ख़्वाबों के शहर में अकेला मुसाफ़िर

कहानी – “ख़्वाबों के शहर में अकेला मुसाफ़िर” – जो एक छात्र के संघर्षों, सस्पेंस, और हॉस्टल की ज़िंदगी की सच्चाई को दर्शाती है।

हर साल हज़ारों छात्र अपने घर, माँ की ममता, और पिता की डांट-भरी हिदायतें छोड़कर बड़े शहरों की ओर निकलते हैं—सिर्फ एक सपना लेकर: कामयाब होना। राघव भी उन्हीं में से एक था।

उत्तराखंड के एक छोटे से गांव से ताल्लुक रखने वाला राघव, अपने माता-पिता का इकलौता बेटा था। परिवार छोटा था, लेकिन सपने बड़े। माँ चाहती थीं कि बेटा इंजीनियर बने, और पिता चाहते थे कि वह अपने पैरों पर खड़ा हो। राघव ने दिल्ली की एक नामी यूनिवर्सिटी में एडमिशन लिया और निकल पड़ा ख़्वाबों के शहर की ओर—अपने गाँव से हज़ार किलोमीटर दूर।

हॉस्टल – नया घर, पर अजनबी दीवारें

हॉस्टल में पहला दिन… कमरे की दीवारें जैसे चुप थीं, लेकिन एक अजीब सी घुटन कह रही थी—”अब तुझे खुद से लड़ना होगा।” रूममेट भी नए थे, दोस्ती में वक्त लगता है। खाना बेस्वाद, बिस्तर अजनबी, और नींद गायब। माँ की आवाज़ मोबाइल से आती जरूर थी, पर गले न लग पाती थी।

संघर्ष – सुबह की क्लास से रात के आँसू तक

राघव को हर सुबह 5 बजे उठना होता, नहा कर क्लास जाना, घंटों लाइन में लग कर मेस का खाना खाना—जिसमें स्वाद नहीं, पर पेट भरना ज़रूरी था। कभी-कभी तो टॉयलेट में भी लाइन लगानी पड़ती थी। बिजली कब चली जाए, ये किसी को नहीं पता। गर्मी में पंखा बंद, और ठंडी में पानी गर्म नहीं।

और पढ़ाई? वो तो जैसे एक अंतहीन दौड़ थी। हर टेस्ट, हर असाइनमेंट में लगता कि बस अब हार गया। पर फिर माँ की आवाज़ याद आती—”बेटा, तू कर सकता है।” यही आवाज़ थी जो उसे फिर किताबों की ओर खींच लेती।

अकेलापन – जब सारा हॉस्टल सो रहा होता

कई बार रात को 2 बजे तक पढ़ते-पढ़ते आँखें भीग जातीं। जब रूममेट सो रहे होते, राघव छत पर जाकर आसमान देखता, और सोचता—क्या सच में ये सपना कभी पूरा होगा?

सस्पेंस – जब सब कुछ छोड़कर घर लौटने का मन किया

एक दिन तबियत इतनी खराब हो गई कि लग रहा था—अब घर चला जाता हूँ। पापा को फोन उठाया, उधर से आवाज़ आई—“बेटा, तू नहीं हार सकता, हम सबकी उम्मीद है तू।” और उस दिन राघव ने तय कर लिया—अब चाहे जो हो, मैं पीछे नहीं हटूंगा।

आशा की किरण – सपने कभी झूठ नहीं बोलते

समय बीता, दोस्त बने, लाइब्रेरी की किताबें अब बोझ नहीं रहीं। राघव ने पहले सेमेस्टर में टॉप किया। खुद पर विश्वास बढ़ा। अब हॉस्टल का कमरा ‘घर’ लगने लगा था। कभी डराने वाला शहर अब अपने जैसा लगने लगा था।

**”राघव जैसे लाखों छात्र हैं, जो संघर्षों से घबराते नहीं, बल्कि उन्हीं से सीखकर उड़ना सीखते हैं। ये कहानी सिर्फ राघव की

नहीं, हर उस स्टूडेंट की है जो अपनों के लिए सपने से लड़ते है ।

लेखक: विशाल


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Er. Vishal Maurya
Uttar Pradesh