दशावतार की सामाजिक व्याख्या

प्रस्तावना – भारतीय समाज, विष्णु चेतना और अवतार की विविधता

भारतीय समाज की रचना किसी संयोग से नहीं हुई, बल्कि यह विचारों, मूल्यों और अनुभवों की शताब्दियों लंबी यात्रा का परिणाम है। इसकी नींव में सामाजिकता है — वह भावना जिसने हिमालय की चोटी से लेकर हिन्द महासागर की गहराइयों तक एकता को जीवन का अंग बना दिया।

जहाँ विश्व के अन्य जगहों पर राष्ट्र की एकात्मता भाषा, धर्म, पूजापद्धति या सत्ता पर गढी गयी, वहीं आर्यवसुंधरा की पुत्रो ने विविधता को अपनी ताक़त बनाया। भाषाएँ, पूजा पद्धतियाँ, सत्ता व्यवस्थाएँ — इन सबके बीच भारतीय समाज ने संतुलन पाया, और सामाजिक मूल्यों की रक्षा करते हुए प्रगल्भता के शिखर तक पहुँच गया।

परन्तु यही प्रगल्भता, यही मूल्य, समय के साथ विभिन्न आक्रमणों के लक्ष्य भी बने। इन आक्रमणों का स्वरूप भिन्न-भिन्न था — कभी सत्ता की लालसा में, कभी सुख की अति कामना में, कभी पहचान की राजनीति में। और जब भी इन मूल्यों पर संकट आया, तब भारतीय समाज ने स्वयं को बचाने के लिए अपनी चेतना को जाग्रत किया।

विष्णु – समाज का प्रतीक

भारतीय दर्शन में विष्णु केवल एक देवता नहीं हैं। वे समाज के भीतर कार्यरत संतुलन, समरसता और बहुलता के प्रतीक हैं। उनका चातुर्वर्ण्य में समाहित होना इस बात का संकेत है कि ब्राह्मण का उद्बोधन, क्षत्रिय का प्रबंधन, वैश्य का नियोजान और शूद्र की गति और व्यवहार — ये सब मिलकर ही एक सशक्त समाज बनाते हैं। यहाँ चतुर्वर्ण का निर्धारण जैसा की शास्त्रों में विदित है वैसे ही, गुण कर्मो पर अपेक्षित है, जन्म पर नहीं।  

जब हम विष्णु को नारायण, वासुदेव या हरि कहते हैं, तो यह किसी पारलौकिक सत्ता की पुकार नहीं — बल्कि उस समाज का आह्वान होता है जो सेवा, ज्ञान, न्याय, और सुरक्षा में संतुलित है।

अवतार – आत्मरक्षा के विविध रूप

समाज की रक्षा केवल बाहरी शत्रुओं से नहीं, बल्कि उस विघटन से होनी चाहिए जो उसे पुनः छोटे-छोटे समूहों में बाँट दे। और यही रक्षा “अवतारों” के माध्यम से होती है — ऐसी शक्तियाँ जो संकट की प्रकृति के अनुसार प्रकट होती हैं।

जब बुद्धि पर प्रहार होता है — अवतार ज्ञान के रूप में आते हैं। जब न्याय खतरे में होता है — वे युद्ध के रथ पर सवार होते हैं। जब सेवा अपमानित होती है — वे करुणा के संदेश बन जाते हैं। जब समाज भ्रम में होता है — वे विचार और संकल्प के रूप में जन्म लेते हैं।

“यदा यदा हि धर्मस्य ग्लानिर्भवति भारत। अभ्युत्थानमधर्मस्य तदात्मानं सृजाम्यहम्॥”

यह श्लोक केवल ईश्वर की घोषणा नहीं, बल्कि समाज की चेतना का संकेत है। जब धर्म की हानि होती है, तब समाज स्वयं अपने भीतर से उत्तर ढूंढता है। हर अवतार एक सामाजिक प्रतिक्रिया है, एक विचारशील उत्तर है उस विघटन को, जो मूल्यों को मिटाने का प्रयास करता है।

इसलिए, विष्णु को दिया गया हर संबोधन — वास्तव में उस समाज की अभिव्यक्ति है। विष्णु स्वयं समाज हैं, और समाज स्वयं उसकी चेतना है।

 

 

 

 

मत्स्यवतार

ज्ञातस्त्वं मत्स्यरूपेण मां खेदयसि केशव । हृषीकेश जगन्नाथ जगद्धाम नमोऽस्तु ते॥

आप मत्स्यका रूप धारण करके मुझे खिन्न कर रहे है। हषीकेश! आप जगदीश्वर एवं जगत्‌के निवासस्थान है, आपको नमस्कार है।

कहा जाता है की मत्स्यवतार में प्रभु ने मत्स्य रूप में आकर न सिर्फ प्रलय से इस भूमि तथा उनके पुत्रो को बचाया पर हयग्रीव नामक चिरंजीवी राक्षस का विध्वंस कर ब्रह्माजी को वेद ज्ञान वापिस किया। अब यहाँ पर एक बात का खुलासा नहीं होता की, भगवन ने नयी सृष्टि के निर्माण में सत्यव्रत को ही क्यों चुना? हम अगर उस चयन प्रक्रिया को देखे तो पता लगेगा की, तपस्या के परमोच्च शिखर पर भी उनका सामजिक भाव कम नहीं हुवा था! सत्यव्रत ने ब्रम्हा की घनघोर आराधना की तब ब्रम्हाजी ने उन्हें स्वयं दर्शन दे “वर” मांगने का अनुरोध किया तब इस सत्यव्रत (वैवस्वत मनु) ने ब्रम्हा जी से अनुरोध किया,

भूतग्रामस्य सर्वस्य स्थावरस्य चरस्यच। भवेयं रक्षणायालं प्रलये समुपस्थिते॥

प्रलयके उपस्थित होनेपर मै सम्पूर्णं स्थावर-जक्गमरूप जीवसमूहकी रक्षा करनेमें समर्थ हो सकू। (“मत्स्यमहापुराण”अध्याय १ श्लोक १६)

बाद की कहानी ऐसी बताई जाती है की “सत्यव्रत” नामक एक राजा ने (जो आगे चल के वैवत्स्वत मनु के नाम से प्रसिद्ध हुवे) एक छोटे से मछली को उसके प्रार्थना पर आश्रय दिया। जब वो मछली निरंतर बढ़ती गयी तो उसे ने कमण्डलु से लेकर सागर तक अपना प्रवास किया। जब प्रलय काल का समय आया तब उसी मत्स्य ने वासुकि की डोर बना कर सत्यव्रत के जहाज को संभल के रखा। अब दूसरा कार्य ऐसा है, जब प्रलय चल रहा था तब हयग्रीव राक्षस ने वेदों को चुरा कर समुद्र में छुपा कर रखा। तब उसी मत्स्य ने हयग्रीव से युद्ध कर उसे पराजित किया और वेदों वापस पाया। ये हयग्रीव के पास ऐसा क्या था जो वो इतना बड़ा काम कर गया? वो कहानी ऐसी है की हयग्रीव राक्षस जो घोड़े के सिर और मानव धड़ का था, उसने ने माँ पार्वति जी उपसना कर उनसे अमर होने वर देने की इच्छा प्रगट की थी। उस पर उसे समझाया की जो जीवित् है वो मृत्यु से समाप्त होगा, मै तेरे लिए किसी प्रारब्ध का उल्लंघन नहीं करुँगी। तब उस चलाख ने ऐसा वर माँगा की माँ उसे मना भी नहीं कर पायी। उसने ऐसा वर लिया की उसकी मृत्यु सिर्फ हयग्रीव के हाथ से ही होगी। अब ये बड़ा कठिन काम था, पर प्रकृति ने उसका भी प्रबंध कर लिया जब ये युद्ध (मत्स्य और हयग्रीव) अंतिम दौर में था, तब वैकुण्ठ में एक बात हुवि। नारायण और लक्ष्मी जी में कुछ अनबन हो गयी और लक्ष्मी जी ने नारायण के धड़ को सर से अलग होने का श्राप उद्धृत किया। जब मस्तक धड़ से अलग हुवा तो वो गायब हो गया। इसलिए ब्रह्माजी को जनक्षोभ से बचने एक घोड़े का मस्तक उनके धड़ पर रखना पड़ा। अब विष्णुजी पूर्ण हयग्रीव बन गए और उन्होंने हयग्रीव का विनाश किया। 

पर इस कहानी का अर्थ ऐसा प्रतीत होता है की, मत्स्य ये जलचर है जो पृथ्वी पर सबसे पहले आये ऐसा आज का विज्ञानं भी मानता है, डार्विन भी ये ही कहता है। इसलिए वो हमारे पाहिले अवतार सुचित होते है? पर विषय यही पर समाप्त नहीं होता, हम जिस ज्ञान की बात करते है उसे भी तरल पदार्थ ही मानते है, जल स्वरुप। तो वेदों के ज्ञान को उस राक्षस ने सागर में मतलब भरपूर अवांतर ज्ञान के आवरण में रखा होगा। याद करो हयग्रीव का मस्तक घोड़े का मतलब उसके पास बहुत तीव्रता से चलने वाली बुद्धि होने का दर्शन होगा। इसलिए उस पर जित पाने समाज ने प्रखर मेधावीयों को याने जो ज्ञान के सागर में मत्स्य की निपुणता से तैरने वाले लोग तय्यार किये और अपने मूल ज्ञान “वेद” को उनसे स्वतंत्र किया। यहाँ पर भी लड़ाई के अंतिम चरण में ऐसे वीर को लाया गया जिसकी बुद्धि भी उस राक्षस की बुद्धि जैसे ही वेगवान हो! क्या हर पौराणिक कहानी से हमें ऐसे दर्शन लेने चाहिए? 

 हमारे समाज ने वेदो के लिए ये लड़ाई क्यों की? इसका एक  कारण ऐसे प्रतीत होता है की, हम अगर आज समूह या झुण्ड से समाज में परावर्तित हुवे है तो उसका कारण है हमारे समूह को मिले हुवे “मूल्य” जो हमें वेदो के माध्यम से मिले। इस लिए हमारे समाज में वेदो का अनन्य साधारण महत्त्व है। 

जिस दिन हम इन वेदो द्वारा वितरित मूल्यों से अलग हो जायेंगे हमारे समाज का समूह या झुण्ड में परिवर्तन अटल है। 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

कूर्मावतार

सुरासुराणामुदधिं मथ्नतां मन्दराचलम्। दध्रे कमठरूपेण पृष्ठ एकादशे विभुः॥

मत्स्यावतार की कथा न केवल भारतीय पौराणिक इतिहास का एक महत्वपूर्ण हिस्सा है, बल्कि उसमें छिपे प्रतीकों के माध्यम से गहन आध्यात्मिक और सामाजिक संदेश भी निहित हैं। जब भगवान विष्णु ने मत्स्य रूप धारण करके वेदों को पुनः समुद्र से प्राप्त किया, तब यह दर्शाया गया कि ज्ञान की पुनर्प्राप्ति संभव है, बशर्ते उसके लिए सही समय पर ईश्वरीय प्रेरणा और प्रयास हो। वेद केवल ग्रंथ नहीं थे, बल्कि समाज के लिए मार्गदर्शन करने वाले मूल्य थे। एक बार जब यह ज्ञान समाज में पुनः स्थापित हुआ, तब उसमें मंथन स्वाभाविक था क्योंकि विचार जब जागते हैं, तो वे केवल स्वीकार नहीं होते, उन पर चर्चा और बहस होती है। भगवन कहते है, 

आनीय सहिता दैत्ये: क्षीराब्धी सकलौषधी: । प्रक्षिप्यात्रामृतार्थ ता: सकला दैत्यदानवै: ।।

देवा तथा दैत्य दोनो को ज्ञात सर्व औषधी क्षीरसागर में डालने का अनुरोध भगवन कर रहे है, यहाँ उसका प्रतीकात्मक रूप ले तो, औषध माने रोगों तथा अवगुणो पर इलाज है। उसे हम व्यवस्था सम्बन्धी विचार, आचार और नियम भी ले सकते है! देव – दैत्य दोनों के व्यवस्था प्रावधानों पर यहाँ पर मंथन अपेक्षित है. फिर आनेवाले नतीजों पर प्रभु कहते है,  

सामपूर्वच देतेयास्तत्र साहाय्यकर्मणि। सामान्यफलभोक्तारो यूयं वाच्या भविष्य।।

कर्म में सहाय्यक होने से नतीजों पर दोनों का सामान हक़ होगा!

यह विचारमंथन उस समय होता है जब विरोधी विचारधाराएं टकराती हैं। जैसे समुद्र मंथन में एक ओर देवता थे और दूसरी ओर दैत्य, वैसे ही समाज में भी हमेशा दो विपरीत शक्तियाँ सक्रिय रहती हैं, एक जड़ विचारधारा और दूसरी प्रगतिशील। इस प्रतीकात्मक मंथन में “चक्र” यानी मंथन करने वाला यंत्र चलाने के लिए डोर (रस्सी) की आवश्यकता थी, और वह डोर बनी वासुकि सर्प से। यहाँ यह प्रश्न उठता है -सर्प क्यों? सर्प एक ऐसा प्राणी है जो जल और थल दोनों में गति करता है, अर्थात वह दो अलग प्रकृतियों को जोड़ने वाला माध्यम है। जल, जो कि तरलता का प्रतीक है, ज्ञान का भी रूपक है, वह सतत प्रवाहित होता है, रुका नहीं रहता। वहीं धरती या मिट्टी — स्थायित्व, जड़ता और स्थूलता का प्रतीक — वह विचार जो वर्षों से बिना बदलाव के चला आ रहा है।

वासुकि रस्सी का रूप इसलिए भी महत्व रखता है क्योंकि ऐसी डोर चाहिए थी जो दोनों विचारधाराओं को बाँध सके और जिसे कोई पक्ष अस्वीकार न करे। यदि एक पक्ष उस डोर को छोड़ देता, तो मंथन रुक जाता — और समाज विचारशील प्रगति से वंचित रह जाता। मंथन केवल एक प्रक्रिया नहीं, बल्कि प्रतीकात्मक संघर्ष है — जहाँ उद्देश्य है अमृत की प्राप्ति, यानी शाश्वत और व्यापक सत्य की खोज।

अब आते हैं उस “चक्री” पर, यानी उस द्रव में जो अशांति और हलचल पैदा करने वाला है। यह भूमिका मंदार पर्वत ने निभाई — एक ऐसा विशाल, स्थिर और कठोर तत्व जिसे चलाने के लिए महान प्रयास की आवश्यकता थी। वह पहाड़ धीरे चलता था, लेकिन उसमें स्थिरता और संकल्प की शक्ति थी। यह ‘स्लो स्पीड बट हाई टॉर्क’ का आदर्श उदाहरण था — धीमी गति से चलने वाला, पर जिस पर पूरा विश्व स्थिर हो सकता था।

लेकिन जैसे किसी मशीन को स्थिर रखने के लिए आधार की आवश्यकता होती है, वैसे ही मंदार पर्वत को संतुलित रखने के लिए एक मजबूत आधार चाहिए था। यहाँ प्रवेश होता है कूर्म यानी कछुए का — भगवान विष्णु के कूर्मावतार का। इस अवतार की विशेषता यह थी कि उसने समुद्र की गहराइयों में जाकर मंदार को अपने पीठ पर टिकाया, बिना किसी कम्पन के, बिना स्थिति बदले। यह दर्शाता है कि कोई एक ऐसा तत्व आवश्यक है जो ज्ञान की अशांति में भी अडिग रह सके — जो परिस्थितियों से डिगे नहीं।

ऐसे व्यक्ति, विचार या प्रवृत्तियाँ जो समाज में स्थायित्व लाती हैं, जो प्रचंड विचारधाराओं के झंझावात में भी अपने स्थान पर स्थिर रहती हैं — वही वास्तव में “कूर्मावतार” का प्रतिनिधित्व करते हैं। इन्हें समाज ने सम्मान दिया, इन्हें ईश्वरीय अवतार मानकर जगत कल्याण के निमित्त प्रतिष्ठित किया।

