गांव है, शहर थोडी़ न है..!
जगाती है यहां कोयलें, अपनी ही कूक से
शहर कर्कश थोडी़ न है ..!
गाँव की तंग हैं गलियां, शहर- ए कॉलोनियां थोडी़ न है!
आज़ाद हैं सब यहाँ के लोग , किराये का मकान थोड़ी न है।
रिश्तों में हैं नज़ाकते यहाॅ ,शहरी चापलूस थोड़ी न हैं!
मकां कच्चे जरूर हैं यहाँ , मगर दिल -ए कमज़ोर थोड़ी न है!
तबस्सुम रहती हैं चेहरों पर,यहाँ हिज़्र थोड़ी न है।
तशरीह ना कीजिये ज़नाब, ये तुम्हारा शहर थोड़ी न है।
सड़कों तक छोड़ने जाते हैं लोग, ओला , ऊबर थोड़ी न है।
ये मेरा गाँव है ज़नाब तुम्हारा शहर थोड़ी न है।
इश्क़-ए-मिज़ाज हैं अलग ,शहर के इश्क़ थोड़ी न है।
मोहब्बत सादगी है इनकी, इश्क़-ए-बवाल थोड़ी न है।
बार, रिजाॅर्ट नहीं हैं यहाँ, मग़र टपरिया कम थोड़ी न हैं।
चाय-ए-महफ़िल है सजती , ऐसा सुकूं शहर में थोड़ी न है!!
मकानों पर नम्बर नहीं हैं यहां ,नंबरों से ही पहचान थोड़ी न है।
पिता के नाम से है जानते यहां, ये सब शहरों में थोड़ी न है!
यहां नहीं हैं कोई द्वेश, न ही बैर कोई है
हैं सब मिल- जुल कर रहते, कोई
अनजान थोडी़ न है..!
रिश्ता दिल से निभाते हैं,
काम हो, तो ही बातें हो
ऐसा स्वार्थ थोड़ी न है।
यूं ही नहीं भागते शहरी परींदे वहां से
वो जानते हैं उनका वो मकान थोडी़ न है..!
गाँव से हैं जरूर, मगर गंवार थोड़ी न हैं!
डिग्रियां नहीं हैं तुम्हारे इतनी,पर हुनर भी कम थोड़ी न है!
तबस्सुम- मधुर मुस्कान
टपरियां- झोपडी़ By- Rahul kiran
हिज्र – वियोग , विरह
तशरीह – व्याख्या
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