेबी साथ।
वो बात भी आज पुरानी हो चली।।
बचपन की यादें मुझे बोलती-
भूलो ‘राहुल’ अब उमर हो चली।
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