दिलचस्प यह है कि डार्विन के विकासवाद में भी उभयचरों — जो जल और थल दोनों में रह सकते हैं — को विकास की दूसरी अवस्था माना गया है। यह संयोग मात्र नहीं कि भारतीय सनातन परंपरा में भी दूसरा अवतार उभयचर (कछुआ) ही है। यह दर्शाता है कि जब विचार और विज्ञान के पथ एक-दूसरे से मेल खाते हैं, तो गूढ़तम प्रतीकों के अर्थ और भी स्पष्ट होते हैं।

यह पूरी कथा केवल पौराणिक गाथा नहीं, बल्कि यह इस बात की प्रेरणा है कि सामाजिक संतुलन, ज्ञान की रक्षा और सत्य की खोज के लिए हमें विरोधी विचारों के साथ मंथन करना होगा — एक ऐसा मंथन जो स्थिरता, संतुलन और गहराई के साथ किया जाए। यही सच्चे अर्थों में अवतारों की शिक्षाएँ हैं — जो हमें बाह्य रूप से नहीं, बल्कि आंतरिक रूप से विकसित करने का मार्ग दिखाती हैं।

 

 वराह अवतार: सामाजिक पुनरुत्थान

द्वितीयं तु भवायास्य रसातलगतां महीम्। उद्धरिष्यन्नुपादत्त यज्ञेशः सौकरं वपुः                             वराह अवतार में इस दुनिया के कल्याण के लिए भगवान ने पृथ्वी को उठाया जो हिरण्याक्ष राक्षस द्वारा मोहित होकर रसातल चली गई थी

सनातन धर्म की दिव्य परंपरा में भगवान विष्णु के दशावतारों का विशेष महत्त्व है, जिनके माध्यम से धर्म की रक्षा और अधर्म का नाश होता है। इन दस अवतारों में से एक है — वराह अवतार, जो न केवल ब्रह्मांडीय संतुलन को दर्शाता है, बल्कि यह सामाजिक मूल्यों की पुनर्स्थापना का भी प्रतीक है।

पौराणिक परिप्रेक्ष्य: जब पृथ्वी लुप्त हुई: पुराने काल में हिरण्याक्ष नामक एक दानव ने पृथ्वी (भूमि देवी) को समुद्र के गर्भ में छिपा दिया। यह कार्य केवल भौतिक स्तर पर ही नहीं, बल्कि प्रतीकात्मक रूप में भी ‘मूल्यहीनता’ और ‘विनाश की ओर बढ़ते समाज’ को दर्शाता है। देवताओं के आवाहन पर भगवान विष्णु ने वराह का रूप धारण किया। इस अवतार में वे ब्रह्मा की नासिका से प्रकट हुए, जो एक अत्यंत रहस्यमय और दिव्य प्रस्थान बिंदु है।

बोधचन्द्रमसि पूर्णविग्रहे मोहराहुमुषितात्मतेजसि। स्नानदानयजनादिकाः क्रिया मोचनावधि वृथैव तिष्ठते।।

जब ज्ञानरूपी पूर्ण चन्द्रमा मोहरूपी राहु द्वारा अपनी चमक खो देता है, तब ग्रहणकाल में किए गए स्नान, दान और यज्ञ आदि सभी कर्म निष्फल हो जाते हैं।                                                         

 भगवान वराह अपनी विशाल और शक्तिशाली थूथनी से समुद्र की गहराइयों में उतरे। उन्होंने गर्भोदक में छिपी हुई पृथ्वी को खोज निकाला और उसे अपने दांतों पर रखकर पुनः बाहर ले आए। यह कार्य सिर्फ पृथ्वी को शारीरिक रूप से बचाने का नहीं, बल्कि संस्कृति, मूल्यों, और सभ्यता को गहराई से पुनर्जीवित करने का संकेत था।

हिरण्याक्ष से युद्ध: मूल्यहीनता बनाम धर्म: जब हिरण्याक्ष ने देखा कि उसका अराजक कार्य विफल हो गया है, तो उसने भगवान वराह को युद्ध के लिए ललकारा। यह युद्ध केवल देवताओं और असुरों के बीच नहीं था, बल्कि नैतिकता और अनैतिकता, संस्कृति और अज्ञानता के बीच था। भगवान वराह ने इस भीषण युद्ध में अंततः हिरण्याक्ष का वध किया और धरती को जल के ऊपर स्थापित कर दिया।

यह दृश्य एक गहरा संदेश देता है: जब भी समाज अपने मौलिक मूल्यों से भटकता है, तब एक ‘वराह प्रवृत्ति’ का उदय आवश्यक होता है — जो उस कीचड़ में डूबे सत्य को पुनः खोज निकाल सके।

गर्भोदक और कीचड़: एक सामाजिक रूपक: कथा में वर्णित ‘गर्भोदक’ केवल एक महासागर नहीं है, बल्कि यह उस अव्यवस्था और अंधकार का रूप है, जिसमें सामाजिक मूल्य डूब चुके होते हैं। इस गर्भोदक में “कीचड़” का निर्माण — मिट्टी और जल के संयोग से — एक गहन प्रतीक है:

·        मिट्टी — जड़ता, अज्ञान, और भौतिकता

·        जल — चेतना, ज्ञान, और मूल्य

जब समाज में चेतना और अज्ञान का असम संतुलन उत्पन्न होता है, तब ‘कीचड़’ जन्म लेता है — एक ऐसा वातावरण जहाँ सत्य और धर्म के साथ स्वयं समाज दब जाता हैं। यही हुआ जब हिरण्याक्ष ने वेदों के ज्ञान को जड़ता और भौतिकता के कीचड़ में दबा दिया। वेद, जो समाज के ज्ञान का शुद्ध स्रोत हैं, यदि उन्हें दबा दिया जाए, तो समाज दिशाहीन और मूल्यविहीन हो जाता है।

विष्णु रूप: समाज पुरुष का बिंब

विष्णु का हर अंग समाज की किसी न किसी प्रणाली का प्रतीक है:

·        मुख — समाज का बौद्धिक और शिक्षात्मक पक्ष

·        हाथ — कर्म व समाज नियोजन शक्ति

·        पेट — भरण-पोषण, संसाधनों का प्रबंधन

·        पाँव — संस्कृति की गति और व्यवहार

इस दृष्टिकोण से देखा जाए तो विष्णु स्वयं ‘समाज पुरुष’ हैं। और जब समाज अपने ही मूल्यों के विरोध में जाने लगे, जब नेतृत्व (हिरण्याक्ष जैसे) नैतिकता से दूर चले जाएँ, तब विष्णु—या कहें समाज की सामूहिक चेतना—को ‘वराह’ बनना पड़ता है।

चण्डालदेहे पश्वादिस्थावरे ब्रह्मविग्रहे। अन्येषु तारतम्येन स्थितेषु न तथा ह्यहम् ॥                             मैं उन भेदों से सहमत नहीं हूँ जो निम्न जाति के मनुष्यों के शरीर, गौ आदि के शरीर, स्थिर शरीर, ब्राह्मण आदि के शरीरों में देखे जा सकते हैं।

यहाँ जाती भेद तथा उच्च नीच की भावना को मानाने से भगवन इंकार करते है।

 वराह का अर्थ: खोज और पुनरुत्थान: ‘वराह’ शब्द का शाब्दिक अर्थ है — “जो खोद कर बाहर निकाले”। और यही उनके अवतार का उद्देश्य रहा। यह खोज केवल भूगोल की नहीं थी, यह एक सांस्कृतिक पुनर्जागरण की यात्रा थी — अपने खोए हुए मूल्य, धर्म, और आचरण को दोबारा स्थापित करने की।         वेदों में वराह को विभिन्न प्रतीकों से जोड़ा गया है:

·        सूर्य — प्रकाश और बोध

·        पर्वत — स्थायित्व और बल

·        हल — कृषि और पुनर्निर्माण

·        प्राणी रूप वराह — प्रकृति की शक्ति और सहनशीलता

इन सभी प्रतीकों के माध्यम से समाज ने जड़ताओं को खंगालना प्रारंभ किया और वहां से पुनः मूल्य खोजकर समाज निर्माण की प्रक्रिया शुरू की। वराह उपनिषद में पहले तो ५ तत्वों से १० से १५ से २४ तत्वों का जिक्र है बादमे उसे ९६ संख्या तक ले गए। जो की भगवन वराह और ऋभू ऋषी का संवाद है। तो वो एक योग है जो शरीर को मोक्ष की और ले जाता है। 

आज के लिए संदेश: वराह रूप की आवश्यकता:

जब हम आज की सामाजिक परिस्थिति को देखते हैं, तो कई बार लगता है कि हम भी किसी गर्भोदक की अवस्था में हैं — जहाँ मूल्यों का ह्रास, अराजकता, और स्वार्थपूर्ण नेतृत्व समाज को डुबा रहा है। ऐसे समय में हमें फिर से उस वराह स्वभाव की आवश्यकता है — जो धैर्यपूर्वक, परिश्रम से सत्य को खोजे और समाज का पुनर्निर्माण करे।

निष्कर्ष: वराह अवतार का सामाजिक संदेश

वराह अवतार केवल एक चमत्कारी पौराणिक कथा नहीं है, बल्कि यह एक सांस्कृतिक उपकरण है जो हमें याद दिलाता है कि जब भी समाज मूल्यहीनता के गर्त में पहुंचे, तब परिवर्तन की लहर भीतर से ही उठानी होगी। यह अवतार बताता है कि सच्चाई को दबाया जा सकता है, लेकिन मिटाया नहीं जा सकता। और जब वह ‘थूथनी’ रूपी विवेक उसे फिर से बाहर लाता है, तो समाज पुनः जी उठता है।

 

 

 

 

 

नरसिंह अवतार

प्राचीन काल में ऋषि कश्यप और उनकी पत्नी दिति के दो पुत्र हुए—हरिण्याक्ष और हिरण्यकश्यप। इन दोनों भाईयों में असुर प्रवृत्ति विद्यमान थी। जब हरिण्याक्ष ने पृथ्वी को जल में डुबो दिया, तब भगवान विष्णु ने वाराह अवतार धारण करके पृथ्वी को बचाया और हरिण्याक्ष का वध कर दिया। अपने भाई की मृत्यु से हिरण्यकश्यप अत्यंत क्रोधित हुआ। बदले की भावना से उसने वर्षों तक कठिन तपस्या की, जिससे प्रसन्न होकर ब्रह्मा जी ने उसे वरदान दिया कि वह न दिन मरेगा, न रात में, न मनुष्य द्वारा, न पशु द्वारा, न धरती पर, न आकाश में—इस प्रकार उसे लगभग अजेय बना दिया गया।

यह वरदान पाकर हिरण्यकश्यप ने अपने को देवताओं से भी श्रेष्ठ समझना प्रारंभ कर दिया। उसने पूरे राज्य में ईश्वर की पूजा पर रोक लगा दी और स्वयं को भगवान घोषित कर दिया। उसकी सत्ता निरंकुश हो चली थी। लेकिन विडंबना यह थी कि उसी के पुत्र प्रहलाद में ईश्वरभक्ति और विनम्रता जैसे दिव्य गुण मौजूद थे। वह विष्णु का परम भक्त था और अपने पिता के आदेशों के विरुद्ध भी उसने भगवान की भक्ति नहीं छोड़ी। प्रहलाद की यह भक्ति हिरण्यकश्यप को असह्य हो गई। उसने कई बार प्रहलाद को समझाने की कोशिश की, पर वह नहीं बदला। तब हिरण्यकश्यप ने प्रहलाद की हत्या के अनेक प्रयास किए—साँपों के बीच फेंकवाना, ऊँची चोटी से गिरवाना, हाथियों के नीचे कुचलवाना, और अंत में—होलिका के साथ अग्नि में बैठाना। किंतु हर बार प्रहलाद की भक्ति उसे बचाती रही और होलिका स्वयं जलकर भस्म हो गई। फिर एक दिन हिरण्यकश्यप ने क्रोध में प्रहलाद से पूछा, “कहाँ है तेरा भगवान?” प्रहलाद ने उत्तर दिया, “वह सर्वत्र है—खंभे में भी।” इस पर हिरण्यकश्यप ने ललकारते हुए खंभे पर प्रहार किया। तभी उस खंभे से भगवान विष्णु नरसिंह के रूप में प्रकट हुए—आधा मानव, आधा सिंह। उन्होंने हिरण्यकश्यप को सांझ के समय, एक चौखट पर, अपने नखों से उठाकर मार डाला—बिल्कुल ब्रह्मा के दिए वरदान की सीमाओं का उल्लंघन किए बिना। जैसा की इस श्लोक से प्रतीत होता है,

मत्प्राणरक्षणमनन्त पित्रर्वधश्च मन्ये स्वभृत्यऋषिवाक्यमृतं विधातुम्।

खड्गं प्रगृह्य यदवोचदसद्विधित्सु- स्त्वामीश्वरो मदपरोऽवतु कं हरामि।।

प्रह्लाद जी कहते है, हे अनन्त! मेरे पिता ने अन्याय करने की इच्छा से हाथ में खड्ग लेकर जो कहा कि ‘मुझसे अतिरिक्त यदि कोई ईश्वर है तो तेरी रक्षा करे- मैं तेरा सिर काटता हूँ’, उस समय आपने जो मेरे प्राणों की रक्षा की और मेरे पिता का वध किया, वह भी अपने दास देवर्षि नारद के वचनों को सत्य करने के लिये ही था-ऐसा मैं मानता हूँ।

अब यदि इस कथा को प्रतीकात्मक रूप में देखें, तो यह सिर्फ एक पौराणिक घटना नहीं बल्कि एक सामाजिक विमर्श बन जाती है। हिरण्यकश्यप वह राजा है जो सत्ता के मद में अंधा हो गया है, और प्रहलाद उस सजीव मूल्य का प्रतीक है जो समाज की मासूम परंतु जागरूक चेतना को दर्शाता है। जब राजा प्रजा के नैतिक मूल्यों को कुचलना चाहता है, तब समाज की आंतरिक शक्ति—अर्थात विष्णु रूपी चेतना—नरसिंह रूप में प्रकट होती है, जो अत्याचार और अन्याय के विरुद्ध न्याय की प्रतिष्ठा करती है।

नाहं बिभेम्यजित तेऽतिभयानकास्य-जिह्वार्कनेत्रध्रुकुटीरभसोग्रदंष्ट्रात्।

आन्त्रस्त्रजः क्षतजकेसरशङ्कुकर्णा-न्निर्हादभीतदिगिभादरिभिन्नखाग्रात्।।

 हे अजित! जिसमें अति भयानक मुख और जिह्वा, सूर्य के समतुल्य देदीप्यमान नेत्र, भृकुटि का वेग एवं उग्र दाढ़ें हैं, जो आँतों की माला, रक्ताक्त सटाकलाप एवं सीधे खड़े हुए कानों से युक्त है, जिसके सिंहनाद ने दिग्गजों को भी भयभीत कर दिया है तथा जिसके नखाग्र शत्रु को विदीर्ण करने वाले हैं, आपके उस भयंकर स्वरूप से मुझे कुछ भी भय नहीं है।

यह कथा यह भी दिखाती है कि वेदों से जो मूल्य हमें प्राप्त हुए, वे केवल पुस्तक में सीमित नहीं रहते, बल्कि समाज में विचारों और अनुभवों की अग्निपरीक्षा के माध्यम से विकसित होते हैं। जैसे-जैसे समाज उन्हें अपनाता है, वे स्वीकार्यता प्राप्त करते हैं और वही मूल्य फिर सत्ता से टकराते हैं। सत्ता कभी-कभी इन्हीं मूल्यों को नष्ट करने का प्रयास करती है, और तब सज्जनों की सामूहिक शक्ति उनके बचाव में खड़ी हो जाती है। जब मूल्य पूरी तरह परिपक्व नहीं होते, तब संघर्ष भी उग्र और कठोर होता है—इसलिए नरसिंह अवतार की भयंकर रूप-रेखा बनती है।

नरसिंह का यह रूप समाज की भीतर छुपी हुई शक्ति को भी दर्शाता है—जिसमें आक्रोश भी है, रक्षा भी, विनाश भी और सृजन भी। डार्विन के विकासवाद में जिस आदिम मानव की कल्पना की गई है—एक ऐसा प्राणी जो अपने अस्तित्व की रक्षा के लिए हर कठिनाई से जूझ सकता है—वह कहीं न कहीं नरसिंह अवतार की सामाजिक व्याख्या से मेल खाता है। यहाँ नरसिंह एक शौर्य और विवेक का प्रतीक है, जो न्याय के लिए उत्पन्न होता है और अत्याचार का अंत करता है।

इस तरह नरसिंह अवतार केवल धार्मिक उपासना का विषय नहीं, बल्कि मानव चेतना के विकास का चरण भी है—जहाँ समाज अन्याय के विरुद्ध क्रांति करता है, और धर्म अर्थात मूल्य अपना सच्चा रूप पाते हैं।

 

 

 

 

वामन अवतार

भागवत पुराण में वर्णित वामन अवतार की कथा केवल धार्मिक आख्यान नहीं, बल्कि एक गहन सांस्कृतिक और दार्शनिक संवाद है। यह वह समय था जब असुर राजा बलि ने अपनी तपस्या, शक्ति और रणनीति के बल पर त्रिलोक अर्थात स्वर्गलोक, पृथ्वी और पाताल तक का अधिकार स्थापित कर लिया था। देवों का स्वामी इन्द्र पराजित हो चुका था, और समस्त देवलोक असुरों के नियंत्रण में आ गया था।                           हते हिरण्यकशिपौ देवानुत्साद्य सर्वतः॥ हिरण्यकशिपुके मारे जानेपर बलिने सभी स्थानोंसे देवताओंको खदेड़ दिया

बलि कोई सामान्य असुर नहीं था—वह प्रह्लाद जैसे परमहंस भक्त का पौत्र था और दैत्यराज विरोचन का पुत्र। उसमें दया, न्याय और प्रजा के प्रति संवेदनशीलता थी, जिसके कारण वह एक लोकप्रिय राजा बना।

प्रजापालनयुक्तेषु भ्राजमानेषु राजसु। स्वधर्मसंप्रयुक्तेषु तथाश्रमनिवासिषु॥

सभी राजा (भलीभाँति) प्रजापालन करते हुए सुशोभित होने लगे और सभी आश्रमोंके लोग अपनेअपने धर्मका पालन करने लगे। किंतु बलशाली बन जाने पर जब उस पर आत्ममोह और अधर्म की छाया पड़ने लगी, तब देवताओं ने भगवान विष्णु से सहायता की प्रार्थना की। तभी भगवान विष्णु ने वामन रूप में पाँचवें अवतार का धारण किया।

वामन ने एक बौने ब्राह्मण बालक का रूप धारण किया—बाँहों में यज्ञोपवीत, हाथ में दण्ड और कमंडल, और सिर पर छत्र (छाता)। वे बलि के यज्ञ मंडप में पहुँचे। बलि उस समय यज्ञ कर रहा था और उसने ब्राह्मणों को दान देने का व्रत लिया था। जब वामन ने बलि से तीन पग भूमि का दान माँगा, तो बलि चकित हुआ लेकिन हँसते हुए वचन दे डाला। बलि के गुरु शुक्राचार्य ने चेताया कि यह कोई साधारण बालक नहीं बल्कि स्वयं विष्णु हैं, पर बलि ने उन्हें अनसुना कर दिया—क्योंकि वह अपने वचन का पालन करना चाहता था।

जैसे ही बलि ने वचन दिया, वामन ने अपना स्वरूप विराट ब्रह्मांडीय रूप में बदल दिया। पहले पग में उन्होंने भूलोक अर्थात पृथ्वी नापी, दूसरे पग में स्वर्गलोक और देवलोक को, और तीसरे पग के लिए अब कुछ भी शेष नहीं था। बलि ने सिर झुकाकर कहा—”प्रभु, अब तीसरा पग मेरे सिर पर रखिए।” यही वह क्षण था जब बलि ने वचनबद्धता, नम्रता और आत्मसमर्पण की पराकाष्ठा दिखाई।

भगवान वामन बलि की इस धर्मनिष्ठता से प्रसन्न हुए और उन्होंने बलि को सुताल लोक का अधिपति बनाया—जहाँ वह सम्मानपूर्वक निवास करता है। साथ ही उसे अमरता का वरदान मिला, और उसे “महाबलि” की उपाधि प्रदान की गई। विष्णु ने स्वयं सुताल में जाकर बलि की रखवाली करने का व्रत लिया—जो यह दर्शाता है कि ईश्वर केवल धर्म के साथ है, भले ही वह असुर के रूप में क्यों न हो।

अब यदि इस कथा को प्रतीकात्मक और सामाजिक दृष्टि से देखें, तो “देव” वे लोग हैं जो वेदों पर आधारित मूल्य व्यवस्था में विश्वास रखते हैं और उस पर चलने की चेष्टा करते हैं। वहीं, “असुर” वे शक्तियाँ हैं जो इस व्यवस्था को अस्वीकार करती हैं या उसमें संशय रखती हैं। प्रारंभ में असुरों ने इस मूल्य व्यवस्था का सीधा विरोध किया—जैसा हमने मत्स्य, कूर्म, वराह और नरसिंह अवतारों में देखा। जब इस विरोध का समाज में विरोध हुआ और उन्हें पराजय का सामना करना पड़ा, तब उन्होंने एक नई रणनीति अपनाई—बाह्यतः धर्मनिष्ठ दिखाई देना और भीतर से वेद आधारित मूल्यों का विरोध करना।

यह बहुत कुछ वैसा ही है जैसे आज के लोकतंत्र में कुछ लोग बाहर से लोकतांत्रिक मूल्य अपनाने का दावा करते हैं लेकिन भीतर से परिवारवाद और व्यक्तिगत स्वार्थ की राजनीति करते हैं। यह कपट धर्मनिष्ठा तब समाज के लिए और भी खतरनाक हो जाती है, क्योंकि यह सतह पर सच्चाई का मुखौटा लगाए होती है।

इसीलिए समाज ने उन व्यक्तियों को आगे किया, जो वेदों के उद्बोधनकर्ता थे—अर्थात जो वेद की व्याख्या करते थे, उन्हें सामाजिक जीवन में ढालते थे। इन्हें हम ब्राह्मण कहते हैं। इस दृष्टिकोण से देखें तो वामन वह ज्ञानी ब्राह्मण हैं जिन्हें समाज ने आगे किया ताकि मूल्याधारित व्यवस्था की रक्षा हो सके। लेकिन उन्होंने बलि का संहार नहीं किया, क्योंकि बलि स्वयं उस व्यवस्था को बाहर से मानता था, भले ही भीतर से उसकी सोच भिन्न हो।

वामन अवतार की यही विशेषता है—संवाद, समर्पण और विवेक। जहाँ पूर्व अवतारों में शक्ति और युद्ध से समस्याओं का समाधान हुआ, वहाँ वामन अवतार में बुद्धि, युक्ति और नीति के द्वारा असुरों की चुनौती का उत्तर दिया गया। यही कारण है कि वामन अवतार को विष्णु का सबसे शांत लेकिन अत्यंत गूढ़ अर्थवाला अवतार माना जाता है।

इस कथा में एक और महत्वपूर्ण संदेश है—धर्म केवल बाहरी आडंबर नहीं, बल्कि अंतःकरण की शुद्धता और वचनबद्धता है। बलि ने अपने वचन को निभाने के लिए अपना सब कुछ समर्पित कर दिया, इसीलिए वह महाबलि कहलाया और विष्णु को भी उसकी रक्षा का उत्तरदायित्व लेना पड़ा।

यदि हम डार्विन के विकासवाद की परिप्रेक्ष्य से देखें, तो यह अवतार उस अवस्था का प्रतीक है जब मानव ने अपने क्रूर और हिंसक युग (जैसा कि नरसिंह अवतार में प्रतीत होता है) से बाहर आकर संवाद, समझ और कूटनीति के मार्ग पर चलना प्रारंभ किया। बौना ब्राह्मण—छोटा दिखने पर भी मस्तिष्क और बुद्धि का प्रतीक—यह दर्शाता है कि मानव विकास अब शारीरिक ताकत से नहीं, बल्कि मानसिक परिपक्वता से परिभाषित होने लगा था।

वामन अवतार, इस प्रकार केवल इतिहास या पौराणिक कथा नहीं, बल्कि एक विचार है—कि जब बाह्य धर्म आडंबर बन जाए और आंतरिक मूल्य खोने लगें, तब परिवर्तन का उपाय संवाद, जिज्ञासा और नीति में ही है। यह हमें सिखाता है कि न तो कोई व्यवस्था अमर है, न कोई राजा अजेय; जो वास्तव में स्थायी हैं, वे हैं मूल्य, वचन और धर्मपरायणता।

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

भगवान परशुराम: अवतार, मूल्याधारित व्यवस्था का रक्षक

हिंदू धर्म में भगवान परशुराम को विष्णु के छठे अवतार के रूप में जाना जाता है। वे एकमात्र ऐसे अवतार हैं जो चिरंजीवी माने जाते हैं और कई युगों में सक्रिय माने गए हैं। परशुराम केवल एक योद्धा नहीं थे, बल्कि एक चिंतनशील तपस्वी, ब्राह्मण कुल में जन्म लेने वाले क्षत्रिय प्रवृत्ति के योद्धा, और समाज की नैतिकता की रक्षा हेतु जन्मे अवतारी पुरुष थे।

उनकी कथा की शुरुआत होती है महर्षि जमदग्नि से, जो तपस्वी जीवन जी रहे थे। उनके पास एक कामधेनु गाय थी जो उन्हें तपस्या में सहायक थी और पूरे आश्रम की आवश्यकताओं को पूर्ण करती थी। एक बार पृथ्वी के शक्तिशाली राजा कर्तवीर्य सहस्त्रार्जुन, जो अपने हजार हाथों और असीम बल के लिए प्रसिद्ध था, अपनी सेना सहित ऋषि के आश्रम आया। उन्होंने कामधेनु गाय के चमत्कारी गुणों को देखा और उसे बलपूर्वक ले जाना चाहा। ऋषि जमदग्नि ने विरोध किया, जिसके फलस्वरूप राजा ने ऋषि की हत्या कर दी और गाय को हरण कर लिया।

यह खबर जब परशुराम को मिली, तब वे अत्यधिक क्रोधित हो उठे। क्रोध केवल व्यक्तिगत अपमान का नहीं था, बल्कि यह एक आदर्श पर आक्रमण था—जहां एक समर्पित तपस्वी को राज्य की सत्ता ने नष्ट कर दिया था। यह उस युग की तस्वीर प्रस्तुत करता है जब शक्ति का नशा इतना बढ़ गया था कि राजा राजधर्म और मर्यादा भूलकर अत्याचार का मार्ग अपना रहे थे।

भगवान परशुराम ने यह शपथ ली कि वे पृथ्वी को ऐसे अत्याचारी क्षत्रियों से मुक्त करेंगे। उन्होंने एक-एक कर के कई राजाओं का वध किया और उन्हें यह संदेश दिया कि सत्ता सेवा के लिए होती है, शोषण के लिए नहीं। कहा जाता है कि उन्होंने इक्कीस बार पृथ्वी को क्षत्रियहीन कर दिया था। यह कोई नस्ल संहार नहीं था, बल्कि एक प्रतीकात्मक कथा है—जो बताती है कि जब मूल्यविहीन सत्ता बार-बार समाज पर अत्याचार करने लगे, तब समाज को उसकी मूल्य आधारित पुनर्संरचना करनी पड़ती है।

               भयार्तस्वजनत्राणतत्परं धर्मतत्परम्। गतगर्वप्रियं शूरं जमदग्निसुतं मतम् ॥                                           भय से पीड़ित अपने परिजनों को बचाना ही धर्म का परम लक्ष्य है। उन्हें जमदग्नि का पुत्र और अभिमान से रहित एक वीर पुरुष माना जाता है।

यह ध्यान देने योग्य है कि परशुराम का क्रोध नियंत्रित था। जैसे ही समाज में पुनः संतुलन स्थापित हुआ और सत्ता पर मर्यादा लौट आई, मुनि कश्यप ने परशुराम को आदेश दिया कि अब वे अपना शस्त्र त्यागें और पृथ्वी को शांतिपूर्वक छोड़ दें। परशुराम ने आज्ञा का पालन किया और जाकर उड़ीसा के महेन्द्रगिरि पर्वत पर तपस्या में लीन हो गए। यह वही पर्वत है जिसे आज भी परशुराम के तपोस्थान के रूप में माना जाता है।

अब जब इस पौराणिक कथा को समाजशास्त्रीय दृष्टिकोण से देखें, तो यह प्रतीकात्मक दृष्टांत बन जाती है। पूर्व के विष्णु अवतारों ने जहां वेदों के मूल्यों को स्थापित किया, वहीं परशुराम ने उन मूल्यों को समाज में राजधर्म के भीतर समाहित करवाने का कार्य किया। पहले, विरोध बाह्य शक्तियों से था—दैत्य, असुर, प्रकृति की आपदाएँ। लेकिन जैसे-जैसे समाज ने वेद-आधारित संरचना को आत्मसात करना शुरू किया, समस्या भीतर से उत्पन्न होने लगी।

अब जो चुनौती थी, वह उन शासकों से थी, जिन्होंने सत्ता के माध्यम से लोगों पर एक प्रकार की तानाशाही थोपनी शुरू की। वे वेदों के मूल्यों को मानने का दावा करते थे, लेकिन उनका आचरण उससे पूरी तरह भिन्न था। जैसे कर्तवीर्य सहस्त्रार्जुन का उदाहरण ले—वह शक्ति का प्रतिनिधि तो था, लेकिन मूल्यविहीन बन गया था।

यह कथा बताती है कि जब सत्ता भ्रष्ट हो जाती है, तो समाज को चेतना के रूप में किसी तपस्वी योद्धा की आवश्यकता होती है, जो केवल बल से नहीं बल्कि नैतिक दृढ़ता से उस सत्ता का सामना करे। परशुराम वही अवतारी शक्ति थे, जो समाज को यह संदेश देने आए कि “राजा हो या रंक धर्म सब पर समान रूप से लागू होता है।”

परशुराम का अवतार यह भी स्पष्ट करता है कि ब्राह्मण और क्षत्रिय गुण केवल जाति का विषय नहीं, बल्कि एक कर्तव्य और चिंतन का सम्मिलन है। एक ओर वे ब्राह्मण कुल में उत्पन्न हुए, यज्ञोपवीतधारी थे; और दूसरी ओर उनके भीतर क्षत्रिय की साहस और समर्पण की भावना थी। यह संतुलन स्वयं दर्शाता है कि धर्म किसी वर्ग या वंश से बंधा नहीं, बल्कि वह एक आचरण है, एक उत्तरदायित्व।

इस पृष्ठभूमि में समाज की भूमिका भी विचारणीय है। जैसे-जैसे वेद मूल्यों का प्रचार-प्रसार हुआ, समाज को एक नई नैतिक चेतना मिली। राजा हरिश्चंद्र जैसे उदाहरण सामने आए, जिन्होंने सत्य के लिए सब कुछ त्याग दिया। राजा जनक, जिनके ज्ञान के आगे ऋषि-मुनि भी नतमस्तक हो जाते थे, यह दर्शाते हैं कि राजधर्म भी ज्ञान और विचारशीलता पर आधारित होना चाहिए।

परंतु यह भी सत्य है कि हर राजा ऐसा नहीं था। जब अनियंत्रण की प्रवृत्ति बढ़ने लगी, तब समाज ने परशुराम जैसे मार्गदर्शक को स्वीकारा—जिन्होंने स्वार्थ नहीं, बल्कि नीति के लिए युद्ध किया। उनका उद्देश्य संहार नहीं था, पुनर्निर्माण था।

समाजमूल्य एवं न्याय की रक्षा परशुराम जी ने क्षत्रियों के अन्याय के विरुद्ध संग्राम कर केवल सामाजिक न्याय की रक्षा ही नहीं की, बल्कि आदर्श शासन और नैतिक मूल्यों की पुनर्स्थापना भी की। वह केवल क्षात्रधर्म के पालक ही नहीं, बल्कि प्राकृतिक संसाधनों के संरक्षक थे।भूमि एवं जल के प्रति गहरी संवेदनशीलता थी।

आपो धरणीं धारयन्ति, आपो जीवनदायिनी। आपो रक्षन्तु भूम्यै, परशुरामस्य शासने। यह श्लोक जल के प्रति परशुराम की दृष्टि को उजागर करता है — जल न केवल जीवन का स्रोत है बल्कि पृथ्वी का संरक्षक भी है। उनके शासन में जल की पवित्रता और संरक्षण को प्राथमिकता मिली।

सागरतट से भूमि का उद्धार “सागर से दक्षिण भूमि मुक्त कर एक शाश्वत मन्त्र दिया”— यह भाग परशुराम के भौगोलिक कार्यों की ओर संकेत करता है। माना जाता है कि उन्होंने समुद्र से भूमि का उद्धार कर ‘कौनकण क्षेत्र’ की स्थापना की। इस कार्य में न केवल भूगोलिक विस्तार हुआ बल्कि उसे एक आध्यात्मिक संदेश भी मिला:

आपो हि रक्षणं कुर्वन्ति, भूमिं च धारयन्ति च। एतत् परशुरामस्य, ज्ञानं सत्यं च शाश्वतम्।

जल और भूमि के समन्वय को शाश्वत सत्य के रूप में प्रस्तुत करना दर्शाता है कि प्रकृति भी धर्म का अंग है।

दार्शनिक दृष्टिकोण

यह विचार गहराई से दर्शाता है कि परशुराम केवल युद्ध और न्याय के प्रतीक नहीं थे, बल्कि प्रकृति के संतुलन को भी अपना धर्म मानते थे। उनका जीवन हमें यह सिखाता है कि “सिर्फ मानवता की रक्षा नहीं, प्रकृति का सम्मान भी धर्म का अभिन्न अंग है।”

डार्विन के सिद्धांत में यह युग एक ऐसे मोड़ को दर्शाता है जब मानव ने केवल अस्तित्व नहीं, बल्कि अनुशासन और नियमों की आवश्यकता को समझा। यह वह क्षण था जब समाज ने शक्ति के साथ-साथ नीति और मर्यादा को महत्व देना सीखा।

परशुराम केवल क्रोध के देवता नहीं हैं, वे समाज प्रबोधन के प्रतीक हैं। उनका अवतार हमें यह सिखाता है कि धर्म की रक्षा कभी-कभी कठिन निर्णयों और तीव्र कार्यवाहियों की भी मांग करती है, लेकिन वह सदैव संतुलन और विवेक से की जाती है। जैसे परशुराम ने अनियंत्रित शासकों का विनाश किया, वैसे ही आज भी आवश्यकता है ऐसे मार्गदर्शकों की, जो समाज को अंधकार से प्रकाश की ओर ले जा सकें—जहाँ धर्म केवल अनुष्ठान नहीं, एक जीवंत मूल्य बन जाए।

 

प्रभु श्रीराम

भारतीय समाज में जब वेदों के आधार पर सामाजिक मूल्य स्थापित होने लगे, तब यह आवश्यक हो गया कि वे केवल किसी एक वर्ग या क्षेत्र तक सीमित न रहें, बल्कि समाज के सबसे दूरस्थ और विविध समुदायों तक पहुँचें। इन समुदायों में वनवासी, गिरिवासी, ग्रामवासी और तटवासी जैसे लोग सम्मिलित थे, जो भले ही समाज की ज्ञात परिधि में न आते हों, लेकिन सामाजिक संरचना का अभिन्न हिस्सा हैं। यदि मूल्य इन सभी तक नहीं पहुँचते, तो समाज केवल एक अविकसित समूह बना रहता, जिसमें समरसता, अनुशासन और नीति का अभाव होता। इसी आवश्यकता की पूर्ति के लिए भगवान विष्णु (समाज) ने अपने सातवें अवतार—प्रभु श्रीराम के रूप में साकार किया।

अब प्रश्न यह उठता है कि क्या श्रीराम केवल राक्षसों से युद्ध करने के लिए अवतरित हुए थे? क्या उनका लक्ष्य केवल रावण रूपी एक तामसी शक्ति को पराजित करना था? या इसके पीछे कोई गहरा सामाजिक और नैतिक उद्देश्य था? जब हम उनके जीवन का गहराई से अवलोकन करते हैं, तो स्पष्ट होता है कि श्रीराम का अवतरण केवल युद्ध अथवा वीरता का प्रदर्शन नहीं था, बल्कि यह भारतीय समाज की नीति-निष्ठा को पुनः स्थापित करने की एक संगठित और सूक्ष्म प्रक्रिया थी।

समाजशास्त्र का एक मूल सिद्धांत है कि यदि कोई भी समाज अपनी नीति और मूल्यों से भटक जाता है, तो उसका पतन अवश्यंभावी होता है। प्राचीन भारतीय समाज की संरचना पर अगर हम दृष्टिपात करें, तो स्पष्ट हो जाता है कि यह परिवार आधारित व्यवस्था थी। समाज की सबसे छोटी इकाई, सबसे बुनियादी यूनिट—परिवार—ही था। और किसी भी स्थायी, स्थिर परिवार को सुचारु रूप से चलाने के लिए विशिष्ट मूल्यों की आवश्यकता होती है।

इन मूल्यों में “परस्त्री को माता के समान देखना” एक अत्यंत महत्वपूर्ण और मूलगामी सिद्धांत था। यह विचार केवल नारी सम्मान का प्रतिनिधित्व नहीं करता, बल्कि समाज में मर्यादा, संयम और अनुशासन के विस्तार का प्रतीक भी है। रावण जैसे अत्यंत बलशाली, विद्वान, और पराक्रमी राजा ने जब इस मूल्य को तोड़ा और माता सीता का हरण किया, तब यह केवल एक स्त्री का अपहरण नहीं था, बल्कि समाज के मूलभूत धर्म और मर्यादा पर आघात था।

यहां ध्यान देने योग्य बात यह है कि प्रभु श्रीराम के पास मिथिला और अयोध्या जैसी शक्तिशाली राज्यों की सेना उपलब्ध थी। वह यदि चाहते तो एक संगठित सैनिक अभियान रावण के विरुद्ध प्रारंभ कर सकते थे। लेकिन उन्होंने ऐसा नहीं किया। उन्होंने उस संघर्ष के लिए उन लोगों को चुना जो वनवासी, निषाद, वानर और समाज के सीमांत समूहों से आते थे। उन्होंने दिखाया कि समाज के सुदूरवर्ती, सामान्य और वंचित वर्ग भी जब किसी मूल्य की रक्षा के लिए एकजुट होते हैं, तो सबसे बड़ी शक्ति को पराजित कर सकते हैं।

श्रीराम ने केवल रावण का सामना नहीं किया—उन्होंने वनवासी समाज में सामूहिकता, कर्तव्यबोध और नीति पालन का संचार किया। उनके नेतृत्व में वनवासी समाज न केवल संगठित हुआ, बल्कि उसने धर्म और नीति के पक्ष में अपने प्राणों की आहुति दी। इस प्रकार श्रीराम ने समाज के सबसे दूरस्थ और उपेक्षित वर्गों में वेद-निर्मित मूल्यों की स्थापना की।

प्रभु श्रीराम के जीवन से हमें यह भी सीखने को मिलता है कि उन्होंने अपने जीवन में हर निर्णय शास्त्रों के अनुसार लिया। जब भी वे किसी कठिनाई या जीवन संघर्ष में पड़ते, तो सबसे पहले वे देखते कि शास्त्र इस विषय पर क्या कहता है? उनके जीवन में मनमानी या मनःप्रवृत्ति की कोई जगह नहीं थी। उनका दर्शन अत्यंत अनुशासित, विनयशील और समर्पित था।

उदाहरण के लिए, जब उन्हें पिता की आज्ञा पर 14 वर्ष का वनवास मिला, तो उन्होंने बिना किसी विरोध के उसे स्वीकार किया। क्योंकि उनके लिए पिता की आज्ञा ही धर्म थी। जब माता कैकेयी ने उन्हें राज्य नहीं, बल्कि वनवास दिया, तब भी उन्होंने किसी के खिलाफ कटुता नहीं दिखाई, बल्कि सभी संबंधों की मर्यादा बनाए रखी।

उन्हें “मर्यादा पुरुषोत्तम” इसलिए नहीं कहा गया कि वे केवल बाहरी रूप से शालीन थे, बल्कि इसलिए कहा गया कि उनकी पूरी जीवनशैली मर्यादा, अनुशासन, शास्त्र-निष्ठा और समर्पण से बनी थी। उनका हर निर्णय समाज को यह सिखाने के लिए था, कि जब तक समाज शास्त्रों या मूल्यों पर आधारित रहेगा, तब तक वह पतन से बचा रहेगा।

प्रभु श्रीराम ने दिखाया कि एक आदर्श राजा वही होता है जो पहले आदर्श पुत्र, आदर्श पति, आदर्श भाई और अंततः आदर्श राजा हो। उनके जीवन में कोई भी निर्णय ऐसा नहीं था जो केवल सत्ता या लालच के लिए लिया गया हो। यहाँ तक कि रावण का वध भी धर्म की रक्षा के लिए ही किया गया, किसी वैयक्तिक प्रतिशोध से नहीं। रामायण केवल एक कथा नहीं, बल्कि वह सामाजिक मूल्यों की जीवंत पाठशाला है। उसमें दिखाया गया है कि कैसे परिवार, राज्य, मित्रता, स्त्री-पुरुष संबंध, प्रजा-राजा संबंध—इन सभी को यदि वेदों और शास्त्रों के अनुरूप संचालित किया जाए, तो समाज स्थायित्व, समरसता और समृद्धि की ओर बढ़ता है।

श्रीराम का प्रभाव भारतीय जनमानस पर इतना गहरा है कि आज भी जब कोई व्यक्ति नीति और धर्म से विचलित होता है, तो उदाहरण के लिए कहा जाता है: “राम जैसा बनो।” यही कारण है कि भारतीय मानस में श्रीराम केवल एक राजा नहीं, एक जीवन-दर्शन के रूप में प्रतिष्ठित हैं।

डार्विन ने जहां मानव विकास को शारीरिक और मानसिक अनुकूलन के रूप में देखा, वहीं प्रभु राम का अवतार यह स्पष्ट करता है कि समाज का वास्तविक विकास उसके नैतिक और सांस्कृतिक मूल्यों में होता है। श्रीराम का अवतार मानवता को यह दिशा देता है कि धर्म, नीति और मर्यादा से जुड़कर ही सच्चा समाज निर्मित होता है।

जब तक भारतीय समाज रहेगा, जब तक वेद और शास्त्र जीवित रहेंगे, तब तक प्रभु श्रीराम भारतीय जीवन के आदर्श बने रहेंगे—जिनकी उपस्थिति समाज को याद दिलाती रहेगी कि कानून, मर्यादा और धर्मनिष्ठा के बिना कोई भी शक्ति टिक नहीं सकती ।

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

भगवान श्रीकृष्ण

जब भी समाज में स्थापित मूल्य समय के साथ रूढ़िवादिता का रूप लेने लगते हैं, तब परिवर्तन की आवश्यकता अनिवार्य हो जाती है। लेकिन यह परिवर्तन मूल मूल्यों को मिटाकर नहीं, बल्कि उनकी अभिव्यक्ति और सामाजिक अनुसरण की पद्धति में समायोजन करके होती है। यही प्रक्रिया आधुनिक भाषा में “ऑपरेटिंग प्रोसीजर का संशोधन” कहलाती है, और यही कार्य भगवान श्रीकृष्ण ने अपने जीवन और शिक्षाओं के माध्यम से किया। उनका समूचा अवतार सामाजिक सुधार, मानसिक परिवर्तन और नैतिक मूल्यों की नवीन व्याख्या का प्रतीक है।

भगवान कृष्ण का जीवन केवल एक धार्मिक कथा नहीं है, बल्कि वह एक सामाजिक क्रांति का गूढ़ सन्देश है। जब-जब धर्म का बाहरी प्रदर्शन आडंबर बन जाता है, जब कर्मकांड श्रद्धा पर हावी हो जाते हैं, और जब समाज का व्यवहार स्वार्थ, हिंसा और असंवेदनशीलता से भरने लगता है—तब एक ऐसे अवतारी पुरुष की आवश्यकता होती है जो वर्तमान के अनुरूप मार्गदर्शन दे सके। श्रीकृष्ण ने यह कार्य न केवल युद्धभूमि में अर्जुन को उपदेश देकर किया, बल्कि बचपन से लेकर युवा अवस्था तक हर मोड़ पर सामाजिक कुंठाओं को चुनौती दी।

कृष्ण का बचपन ही व्यवस्था-विरोधी किंतु मूल्य-स्थापनात्मक घटनाओं से भरा है। उनके द्वारा किया गया “माखन चोरी” केवल एक शरारत नहीं, बल्कि संपत्ति के केंद्रीकरण और लोभी मानसिकता के विरुद्ध एक सांकेतिक प्रतिक्रिया थी। जहां एक ओर गोकुल के सम्पन्न व्यापारी अपने संसाधनों को छिपा कर रखते थे, वहीं कृष्ण ने यह संदेश दिया कि समाज में बाँटने की प्रवृत्ति होनी चाहिए, न कि संग्रह की।

इसी प्रकार, जब समाज इंद्र पूजा के रूढ़िपंथी आयोजन में व्यस्त था, तब उन्होंने निसर्ग के महत्व को रेखांकित करते हुए गोवर्धन पूजा का प्रारंभ किया। उन्होंने स्पष्ट किया कि प्राकृतिक संसाधन—जैसे वर्षा, धरती, अन्न और जल—इंद्र के भय के कारण नहीं, बल्कि प्रकृति से संतुलित व्यवहार के परिणामस्वरूप हमें प्राप्त होते हैं। इस प्रकार उन्होंने धर्म को अंधश्रद्धा से निकाल कर प्राकृतिक विज्ञान और संतुलित जीवनशैली से जोड़ा।

इन उदाहरणों से यह स्पष्ट होता है कि श्रीकृष्ण सुधारवादी विचारधारा के समर्थक थे। वे सिखाते हैं कि जब समाज के मूल्य बाह्याचार बन जाएं, तो उनका पुनर्परिभाषण आवश्यक होता है, न कि उनका परित्याग। वे नई पीढ़ी को यह सिखाते हैं कि श्रद्धा केवल पूजा तक सीमित नहीं, बल्कि वह व्यवहार में झलकनी चाहिए।

भगवान कृष्ण का चरित्र केवल सामाजिक स्तर पर ही जागरूक नहीं था, बल्कि उन्होंने मानव मन की गहराइयों को भी समझा। नरकासुर वध के बाद, उन स्त्रियों को जिन्हें बलात बंदी बनाकर लाया गया था, समाज ने स्वीकारने से इंकार कर दिया। यह स्त्री के साथ हुए अत्याचार के बाद दूसरी बार मानसिक अपमान था। तब स्वयं भगवान ने उन स्त्रियों को अपना स्थान देकर स्त्री सम्मान की पुनर्स्थापना की। यह कार्य उस युग के लिए ही नहीं, बल्कि आज के समाज के लिए भी प्रेरणा-स्रोत है, जहां पीड़ितों को समाज के सहयोग की जरूरत होती है, न कि तिरस्कार की।

श्रीकृष्ण ने स्त्री-पुरुष संबंधों की परिभाषा को भी गहराई से छुआ। जहां एक ओर समाज में पुरुष और स्त्री के मेल को केवल वासना की दृष्टि से देखा जाता था, वहीं उन्होंने राधा-कृष्ण संबंध के माध्यम से निर्मल प्रेम, मैत्री और समर्पण की नई परंपरा आरंभ की। उन्होंने यह दर्शाया कि स्त्री और पुरुष के बीच मित्रता, विश्वास और सहयोग पर आधारित संबंध भी संभव हैं, जो समाज के लिए अनुकरणीय हो सकते हैं।

भगवान श्रीकृष्ण का सबसे प्रभावशाली योगदान महाभारत काल में दिया गया गीता का उपदेश है। जीवन के सबसे जटिल मोड़ पर, जब अर्जुन कर्तव्य और संबंधों के द्वंद्व में उलझ जाता है, तब श्रीकृष्ण उसे केवल युद्ध नहीं, बल्कि जीवन का मर्म समझाते हैं। गीता केवल एक धर्म-ग्रंथ नहीं, बल्कि मानव विचारों का दिशा-निर्देशक है। उसमें कर्म, धर्म, विवेक, समता, भक्ति, ज्ञान और संन्यास—सभी जीवन तत्वों का सम्यक् समायोजन है।

श्रीकृष्ण हमें यह सिखाते हैं कि युद्ध जब परिवार के भीतर भी हो, तब भी यदि उद्देश्य धर्म की रक्षा हो, तो वह आवश्यक हो जाता है। उन्होंने पांडवों को यह सिखाया कि यदि परिवार के लोग भी अधर्म के मार्ग पर हों, तो मूल्य की रक्षा के लिए कठोर निर्णय लेने में संकोच नहीं करना चाहिए। यही विचार आज के समाज में भी प्रासंगिक है, जहाँ भ्रष्टाचार, जातिवाद, और अन्याय कभी-कभी अपनों से ही आते हैं।

परंतु इन सभी परिस्थितियों में श्रीकृष्ण यह सुनिश्चित करते हैं कि धर्म—अर्थात सामाजिक मूल्य—कभी आहत न हो। क्योंकि यदि समाज अपने मूल्यों से डगमगा जाता है, तो वह पुनः बिखरे हुए झुंड में परिवर्तित हो जाता है। एक संगठित समाज वही है, जहाँ मूल्य व्यवहार में उतरते हैं, और श्रीकृष्ण उसी संगठन का सूक्ष्म और सशक्त मार्गदर्शक हैं।

आज जब हम “अमेंटमेंट इन ऑपरेटिंग प्रोसीजर” जैसी आधुनिक प्रशासनिक भाषा को सुनते हैं, तो महसूस होता है कि श्रीकृष्ण के काल में भी यही विचार था—कि स्थल, काल और परिस्थिति के अनुसार नीति का संचालन हो, मूल्यों का नहीं। उन्होंने सिखाया कि समाज अगर गतिशील रहना चाहता है, तो मूल्यों की आत्मा को बनाए रखते हुए, उसके अनुपालन के तरीकों को लचीला और समसामयिक बनाना होगा।

इस रूप में भगवान श्रीकृष्ण केवल एक योद्धा या दार्शनिक नहीं, बल्कि एक महान समाज सुधारक और मनोवैज्ञानिक मार्गदर्शक हैं। उन्होंने समाज को आडंबर से निकालकर आत्मबोध और विवेक की ओर मोड़ा, और जीवन को कर्तव्य, प्रेम, त्याग और नीति के पथ पर चलाने की राह दिखाई।

इसलिए, भगवान श्रीकृष्ण को केवल धार्मिक तथा आध्यात्मिक दृष्टि से देखना उनकी व्यापक भूमिका को सीमित करना होगा। वे भारतीय सभ्यता की चेतना हैं, जिसने अतीत से आज तक समाज को यह सिखाया कि मूल्य केवल पुस्तकों में नहीं, व्यवहार में जीवंत होते हैं। और जब वह व्यवहार रूढ़ हो जाए, तो उसका सूझ-बूझ से नया मार्ग बनाना ही कृष्ण की सच्ची प्रेरणा है।

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

गौतम बुद्ध: आत्मचिंतन से सामाजिक जागरण तक का नवम अवतार

भारतीय अध्यात्म और दर्शन की समृद्ध परंपरा में गौतम बुद्ध एक विलक्षण प्रकाशस्तंभ के रूप में प्रतिष्ठित हैं। उनका जन्म 563 ईसा पूर्व में लुंबिनी (वर्तमान नेपाल) के शाक्य गणराज्य में हुआ था। उनके पिता राजा शुद्धोधन इक्ष्वाकु वंशीय क्षत्रिय थे, और माता महारानी महामाया कोलीय वंश से थीं। दुर्भाग्यवश, बुद्ध के जन्म के सात दिन बाद ही उनकी माँ का निधन हो गया और उनका लालन-पालन उनकी मौसी महाप्रजापति गौतमी ने किया। बालक सिद्धार्थ (बुद्ध का बाल्य नाम) का बचपन अत्यंत सुख-सुविधाओं से परिपूर्ण राजसी वातावरण में बीता, किंतु उनके भीतर बचपन से ही एक असाधारण संवेदनशीलता और गहन जिज्ञासा थी।

सिद्धार्थ के जन्म के समय कुछ विद्वानों और साधुओं को बुलाकर उनका भविष्य पूछा गया। उन्होंने स्पष्ट किया कि यह बालक या तो चक्रवर्ती सम्राट बनेगा—जो संपूर्ण पृथ्वी पर शासन करेगा, या फिर एक बुद्ध बनेगा—जो संसार को ज्ञान, करुणा और मोक्ष की ओर ले जाएगा। यह भविष्यवाणी मात्र न रहकर आने वाले युगों की दिशा भी थी।

राजा शुद्धोधन ने सिद्धार्थ को हर प्रकार के दुःख-दर्द और असंतोष से दूर रखने के प्रयास किए। उन्हें दुनिया की पीड़ा से अनभिज्ञ बनाए रखा गया। परंतु नियति को कुछ और ही मंजूर था। एक दिन नगर-दर्शन के समय उन्होंने वृद्धावस्था, रोग और मृत्यु को देखा—और पहली बार जीवन की नश्वरता और असत्यता को महसूस किया। इन्हीं अनुभवों ने उन्हें भीतर से झकझोर दिया। उसी क्षण से उनके भीतर परिवर्तन की प्रक्रिया शुरू हो गई। उन्होंने निर्णय लिया कि जब तक वे मानव जीवन के दुखों का समाधान नहीं खोज लेते, तब तक वह न तो राजा बनेंगे, न गृहस्थ।

उसी रात, 29 वर्ष की उम्र में, सिद्धार्थ ने अपनी पत्नी यशोधरा और शिशु राहुल को त्याग कर सत्य की खोज में गृह त्याग किया। उन्होंने कठोर तपस्या की, अनेक गुरुओं से शिक्षा ली, और अंत में बोधगया में बोधि वृक्ष के नीचे सप्ताहों तक ध्यान कर के आत्मज्ञान प्राप्त किया। वहीं से वे बन गए गौतम बुद्ध—साक्षात ज्ञान के सागर, जिन्होंने जीवन को भीतर से देख लिया था।

बुद्ध का योगदान इस बात में था कि उन्होंने शत्रु की पहचान बाहरी दुनिया में नहीं, बल्कि मानव मन की गहराइयों में की। उन्होंने बताया कि क्रोध, मोह, लोभ, ईर्ष्या और अज्ञान ही वे शत्रु हैं जो मनुष्य को दुःखों की ओर ले जाते हैं। उन्होंने हिंसा का त्याग किया, सत्य को अपनाया, मौन और ध्यान को साधना बनाया। वे सिखाते हैं कि जब तक हम अपने अंतर्मन में नहीं झांकते, तब तक बाह्य परिवर्तन संभव नहीं।

इसीलिए बुद्ध के जीवन में युद्ध, राज्य, विजय जैसे शब्द अनुपस्थित हैं। वे हमेशा ध्यानमग्न, शांत, करुणामय और आत्म-निरीक्षण में लीन दिखाई देते हैं। उन्होंने बताया कि जीवन का लक्ष्य केवल भोग नहीं, बल्कि आत्मज्ञान और दूसरों के प्रति करुणा होना चाहिए।

बुद्ध के उपदेशों का प्रभाव इतना गहरा था कि कुछ ही वर्षों में उनके विचार एशिया के कोने-कोने तक फैल गए। जहां दुनिया बाह्य युद्ध, असत्य, हिंसा और क्रूरता से त्रस्त थी, वहां बुद्ध की अहिंसा, सम्यक दृष्टि और अष्टांग मार्ग की शिक्षा मानवता के लिए नवजीवन बन गई।

उन्हें भगवान विष्णु का नवम अवतार भी माना जाता है, क्योंकि वे उन मानव शत्रुओं से लड़ने आए जो बाहरी नहीं, बल्कि अंदर के विकार थे। वे हमारे मन में बैठे उन दुर्गुणों के खिलाफ खड़े हुए जो समाज को भीतर से खोखला कर देते हैं। यही कारण है कि वेदों के दृष्टिकोण से जब हम संकल्प मंत्र पढ़ते हैं, तब हम अभी के समय को “बौद्धावतारे” कहते हैं। यह केवल धार्मिक परंपरा नहीं, बल्कि इस बात का स्वीकार है कि बुद्ध का समय आज भी जीवित है।

आपने देखा होगा कि हर एक पूजा के समय जब संकल्प मंत्र पढ़ा जाता है, तो उसमें स्थल और काल की गणना करते समय निम्न वाक्य आता है:

ॐ विष्णुर्विष्णुर्विष्णु:, ॐ अद्य ब्रह्मणोऽह्नि द्वितीय परार्धे श्री श्वेतवाराहकल्पे, वैवस्वत मन्वन्तरे, अष्टाविंशतितमे कलियुगे, कलि प्रथमचरणे, जम्बूद्वीपे, भरतखण्डे, भारतवर्षे… बौद्धावतारे…”

इस वाक्य में बौद्धावतारे शब्द यह दर्शाता है कि हम अभी भी उसी समय में हैं जब बुद्ध के विचार सार्वकालिक रूप से मानवता का मार्गदर्शन कर रहे हैं।

बुद्ध के विचार केवल धर्म तक सीमित नहीं थे—वे जीवन की पद्धति बन गए। उन्होंने तप, यज्ञ और बलि की अपेक्षा करुणा, ध्यान और सेवा को सर्वोच्च माना। उन्होंने जाति, वर्ग, लिंग या समुदाय के आधार पर भेद नहीं किया। उनके संघ में स्त्रियाँ, शूद्र, व्यापारी, राजा, सब समान रूप से प्रवेश करते थे।

श्रीराम, श्रीकृष्ण जैसे पूर्ववर्ती अवतारों में जहाँ समाज के बाह्य समस्याओं और व्यवस्था की रक्षा केंद्र में थी, वहीं बुद्ध का अवतार समाज के भीतर छिपी मानसिक और आत्मिक कुंठाओं से लड़ने के लिए था। उन्होंने दिखाया कि एक सच्चा परिवर्तन तब आता है जब मन का परिवर्तन होता है।

उन्होंने किसी को शास्त्रों या परंपराओं से डरा कर नहीं, बल्कि तर्क, करुणा और आत्मबोध से जोड़ा।

अत्त दीपो भव

अर्थात “स्वयं अपने दीपक बनो”—यह वाक्य उनकी समस्त शिक्षा का सार है। उन्होंने हर व्यक्ति को आत्मनिर्भरता, स्वतंत्र चिंतन और स्वावलंबन का मार्ग दिखाया।

इसलिए बुद्ध केवल धर्मप्रवर्तक नहीं, बल्कि एक समग्र सामाजिक सुधारक, मनोवैज्ञानिक, दार्शनिक और मानवतावादी थे। उनका जीवन एक जीवंत प्रमाण है कि जब समाज बाहरी शत्रुओं को हटा कर अंदर के विकारों से लड़े, तब ही सच्ची शांति और संतुलन की प्राप्ति होती है।

 

भगवन कल्कि आ रहे है!….

 

माजशास्त्रीय 

 

 

मत्स्य कूर्मो वराहश्च नारसिंहोऽथ वामनः

 रामो रामश्च कृष्णश्च बुद्धः कल्किश्च ते दशा:

 

 

 

 

 प्रस्तावना – भारतीय समाज, विष्णु चेतना और अवतार की विविधता

भारतीय समाज की रचना किसी संयोग से नहीं हुई, बल्कि यह विचारों, मूल्यों और अनुभवों की शताब्दियों लंबी यात्रा का परिणाम है। इसकी नींव में सामाजिकता है — वह भावना जिसने हिमालय की चोटी से लेकर हिन्द महासागर की गहराइयों तक एकता को जीवन का अंग बना दिया।

जहाँ विश्व के अन्य जगहों पर राष्ट्र की एकात्मता भाषा, धर्म, पूजापद्धति या सत्ता पर गढी गयी, वहीं आर्यवसुंधरा की पुत्रो ने विविधता को अपनी ताक़त बनाया। भाषाएँ, पूजा पद्धतियाँ, सत्ता व्यवस्थाएँ — इन सबके बीच भारतीय समाज ने संतुलन पाया, और सामाजिक मूल्यों की रक्षा करते हुए प्रगल्भता के शिखर तक पहुँच गया।

परन्तु यही प्रगल्भता, यही मूल्य, समय के साथ विभिन्न आक्रमणों के लक्ष्य भी बने। इन आक्रमणों का स्वरूप भिन्न-भिन्न था — कभी सत्ता की लालसा में, कभी सुख की अति कामना में, कभी पहचान की राजनीति में। और जब भी इन मूल्यों पर संकट आया, तब भारतीय समाज ने स्वयं को बचाने के लिए अपनी चेतना को जाग्रत किया।

विष्णु – समाज का प्रतीक

भारतीय दर्शन में विष्णु केवल एक देवता नहीं हैं। वे समाज के भीतर कार्यरत संतुलन, समरसता और बहुलता के प्रतीक हैं। उनका चातुर्वर्ण्य में समाहित होना इस बात का संकेत है कि ब्राह्मण का उद्बोधन, क्षत्रिय का प्रबंधन, वैश्य का नियोजान और शूद्र की गति और व्यवहार — ये सब मिलकर ही एक सशक्त समाज बनाते हैं। यहाँ चतुर्वर्ण का निर्धारण जैसा की शास्त्रों में विदित है वैसे ही, गुण कर्मो पर अपेक्षित है, जन्म पर नहीं।  

जब हम विष्णु को नारायण, वासुदेव या हरि कहते हैं, तो यह किसी पारलौकिक सत्ता की पुकार नहीं — बल्कि उस समाज का आह्वान होता है जो सेवा, ज्ञान, न्याय, और सुरक्षा में संतुलित है।

अवतार – आत्मरक्षा के विविध रूप

समाज की रक्षा केवल बाहरी शत्रुओं से नहीं, बल्कि उस विघटन से होनी चाहिए जो उसे पुनः छोटे-छोटे समूहों में बाँट दे। और यही रक्षा “अवतारों” के माध्यम से होती है — ऐसी शक्तियाँ जो संकट की प्रकृति के अनुसार प्रकट होती हैं।

जब बुद्धि पर प्रहार होता है — अवतार ज्ञान के रूप में आते हैं। जब न्याय खतरे में होता है — वे युद्ध के रथ पर सवार होते हैं। जब सेवा अपमानित होती है — वे करुणा के संदेश बन जाते हैं। जब समाज भ्रम में होता है — वे विचार और संकल्प के रूप में जन्म लेते हैं।

“यदा यदा हि धर्मस्य ग्लानिर्भवति भारत। अभ्युत्थानमधर्मस्य तदात्मानं सृजाम्यहम्॥”

यह श्लोक केवल ईश्वर की घोषणा नहीं, बल्कि समाज की चेतना का संकेत है। जब धर्म की हानि होती है, तब समाज स्वयं अपने भीतर से उत्तर ढूंढता है। हर अवतार एक सामाजिक प्रतिक्रिया है, एक विचारशील उत्तर है उस विघटन को, जो मूल्यों को मिटाने का प्रयास करता है।

इसलिए, विष्णु को दिया गया हर संबोधन — वास्तव में उस समाज की अभिव्यक्ति है। विष्णु स्वयं समाज हैं, और समाज स्वयं उसकी चेतना है।

 

 

 

 

मत्स्यवतार

ज्ञातस्त्वं मत्स्यरूपेण मां खेदयसि केशव । हृषीकेश जगन्नाथ जगद्धाम नमोऽस्तु ते॥

आप मत्स्यका रूप धारण करके मुझे खिन्न कर रहे है। हषीकेश! आप जगदीश्वर एवं जगत्‌के निवासस्थान है, आपको नमस्कार है।

कहा जाता है की मत्स्यवतार में प्रभु ने मत्स्य रूप में आकर न सिर्फ प्रलय से इस भूमि तथा उनके पुत्रो को बचाया पर हयग्रीव नामक चिरंजीवी राक्षस का विध्वंस कर ब्रह्माजी को वेद ज्ञान वापिस किया। अब यहाँ पर एक बात का खुलासा नहीं होता की, भगवन ने नयी सृष्टि के निर्माण में सत्यव्रत को ही क्यों चुना? हम अगर उस चयन प्रक्रिया को देखे तो पता लगेगा की, तपस्या के परमोच्च शिखर पर भी उनका सामजिक भाव कम नहीं हुवा था! सत्यव्रत ने ब्रम्हा की घनघोर आराधना की तब ब्रम्हाजी ने उन्हें स्वयं दर्शन दे “वर” मांगने का अनुरोध किया तब इस सत्यव्रत (वैवस्वत मनु) ने ब्रम्हा जी से अनुरोध किया,

भूतग्रामस्य सर्वस्य स्थावरस्य चरस्यच। भवेयं रक्षणायालं प्रलये समुपस्थिते॥

प्रलयके उपस्थित होनेपर मै सम्पूर्णं स्थावर-जक्गमरूप जीवसमूहकी रक्षा करनेमें समर्थ हो सकू। (“मत्स्यमहापुराण”अध्याय १ श्लोक १६)

बाद की कहानी ऐसी बताई जाती है की “सत्यव्रत” नामक एक राजा ने (जो आगे चल के वैवत्स्वत मनु के नाम से प्रसिद्ध हुवे) एक छोटे से मछली को उसके प्रार्थना पर आश्रय दिया। जब वो मछली निरंतर बढ़ती गयी तो उसे ने कमण्डलु से लेकर सागर तक अपना प्रवास किया। जब प्रलय काल का समय आया तब उसी मत्स्य ने वासुकि की डोर बना कर सत्यव्रत के जहाज को संभल के रखा। अब दूसरा कार्य ऐसा है, जब प्रलय चल रहा था तब हयग्रीव राक्षस ने वेदों को चुरा कर समुद्र में छुपा कर रखा। तब उसी मत्स्य ने हयग्रीव से युद्ध कर उसे पराजित किया और वेदों वापस पाया। ये हयग्रीव के पास ऐसा क्या था जो वो इतना बड़ा काम कर गया? वो कहानी ऐसी है की हयग्रीव राक्षस जो घोड़े के सिर और मानव धड़ का था, उसने ने माँ पार्वति जी उपसना कर उनसे अमर होने वर देने की इच्छा प्रगट की थी। उस पर उसे समझाया की जो जीवित् है वो मृत्यु से समाप्त होगा, मै तेरे लिए किसी प्रारब्ध का उल्लंघन नहीं करुँगी। तब उस चलाख ने ऐसा वर माँगा की माँ उसे मना भी नहीं कर पायी। उसने ऐसा वर लिया की उसकी मृत्यु सिर्फ हयग्रीव के हाथ से ही होगी। अब ये बड़ा कठिन काम था, पर प्रकृति ने उसका भी प्रबंध कर लिया जब ये युद्ध (मत्स्य और हयग्रीव) अंतिम दौर में था, तब वैकुण्ठ में एक बात हुवि। नारायण और लक्ष्मी जी में कुछ अनबन हो गयी और लक्ष्मी जी ने नारायण के धड़ को सर से अलग होने का श्राप उद्धृत किया। जब मस्तक धड़ से अलग हुवा तो वो गायब हो गया। इसलिए ब्रह्माजी को जनक्षोभ से बचने एक घोड़े का मस्तक उनके धड़ पर रखना पड़ा। अब विष्णुजी पूर्ण हयग्रीव बन गए और उन्होंने हयग्रीव का विनाश किया। 

पर इस कहानी का अर्थ ऐसा प्रतीत होता है की, मत्स्य ये जलचर है जो पृथ्वी पर सबसे पहले आये ऐसा आज का विज्ञानं भी मानता है, डार्विन भी ये ही कहता है। इसलिए वो हमारे पाहिले अवतार सुचित होते है? पर विषय यही पर समाप्त नहीं होता, हम जिस ज्ञान की बात करते है उसे भी तरल पदार्थ ही मानते है, जल स्वरुप। तो वेदों के ज्ञान को उस राक्षस ने सागर में मतलब भरपूर अवांतर ज्ञान के आवरण में रखा होगा। याद करो हयग्रीव का मस्तक घोड़े का मतलब उसके पास बहुत तीव्रता से चलने वाली बुद्धि होने का दर्शन होगा। इसलिए उस पर जित पाने समाज ने प्रखर मेधावीयों को याने जो ज्ञान के सागर में मत्स्य की निपुणता से तैरने वाले लोग तय्यार किये और अपने मूल ज्ञान “वेद” को उनसे स्वतंत्र किया। यहाँ पर भी लड़ाई के अंतिम चरण में ऐसे वीर को लाया गया जिसकी बुद्धि भी उस राक्षस की बुद्धि जैसे ही वेगवान हो! क्या हर पौराणिक कहानी से हमें ऐसे दर्शन लेने चाहिए? 

 हमारे समाज ने वेदो के लिए ये लड़ाई क्यों की? इसका एक सम कारण ऐसे प्रतीत होता है की, हम अगर आज समूह या झुण्ड से समाज में परावर्तित हुवे है तो उसका कारण है हमारे समूह को मिले हुवे “मूल्य” जो हमें वेदो के माध्यम से मिले। इस लिए हमारे समाज में वेदो का अनन्य साधारण महत्त्व है। 

जिस दिन हम इन वेदो द्वारा वितरित मूल्यों से अलग हो जायेंगे हमारे समाज का समूह या झुण्ड में परिवर्तन अटल है। 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

कूर्मावतार

सुरासुराणामुदधिं मथ्नतां मन्दराचलम्। दध्रे कमठरूपेण पृष्ठ एकादशे विभुः॥

मत्स्यावतार की कथा न केवल भारतीय पौराणिक इतिहास का एक महत्वपूर्ण हिस्सा है, बल्कि उसमें छिपे प्रतीकों के माध्यम से गहन आध्यात्मिक और सामाजिक संदेश भी निहित हैं। जब भगवान विष्णु ने मत्स्य रूप धारण करके वेदों को पुनः समुद्र से प्राप्त किया, तब यह दर्शाया गया कि ज्ञान की पुनर्प्राप्ति संभव है, बशर्ते उसके लिए सही समय पर ईश्वरीय प्रेरणा और प्रयास हो। वेद केवल ग्रंथ नहीं थे, बल्कि समाज के लिए मार्गदर्शन करने वाले मूल्य थे। एक बार जब यह ज्ञान समाज में पुनः स्थापित हुआ, तब उसमें मंथन स्वाभाविक था क्योंकि विचार जब जागते हैं, तो वे केवल स्वीकार नहीं होते, उन पर चर्चा और बहस होती है। भगवन कहते है, 

आनीय सहिता दैत्ये: क्षीराब्धी सकलौषधी: । प्रक्षिप्यात्रामृतार्थ ता: सकला दैत्यदानवै: ।।

देवा तथा दैत्य दोनो को ज्ञात सर्व औषधी क्षीरसागर में डालने का अनुरोध भगवन कर रहे है, यहाँ उसका प्रतीकात्मक रूप ले तो, औषध माने रोगों तथा अवगुणो पर इलाज है। उसे हम व्यवस्था सम्बन्धी विचार, आचार और नियम भी ले सकते है! देव – दैत्य दोनों के व्यवस्था प्रावधानों पर यहाँ पर मंथन अपेक्षित है. फिर आनेवाले नतीजों पर प्रभु कहते है,  

सामपूर्वच देतेयास्तत्र साहाय्यकर्मणि। सामान्यफलभोक्तारो यूयं वाच्या भविष्य।।

कर्म में सहाय्यक होने से नतीजों पर दोनों का सामान हक़ होगा!

यह विचारमंथन उस समय होता है जब विरोधी विचारधाराएं टकराती हैं। जैसे समुद्र मंथन में एक ओर देवता थे और दूसरी ओर दैत्य, वैसे ही समाज में भी हमेशा दो विपरीत शक्तियाँ सक्रिय रहती हैं, एक जड़ विचारधारा और दूसरी प्रगतिशील। इस प्रतीकात्मक मंथन में “चक्र” यानी मंथन करने वाला यंत्र चलाने के लिए डोर (रस्सी) की आवश्यकता थी, और वह डोर बनी वासुकि सर्प से। यहाँ यह प्रश्न उठता है -सर्प क्यों? सर्प एक ऐसा प्राणी है जो जल और थल दोनों में गति करता है, अर्थात वह दो अलग प्रकृतियों को जोड़ने वाला माध्यम है। जल, जो कि तरलता का प्रतीक है, ज्ञान का भी रूपक है, वह सतत प्रवाहित होता है, रुका नहीं रहता। वहीं धरती या मिट्टी — स्थायित्व, जड़ता और स्थूलता का प्रतीक — वह विचार जो वर्षों से बिना बदलाव के चला आ रहा है।

वासुकि रस्सी का रूप इसलिए भी महत्व रखता है क्योंकि ऐसी डोर चाहिए थी जो दोनों विचारधाराओं को बाँध सके और जिसे कोई पक्ष अस्वीकार न करे। यदि एक पक्ष उस डोर को छोड़ देता, तो मंथन रुक जाता — और समाज विचारशील प्रगति से वंचित रह जाता। मंथन केवल एक प्रक्रिया नहीं, बल्कि प्रतीकात्मक संघर्ष है — जहाँ उद्देश्य है अमृत की प्राप्ति, यानी शाश्वत और व्यापक सत्य की खोज।

अब आते हैं उस “चक्री” पर, यानी उस द्रव में जो अशांति और हलचल पैदा करने वाला है। यह भूमिका मंदार पर्वत ने निभाई — एक ऐसा विशाल, स्थिर और कठोर तत्व जिसे चलाने के लिए महान प्रयास की आवश्यकता थी। वह पहाड़ धीरे चलता था, लेकिन उसमें स्थिरता और संकल्प की शक्ति थी। यह ‘स्लो स्पीड बट हाई टॉर्क’ का आदर्श उदाहरण था — धीमी गति से चलने वाला, पर जिस पर पूरा विश्व स्थिर हो सकता था।

लेकिन जैसे किसी मशीन को स्थिर रखने के लिए आधार की आवश्यकता होती है, वैसे ही मंदार पर्वत को संतुलित रखने के लिए एक मजबूत आधार चाहिए था। यहाँ प्रवेश होता है कूर्म यानी कछुए का — भगवान विष्णु के कूर्मावतार का। इस अवतार की विशेषता यह थी कि उसने समुद्र की गहराइयों में जाकर मंदार को अपने पीठ पर टिकाया, बिना किसी कम्पन के, बिना स्थिति बदले। यह दर्शाता है कि कोई एक ऐसा तत्व आवश्यक है जो ज्ञान की अशांति में भी अडिग रह सके — जो परिस्थितियों से डिगे नहीं।

ऐसे व्यक्ति, विचार या प्रवृत्तियाँ जो समाज में स्थायित्व लाती हैं, जो प्रचंड विचारधाराओं के झंझावात में भी अपने स्थान पर स्थिर रहती हैं — वही वास्तव में “कूर्मावतार” का प्रतिनिधित्व करते हैं। इन्हें समाज ने सम्मान दिया, इन्हें ईश्वरीय अवतार मानकर जगत कल्याण के निमित्त प्रतिष्ठित किया।

दिलचस्प यह है कि डार्विन के विकासवाद में भी उभयचरों — जो जल और थल दोनों में रह सकते हैं — को विकास की दूसरी अवस्था माना गया है। यह संयोग मात्र नहीं कि भारतीय सनातन परंपरा में भी दूसरा अवतार उभयचर (कछुआ) ही है। यह दर्शाता है कि जब विचार और विज्ञान के पथ एक-दूसरे से मेल खाते हैं, तो गूढ़तम प्रतीकों के अर्थ और भी स्पष्ट होते हैं।

यह पूरी कथा केवल पौराणिक गाथा नहीं, बल्कि यह इस बात की प्रेरणा है कि सामाजिक संतुलन, ज्ञान की रक्षा और सत्य की खोज के लिए हमें विरोधी विचारों के साथ मंथन करना होगा — एक ऐसा मंथन जो स्थिरता, संतुलन और गहराई के साथ किया जाए। यही सच्चे अर्थों में अवतारों की शिक्षाएँ हैं — जो हमें बाह्य रूप से नहीं, बल्कि आंतरिक रूप से विकसित करने का मार्ग दिखाती हैं।

 

 वराह अवतार: सामाजिक पुनरुत्थान

द्वितीयं तु भवायास्य रसातलगतां महीम्। उद्धरिष्यन्नुपादत्त यज्ञेशः सौकरं वपुः                             वराह अवतार में इस दुनिया के कल्याण के लिए भगवान ने पृथ्वी को उठाया जो हिरण्याक्ष राक्षस द्वारा मोहित होकर रसातल चली गई थी

सनातन धर्म की दिव्य परंपरा में भगवान विष्णु के दशावतारों का विशेष महत्त्व है, जिनके माध्यम से धर्म की रक्षा और अधर्म का नाश होता है। इन दस अवतारों में से एक है — वराह अवतार, जो न केवल ब्रह्मांडीय संतुलन को दर्शाता है, बल्कि यह सामाजिक मूल्यों की पुनर्स्थापना का भी प्रतीक है।

पौराणिक परिप्रेक्ष्य: जब पृथ्वी लुप्त हुई: पुराने काल में हिरण्याक्ष नामक एक दानव ने पृथ्वी (भूमि देवी) को समुद्र के गर्भ में छिपा दिया। यह कार्य केवल भौतिक स्तर पर ही नहीं, बल्कि प्रतीकात्मक रूप में भी ‘मूल्यहीनता’ और ‘विनाश की ओर बढ़ते समाज’ को दर्शाता है। देवताओं के आवाहन पर भगवान विष्णु ने वराह का रूप धारण किया। इस अवतार में वे ब्रह्मा की नासिका से प्रकट हुए, जो एक अत्यंत रहस्यमय और दिव्य प्रस्थान बिंदु है।

बोधचन्द्रमसि पूर्णविग्रहे मोहराहुमुषितात्मतेजसि। स्नानदानयजनादिकाः क्रिया मोचनावधि वृथैव तिष्ठते।।

जब ज्ञानरूपी पूर्ण चन्द्रमा मोहरूपी राहु द्वारा अपनी चमक खो देता है, तब ग्रहणकाल में किए गए स्नान, दान और यज्ञ आदि सभी कर्म निष्फल हो जाते हैं।                                                         

 भगवान वराह अपनी विशाल और शक्तिशाली थूथनी से समुद्र की गहराइयों में उतरे। उन्होंने गर्भोदक में छिपी हुई पृथ्वी को खोज निकाला और उसे अपने दांतों पर रखकर पुनः बाहर ले आए। यह कार्य सिर्फ पृथ्वी को शारीरिक रूप से बचाने का नहीं, बल्कि संस्कृति, मूल्यों, और सभ्यता को गहराई से पुनर्जीवित करने का संकेत था।

हिरण्याक्ष से युद्ध: मूल्यहीनता बनाम धर्म: जब हिरण्याक्ष ने देखा कि उसका अराजक कार्य विफल हो गया है, तो उसने भगवान वराह को युद्ध के लिए ललकारा। यह युद्ध केवल देवताओं और असुरों के बीच नहीं था, बल्कि नैतिकता और अनैतिकता, संस्कृति और अज्ञानता के बीच था। भगवान वराह ने इस भीषण युद्ध में अंततः हिरण्याक्ष का वध किया और धरती को जल के ऊपर स्थापित कर दिया।

यह दृश्य एक गहरा संदेश देता है: जब भी समाज अपने मौलिक मूल्यों से भटकता है, तब एक ‘वराह प्रवृत्ति’ का उदय आवश्यक होता है — जो उस कीचड़ में डूबे सत्य को पुनः खोज निकाल सके।

गर्भोदक और कीचड़: एक सामाजिक रूपक: कथा में वर्णित ‘गर्भोदक’ केवल एक महासागर नहीं है, बल्कि यह उस अव्यवस्था और अंधकार का रूप है, जिसमें सामाजिक मूल्य डूब चुके होते हैं। इस गर्भोदक में “कीचड़” का निर्माण — मिट्टी और जल के संयोग से — एक गहन प्रतीक है:

·        मिट्टी — जड़ता, अज्ञान, और भौतिकता

·        जल — चेतना, ज्ञान, और मूल्य

जब समाज में चेतना और अज्ञान का असम संतुलन उत्पन्न होता है, तब ‘कीचड़’ जन्म लेता है — एक ऐसा वातावरण जहाँ सत्य और धर्म के साथ स्वयं समाज दब जाता हैं। यही हुआ जब हिरण्याक्ष ने वेदों के ज्ञान को जड़ता और भौतिकता के कीचड़ में दबा दिया। वेद, जो समाज के ज्ञान का शुद्ध स्रोत हैं, यदि उन्हें दबा दिया जाए, तो समाज दिशाहीन और मूल्यविहीन हो जाता है।

विष्णु रूप: समाज पुरुष का बिंब

विष्णु का हर अंग समाज की किसी न किसी प्रणाली का प्रतीक है:

·        मुख — समाज का बौद्धिक और शिक्षात्मक पक्ष

·        हाथ — कर्म व समाज नियोजन शक्ति

·        पेट — भरण-पोषण, संसाधनों का प्रबंधन

·        पाँव — संस्कृति की गति और व्यवहार

इस दृष्टिकोण से देखा जाए तो विष्णु स्वयं ‘समाज पुरुष’ हैं। और जब समाज अपने ही मूल्यों के विरोध में जाने लगे, जब नेतृत्व (हिरण्याक्ष जैसे) नैतिकता से दूर चले जाएँ, तब विष्णु—या कहें समाज की सामूहिक चेतना—को ‘वराह’ बनना पड़ता है।

चण्डालदेहे पश्वादिस्थावरे ब्रह्मविग्रहे। अन्येषु तारतम्येन स्थितेषु न तथा ह्यहम् ॥                             मैं उन भेदों से सहमत नहीं हूँ जो निम्न जाति के मनुष्यों के शरीर, गौ आदि के शरीर, स्थिर शरीर, ब्राह्मण आदि के शरीरों में देखे जा सकते हैं।

यहाँ जाती भेद तथा उच्च नीच की भावना को मानाने से भगवन इंकार करते है।

 वराह का अर्थ: खोज और पुनरुत्थान: ‘वराह’ शब्द का शाब्दिक अर्थ है — “जो खोद कर बाहर निकाले”। और यही उनके अवतार का उद्देश्य रहा। यह खोज केवल भूगोल की नहीं थी, यह एक सांस्कृतिक पुनर्जागरण की यात्रा थी — अपने खोए हुए मूल्य, धर्म, और आचरण को दोबारा स्थापित करने की।         वेदों में वराह को विभिन्न प्रतीकों से जोड़ा गया है:

·        सूर्य — प्रकाश और बोध

·        पर्वत — स्थायित्व और बल

·        हल — कृषि और पुनर्निर्माण

·        प्राणी रूप वराह — प्रकृति की शक्ति और सहनशीलता

इन सभी प्रतीकों के माध्यम से समाज ने जड़ताओं को खंगालना प्रारंभ किया और वहां से पुनः मूल्य खोजकर समाज निर्माण की प्रक्रिया शुरू की। वराह उपनिषद में पहले तो ५ तत्वों से १० से १५ से २४ तत्वों का जिक्र है बादमे उसे ९६ संख्या तक ले गए। जो की भगवन वराह और ऋभू ऋषी का संवाद है। तो वो एक योग है जो शरीर को मोक्ष की और ले जाता है। 

आज के लिए संदेश: वराह रूप की आवश्यकता:

जब हम आज की सामाजिक परिस्थिति को देखते हैं, तो कई बार लगता है कि हम भी किसी गर्भोदक की अवस्था में हैं — जहाँ मूल्यों का ह्रास, अराजकता, और स्वार्थपूर्ण नेतृत्व समाज को डुबा रहा है। ऐसे समय में हमें फिर से उस वराह स्वभाव की आवश्यकता है — जो धैर्यपूर्वक, परिश्रम से सत्य को खोजे और समाज का पुनर्निर्माण करे।

निष्कर्ष: वराह अवतार का सामाजिक संदेश

वराह अवतार केवल एक चमत्कारी पौराणिक कथा नहीं है, बल्कि यह एक सांस्कृतिक उपकरण है जो हमें याद दिलाता है कि जब भी समाज मूल्यहीनता के गर्त में पहुंचे, तब परिवर्तन की लहर भीतर से ही उठानी होगी। यह अवतार बताता है कि सच्चाई को दबाया जा सकता है, लेकिन मिटाया नहीं जा सकता। और जब वह ‘थूथनी’ रूपी विवेक उसे फिर से बाहर लाता है, तो समाज पुनः जी उठता है।

 

 

 

 

 

नरसिंह अवतार

प्राचीन काल में ऋषि कश्यप और उनकी पत्नी दिति के दो पुत्र हुए—हरिण्याक्ष और हिरण्यकश्यप। इन दोनों भाईयों में असुर प्रवृत्ति विद्यमान थी। जब हरिण्याक्ष ने पृथ्वी को जल में डुबो दिया, तब भगवान विष्णु ने वाराह अवतार धारण करके पृथ्वी को बचाया और हरिण्याक्ष का वध कर दिया। अपने भाई की मृत्यु से हिरण्यकश्यप अत्यंत क्रोधित हुआ। बदले की भावना से उसने वर्षों तक कठिन तपस्या की, जिससे प्रसन्न होकर ब्रह्मा जी ने उसे वरदान दिया कि वह न दिन मरेगा, न रात में, न मनुष्य द्वारा, न पशु द्वारा, न धरती पर, न आकाश में—इस प्रकार उसे लगभग अजेय बना दिया गया।

यह वरदान पाकर हिरण्यकश्यप ने अपने को देवताओं से भी श्रेष्ठ समझना प्रारंभ कर दिया। उसने पूरे राज्य में ईश्वर की पूजा पर रोक लगा दी और स्वयं को भगवान घोषित कर दिया। उसकी सत्ता निरंकुश हो चली थी। लेकिन विडंबना यह थी कि उसी के पुत्र प्रहलाद में ईश्वरभक्ति और विनम्रता जैसे दिव्य गुण मौजूद थे। वह विष्णु का परम भक्त था और अपने पिता के आदेशों के विरुद्ध भी उसने भगवान की भक्ति नहीं छोड़ी। प्रहलाद की यह भक्ति हिरण्यकश्यप को असह्य हो गई। उसने कई बार प्रहलाद को समझाने की कोशिश की, पर वह नहीं बदला। तब हिरण्यकश्यप ने प्रहलाद की हत्या के अनेक प्रयास किए—साँपों के बीच फेंकवाना, ऊँची चोटी से गिरवाना, हाथियों के नीचे कुचलवाना, और अंत में—होलिका के साथ अग्नि में बैठाना। किंतु हर बार प्रहलाद की भक्ति उसे बचाती रही और होलिका स्वयं जलकर भस्म हो गई। फिर एक दिन हिरण्यकश्यप ने क्रोध में प्रहलाद से पूछा, “कहाँ है तेरा भगवान?” प्रहलाद ने उत्तर दिया, “वह सर्वत्र है—खंभे में भी।” इस पर हिरण्यकश्यप ने ललकारते हुए खंभे पर प्रहार किया। तभी उस खंभे से भगवान विष्णु नरसिंह के रूप में प्रकट हुए—आधा मानव, आधा सिंह। उन्होंने हिरण्यकश्यप को सांझ के समय, एक चौखट पर, अपने नखों से उठाकर मार डाला—बिल्कुल ब्रह्मा के दिए वरदान की सीमाओं का उल्लंघन किए बिना। जैसा की इस श्लोक से प्रतीत होता है,

मत्प्राणरक्षणमनन्त पित्रर्वधश्च मन्ये स्वभृत्यऋषिवाक्यमृतं विधातुम्।

खड्गं प्रगृह्य यदवोचदसद्विधित्सु- स्त्वामीश्वरो मदपरोऽवतु कं हरामि।।

प्रह्लाद जी कहते है, हे अनन्त! मेरे पिता ने अन्याय करने की इच्छा से हाथ में खड्ग लेकर जो कहा कि ‘मुझसे अतिरिक्त यदि कोई ईश्वर है तो तेरी रक्षा करे- मैं तेरा सिर काटता हूँ’, उस समय आपने जो मेरे प्राणों की रक्षा की और मेरे पिता का वध किया, वह भी अपने दास देवर्षि नारद के वचनों को सत्य करने के लिये ही था-ऐसा मैं मानता हूँ।

अब यदि इस कथा को प्रतीकात्मक रूप में देखें, तो यह सिर्फ एक पौराणिक घटना नहीं बल्कि एक सामाजिक विमर्श बन जाती है। हिरण्यकश्यप वह राजा है जो सत्ता के मद में अंधा हो गया है, और प्रहलाद उस सजीव मूल्य का प्रतीक है जो समाज की मासूम परंतु जागरूक चेतना को दर्शाता है। जब राजा प्रजा के नैतिक मूल्यों को कुचलना चाहता है, तब समाज की आंतरिक शक्ति—अर्थात विष्णु रूपी चेतना—नरसिंह रूप में प्रकट होती है, जो अत्याचार और अन्याय के विरुद्ध न्याय की प्रतिष्ठा करती है।

नाहं बिभेम्यजित तेऽतिभयानकास्य-जिह्वार्कनेत्रध्रुकुटीरभसोग्रदंष्ट्रात्।

आन्त्रस्त्रजः क्षतजकेसरशङ्कुकर्णा-न्निर्हादभीतदिगिभादरिभिन्नखाग्रात्।।

 हे अजित! जिसमें अति भयानक मुख और जिह्वा, सूर्य के समतुल्य देदीप्यमान नेत्र, भृकुटि का वेग एवं उग्र दाढ़ें हैं, जो आँतों की माला, रक्ताक्त सटाकलाप एवं सीधे खड़े हुए कानों से युक्त है, जिसके सिंहनाद ने दिग्गजों को भी भयभीत कर दिया है तथा जिसके नखाग्र शत्रु को विदीर्ण करने वाले हैं, आपके उस भयंकर स्वरूप से मुझे कुछ भी भय नहीं है।

यह कथा यह भी दिखाती है कि वेदों से जो मूल्य हमें प्राप्त हुए, वे केवल पुस्तक में सीमित नहीं रहते, बल्कि समाज में विचारों और अनुभवों की अग्निपरीक्षा के माध्यम से विकसित होते हैं। जैसे-जैसे समाज उन्हें अपनाता है, वे स्वीकार्यता प्राप्त करते हैं और वही मूल्य फिर सत्ता से टकराते हैं। सत्ता कभी-कभी इन्हीं मूल्यों को नष्ट करने का प्रयास करती है, और तब सज्जनों की सामूहिक शक्ति उनके बचाव में खड़ी हो जाती है। जब मूल्य पूरी तरह परिपक्व नहीं होते, तब संघर्ष भी उग्र और कठोर होता है—इसलिए नरसिंह अवतार की भयंकर रूप-रेखा बनती है।

नरसिंह का यह रूप समाज की भीतर छुपी हुई शक्ति को भी दर्शाता है—जिसमें आक्रोश भी है, रक्षा भी, विनाश भी और सृजन भी। डार्विन के विकासवाद में जिस आदिम मानव की कल्पना की गई है—एक ऐसा प्राणी जो अपने अस्तित्व की रक्षा के लिए हर कठिनाई से जूझ सकता है—वह कहीं न कहीं नरसिंह अवतार की सामाजिक व्याख्या से मेल खाता है। यहाँ नरसिंह एक शौर्य और विवेक का प्रतीक है, जो न्याय के लिए उत्पन्न होता है और अत्याचार का अंत करता है।

इस तरह नरसिंह अवतार केवल धार्मिक उपासना का विषय नहीं, बल्कि मानव चेतना के विकास का चरण भी है—जहाँ समाज अन्याय के विरुद्ध क्रांति करता है, और धर्म अर्थात मूल्य अपना सच्चा रूप पाते हैं।

 

 

 

 

वामन अवतार

भागवत पुराण में वर्णित वामन अवतार की कथा केवल धार्मिक आख्यान नहीं, बल्कि एक गहन सांस्कृतिक और दार्शनिक संवाद है। यह वह समय था जब असुर राजा बलि ने अपनी तपस्या, शक्ति और रणनीति के बल पर त्रिलोक अर्थात स्वर्गलोक, पृथ्वी और पाताल तक का अधिकार स्थापित कर लिया था। देवों का स्वामी इन्द्र पराजित हो चुका था, और समस्त देवलोक असुरों के नियंत्रण में आ गया था।                           हते हिरण्यकशिपौ देवानुत्साद्य सर्वतः॥ हिरण्यकशिपुके मारे जानेपर बलिने सभी स्थानोंसे देवताओंको खदेड़ दिया

बलि कोई सामान्य असुर नहीं था—वह प्रह्लाद जैसे परमहंस भक्त का पौत्र था और दैत्यराज विरोचन का पुत्र। उसमें दया, न्याय और प्रजा के प्रति संवेदनशीलता थी, जिसके कारण वह एक लोकप्रिय राजा बना।

प्रजापालनयुक्तेषु भ्राजमानेषु राजसु। स्वधर्मसंप्रयुक्तेषु तथाश्रमनिवासिषु॥

सभी राजा (भलीभाँति) प्रजापालन करते हुए सुशोभित होने लगे और सभी आश्रमोंके लोग अपनेअपने धर्मका पालन करने लगे। किंतु बलशाली बन जाने पर जब उस पर आत्ममोह और अधर्म की छाया पड़ने लगी, तब देवताओं ने भगवान विष्णु से सहायता की प्रार्थना की। तभी भगवान विष्णु ने वामन रूप में पाँचवें अवतार का धारण किया।

वामन ने एक बौने ब्राह्मण बालक का रूप धारण किया—बाँहों में यज्ञोपवीत, हाथ में दण्ड और कमंडल, और सिर पर छत्र (छाता)। वे बलि के यज्ञ मंडप में पहुँचे। बलि उस समय यज्ञ कर रहा था और उसने ब्राह्मणों को दान देने का व्रत लिया था। जब वामन ने बलि से तीन पग भूमि का दान माँगा, तो बलि चकित हुआ लेकिन हँसते हुए वचन दे डाला। बलि के गुरु शुक्राचार्य ने चेताया कि यह कोई साधारण बालक नहीं बल्कि स्वयं विष्णु हैं, पर बलि ने उन्हें अनसुना कर दिया—क्योंकि वह अपने वचन का पालन करना चाहता था।

जैसे ही बलि ने वचन दिया, वामन ने अपना स्वरूप विराट ब्रह्मांडीय रूप में बदल दिया। पहले पग में उन्होंने भूलोक अर्थात पृथ्वी नापी, दूसरे पग में स्वर्गलोक और देवलोक को, और तीसरे पग के लिए अब कुछ भी शेष नहीं था। बलि ने सिर झुकाकर कहा—”प्रभु, अब तीसरा पग मेरे सिर पर रखिए।” यही वह क्षण था जब बलि ने वचनबद्धता, नम्रता और आत्मसमर्पण की पराकाष्ठा दिखाई।

भगवान वामन बलि की इस धर्मनिष्ठता से प्रसन्न हुए और उन्होंने बलि को सुताल लोक का अधिपति बनाया—जहाँ वह सम्मानपूर्वक निवास करता है। साथ ही उसे अमरता का वरदान मिला, और उसे “महाबलि” की उपाधि प्रदान की गई। विष्णु ने स्वयं सुताल में जाकर बलि की रखवाली करने का व्रत लिया—जो यह दर्शाता है कि ईश्वर केवल धर्म के साथ है, भले ही वह असुर के रूप में क्यों न हो।

अब यदि इस कथा को प्रतीकात्मक और सामाजिक दृष्टि से देखें, तो “देव” वे लोग हैं जो वेदों पर आधारित मूल्य व्यवस्था में विश्वास रखते हैं और उस पर चलने की चेष्टा करते हैं। वहीं, “असुर” वे शक्तियाँ हैं जो इस व्यवस्था को अस्वीकार करती हैं या उसमें संशय रखती हैं। प्रारंभ में असुरों ने इस मूल्य व्यवस्था का सीधा विरोध किया—जैसा हमने मत्स्य, कूर्म, वराह और नरसिंह अवतारों में देखा। जब इस विरोध का समाज में विरोध हुआ और उन्हें पराजय का सामना करना पड़ा, तब उन्होंने एक नई रणनीति अपनाई—बाह्यतः धर्मनिष्ठ दिखाई देना और भीतर से वेद आधारित मूल्यों का विरोध करना।

यह बहुत कुछ वैसा ही है जैसे आज के लोकतंत्र में कुछ लोग बाहर से लोकतांत्रिक मूल्य अपनाने का दावा करते हैं लेकिन भीतर से परिवारवाद और व्यक्तिगत स्वार्थ की राजनीति करते हैं। यह कपट धर्मनिष्ठा तब समाज के लिए और भी खतरनाक हो जाती है, क्योंकि यह सतह पर सच्चाई का मुखौटा लगाए होती है।

इसीलिए समाज ने उन व्यक्तियों को आगे किया, जो वेदों के उद्बोधनकर्ता थे—अर्थात जो वेद की व्याख्या करते थे, उन्हें सामाजिक जीवन में ढालते थे। इन्हें हम ब्राह्मण कहते हैं। इस दृष्टिकोण से देखें तो वामन वह ज्ञानी ब्राह्मण हैं जिन्हें समाज ने आगे किया ताकि मूल्याधारित व्यवस्था की रक्षा हो सके। लेकिन उन्होंने बलि का संहार नहीं किया, क्योंकि बलि स्वयं उस व्यवस्था को बाहर से मानता था, भले ही भीतर से उसकी सोच भिन्न हो।

वामन अवतार की यही विशेषता है—संवाद, समर्पण और विवेक। जहाँ पूर्व अवतारों में शक्ति और युद्ध से समस्याओं का समाधान हुआ, वहाँ वामन अवतार में बुद्धि, युक्ति और नीति के द्वारा असुरों की चुनौती का उत्तर दिया गया। यही कारण है कि वामन अवतार को विष्णु का सबसे शांत लेकिन अत्यंत गूढ़ अर्थवाला अवतार माना जाता है।

इस कथा में एक और महत्वपूर्ण संदेश है—धर्म केवल बाहरी आडंबर नहीं, बल्कि अंतःकरण की शुद्धता और वचनबद्धता है। बलि ने अपने वचन को निभाने के लिए अपना सब कुछ समर्पित कर दिया, इसीलिए वह महाबलि कहलाया और विष्णु को भी उसकी रक्षा का उत्तरदायित्व लेना पड़ा।

यदि हम डार्विन के विकासवाद की परिप्रेक्ष्य से देखें, तो यह अवतार उस अवस्था का प्रतीक है जब मानव ने अपने क्रूर और हिंसक युग (जैसा कि नरसिंह अवतार में प्रतीत होता है) से बाहर आकर संवाद, समझ और कूटनीति के मार्ग पर चलना प्रारंभ किया। बौना ब्राह्मण—छोटा दिखने पर भी मस्तिष्क और बुद्धि का प्रतीक—यह दर्शाता है कि मानव विकास अब शारीरिक ताकत से नहीं, बल्कि मानसिक परिपक्वता से परिभाषित होने लगा था।

वामन अवतार, इस प्रकार केवल इतिहास या पौराणिक कथा नहीं, बल्कि एक विचार है—कि जब बाह्य धर्म आडंबर बन जाए और आंतरिक मूल्य खोने लगें, तब परिवर्तन का उपाय संवाद, जिज्ञासा और नीति में ही है। यह हमें सिखाता है कि न तो कोई व्यवस्था अमर है, न कोई राजा अजेय; जो वास्तव में स्थायी हैं, वे हैं मूल्य, वचन और धर्मपरायणता।

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

भगवान परशुराम: अवतार, मूल्याधारित व्यवस्था का रक्षक

हिंदू धर्म में भगवान परशुराम को विष्णु के छठे अवतार के रूप में जाना जाता है। वे एकमात्र ऐसे अवतार हैं जो चिरंजीवी माने जाते हैं और कई युगों में सक्रिय माने गए हैं। परशुराम केवल एक योद्धा नहीं थे, बल्कि एक चिंतनशील तपस्वी, ब्राह्मण कुल में जन्म लेने वाले क्षत्रिय प्रवृत्ति के योद्धा, और समाज की नैतिकता की रक्षा हेतु जन्मे अवतारी पुरुष थे।

उनकी कथा की शुरुआत होती है महर्षि जमदग्नि से, जो तपस्वी जीवन जी रहे थे। उनके पास एक कामधेनु गाय थी जो उन्हें तपस्या में सहायक थी और पूरे आश्रम की आवश्यकताओं को पूर्ण करती थी। एक बार पृथ्वी के शक्तिशाली राजा कर्तवीर्य सहस्त्रार्जुन, जो अपने हजार हाथों और असीम बल के लिए प्रसिद्ध था, अपनी सेना सहित ऋषि के आश्रम आया। उन्होंने कामधेनु गाय के चमत्कारी गुणों को देखा और उसे बलपूर्वक ले जाना चाहा। ऋषि जमदग्नि ने विरोध किया, जिसके फलस्वरूप राजा ने ऋषि की हत्या कर दी और गाय को हरण कर लिया।

यह खबर जब परशुराम को मिली, तब वे अत्यधिक क्रोधित हो उठे। क्रोध केवल व्यक्तिगत अपमान का नहीं था, बल्कि यह एक आदर्श पर आक्रमण था—जहां एक समर्पित तपस्वी को राज्य की सत्ता ने नष्ट कर दिया था। यह उस युग की तस्वीर प्रस्तुत करता है जब शक्ति का नशा इतना बढ़ गया था कि राजा राजधर्म और मर्यादा भूलकर अत्याचार का मार्ग अपना रहे थे।

भगवान परशुराम ने यह शपथ ली कि वे पृथ्वी को ऐसे अत्याचारी क्षत्रियों से मुक्त करेंगे। उन्होंने एक-एक कर के कई राजाओं का वध किया और उन्हें यह संदेश दिया कि सत्ता सेवा के लिए होती है, शोषण के लिए नहीं। कहा जाता है कि उन्होंने इक्कीस बार पृथ्वी को क्षत्रियहीन कर दिया था। यह कोई नस्ल संहार नहीं था, बल्कि एक प्रतीकात्मक कथा है—जो बताती है कि जब मूल्यविहीन सत्ता बार-बार समाज पर अत्याचार करने लगे, तब समाज को उसकी मूल्य आधारित पुनर्संरचना करनी पड़ती है।

               भयार्तस्वजनत्राणतत्परं धर्मतत्परम्। गतगर्वप्रियं शूरं जमदग्निसुतं मतम् ॥                                           भय से पीड़ित अपने परिजनों को बचाना ही धर्म का परम लक्ष्य है। उन्हें जमदग्नि का पुत्र और अभिमान से रहित एक वीर पुरुष माना जाता है।

यह ध्यान देने योग्य है कि परशुराम का क्रोध नियंत्रित था। जैसे ही समाज में पुनः संतुलन स्थापित हुआ और सत्ता पर मर्यादा लौट आई, मुनि कश्यप ने परशुराम को आदेश दिया कि अब वे अपना शस्त्र त्यागें और पृथ्वी को शांतिपूर्वक छोड़ दें। परशुराम ने आज्ञा का पालन किया और जाकर उड़ीसा के महेन्द्रगिरि पर्वत पर तपस्या में लीन हो गए। यह वही पर्वत है जिसे आज भी परशुराम के तपोस्थान के रूप में माना जाता है।

अब जब इस पौराणिक कथा को समाजशास्त्रीय दृष्टिकोण से देखें, तो यह प्रतीकात्मक दृष्टांत बन जाती है। पूर्व के विष्णु अवतारों ने जहां वेदों के मूल्यों को स्थापित किया, वहीं परशुराम ने उन मूल्यों को समाज में राजधर्म के भीतर समाहित करवाने का कार्य किया। पहले, विरोध बाह्य शक्तियों से था—दैत्य, असुर, प्रकृति की आपदाएँ। लेकिन जैसे-जैसे समाज ने वेद-आधारित संरचना को आत्मसात करना शुरू किया, समस्या भीतर से उत्पन्न होने लगी।

अब जो चुनौती थी, वह उन शासकों से थी, जिन्होंने सत्ता के माध्यम से लोगों पर एक प्रकार की तानाशाही थोपनी शुरू की। वे वेदों के मूल्यों को मानने का दावा करते थे, लेकिन उनका आचरण उससे पूरी तरह भिन्न था। जैसे कर्तवीर्य सहस्त्रार्जुन का उदाहरण ले—वह शक्ति का प्रतिनिधि तो था, लेकिन मूल्यविहीन बन गया था।

यह कथा बताती है कि जब सत्ता भ्रष्ट हो जाती है, तो समाज को चेतना के रूप में किसी तपस्वी योद्धा की आवश्यकता होती है, जो केवल बल से नहीं बल्कि नैतिक दृढ़ता से उस सत्ता का सामना करे। परशुराम वही अवतारी शक्ति थे, जो समाज को यह संदेश देने आए कि “राजा हो या रंक धर्म सब पर समान रूप से लागू होता है।”

परशुराम का अवतार यह भी स्पष्ट करता है कि ब्राह्मण और क्षत्रिय गुण केवल जाति का विषय नहीं, बल्कि एक कर्तव्य और चिंतन का सम्मिलन है। एक ओर वे ब्राह्मण कुल में उत्पन्न हुए, यज्ञोपवीतधारी थे; और दूसरी ओर उनके भीतर क्षत्रिय की साहस और समर्पण की भावना थी। यह संतुलन स्वयं दर्शाता है कि धर्म किसी वर्ग या वंश से बंधा नहीं, बल्कि वह एक आचरण है, एक उत्तरदायित्व।

इस पृष्ठभूमि में समाज की भूमिका भी विचारणीय है। जैसे-जैसे वेद मूल्यों का प्रचार-प्रसार हुआ, समाज को एक नई नैतिक चेतना मिली। राजा हरिश्चंद्र जैसे उदाहरण सामने आए, जिन्होंने सत्य के लिए सब कुछ त्याग दिया। राजा जनक, जिनके ज्ञान के आगे ऋषि-मुनि भी नतमस्तक हो जाते थे, यह दर्शाते हैं कि राजधर्म भी ज्ञान और विचारशीलता पर आधारित होना चाहिए।

परंतु यह भी सत्य है कि हर राजा ऐसा नहीं था। जब अनियंत्रण की प्रवृत्ति बढ़ने लगी, तब समाज ने परशुराम जैसे मार्गदर्शक को स्वीकारा—जिन्होंने स्वार्थ नहीं, बल्कि नीति के लिए युद्ध किया। उनका उद्देश्य संहार नहीं था, पुनर्निर्माण था।

समाजमूल्य एवं न्याय की रक्षा परशुराम जी ने क्षत्रियों के अन्याय के विरुद्ध संग्राम कर केवल सामाजिक न्याय की रक्षा ही नहीं की, बल्कि आदर्श शासन और नैतिक मूल्यों की पुनर्स्थापना भी की। वह केवल क्षात्रधर्म के पालक ही नहीं, बल्कि प्राकृतिक संसाधनों के संरक्षक थे।भूमि एवं जल के प्रति गहरी संवेदनशीलता थी।

आपो धरणीं धारयन्ति, आपो जीवनदायिनी। आपो रक्षन्तु भूम्यै, परशुरामस्य शासने। यह श्लोक जल के प्रति परशुराम की दृष्टि को उजागर करता है — जल न केवल जीवन का स्रोत है बल्कि पृथ्वी का संरक्षक भी है। उनके शासन में जल की पवित्रता और संरक्षण को प्राथमिकता मिली।

सागरतट से भूमि का उद्धार “सागर से दक्षिण भूमि मुक्त कर एक शाश्वत मन्त्र दिया”— यह भाग परशुराम के भौगोलिक कार्यों की ओर संकेत करता है। माना जाता है कि उन्होंने समुद्र से भूमि का उद्धार कर ‘कौनकण क्षेत्र’ की स्थापना की। इस कार्य में न केवल भूगोलिक विस्तार हुआ बल्कि उसे एक आध्यात्मिक संदेश भी मिला:

आपो हि रक्षणं कुर्वन्ति, भूमिं च धारयन्ति च। एतत् परशुरामस्य, ज्ञानं सत्यं च शाश्वतम्।

जल और भूमि के समन्वय को शाश्वत सत्य के रूप में प्रस्तुत करना दर्शाता है कि प्रकृति भी धर्म का अंग है।

दार्शनिक दृष्टिकोण

यह विचार गहराई से दर्शाता है कि परशुराम केवल युद्ध और न्याय के प्रतीक नहीं थे, बल्कि प्रकृति के संतुलन को भी अपना धर्म मानते थे। उनका जीवन हमें यह सिखाता है कि “सिर्फ मानवता की रक्षा नहीं, प्रकृति का सम्मान भी धर्म का अभिन्न अंग है।”

डार्विन के सिद्धांत में यह युग एक ऐसे मोड़ को दर्शाता है जब मानव ने केवल अस्तित्व नहीं, बल्कि अनुशासन और नियमों की आवश्यकता को समझा। यह वह क्षण था जब समाज ने शक्ति के साथ-साथ नीति और मर्यादा को महत्व देना सीखा।

परशुराम केवल क्रोध के देवता नहीं हैं, वे समाज प्रबोधन के प्रतीक हैं। उनका अवतार हमें यह सिखाता है कि धर्म की रक्षा कभी-कभी कठिन निर्णयों और तीव्र कार्यवाहियों की भी मांग करती है, लेकिन वह सदैव संतुलन और विवेक से की जाती है। जैसे परशुराम ने अनियंत्रित शासकों का विनाश किया, वैसे ही आज भी आवश्यकता है ऐसे मार्गदर्शकों की, जो समाज को अंधकार से प्रकाश की ओर ले जा सकें—जहाँ धर्म केवल अनुष्ठान नहीं, एक जीवंत मूल्य बन जाए।

 

प्रभु श्रीराम

भारतीय समाज में जब वेदों के आधार पर सामाजिक मूल्य स्थापित होने लगे, तब यह आवश्यक हो गया कि वे केवल किसी एक वर्ग या क्षेत्र तक सीमित न रहें, बल्कि समाज के सबसे दूरस्थ और विविध समुदायों तक पहुँचें। इन समुदायों में वनवासी, गिरिवासी, ग्रामवासी और तटवासी जैसे लोग सम्मिलित थे, जो भले ही समाज की ज्ञात परिधि में न आते हों, लेकिन सामाजिक संरचना का अभिन्न हिस्सा हैं। यदि मूल्य इन सभी तक नहीं पहुँचते, तो समाज केवल एक अविकसित समूह बना रहता, जिसमें समरसता, अनुशासन और नीति का अभाव होता। इसी आवश्यकता की पूर्ति के लिए भगवान विष्णु (समाज) ने अपने सातवें अवतार—प्रभु श्रीराम के रूप में साकार किया।

अब प्रश्न यह उठता है कि क्या श्रीराम केवल राक्षसों से युद्ध करने के लिए अवतरित हुए थे? क्या उनका लक्ष्य केवल रावण रूपी एक तामसी शक्ति को पराजित करना था? या इसके पीछे कोई गहरा सामाजिक और नैतिक उद्देश्य था? जब हम उनके जीवन का गहराई से अवलोकन करते हैं, तो स्पष्ट होता है कि श्रीराम का अवतरण केवल युद्ध अथवा वीरता का प्रदर्शन नहीं था, बल्कि यह भारतीय समाज की नीति-निष्ठा को पुनः स्थापित करने की एक संगठित और सूक्ष्म प्रक्रिया थी।

समाजशास्त्र का एक मूल सिद्धांत है कि यदि कोई भी समाज अपनी नीति और मूल्यों से भटक जाता है, तो उसका पतन अवश्यंभावी होता है। प्राचीन भारतीय समाज की संरचना पर अगर हम दृष्टिपात करें, तो स्पष्ट हो जाता है कि यह परिवार आधारित व्यवस्था थी। समाज की सबसे छोटी इकाई, सबसे बुनियादी यूनिट—परिवार—ही था। और किसी भी स्थायी, स्थिर परिवार को सुचारु रूप से चलाने के लिए विशिष्ट मूल्यों की आवश्यकता होती है।

इन मूल्यों में “परस्त्री को माता के समान देखना” एक अत्यंत महत्वपूर्ण और मूलगामी सिद्धांत था। यह विचार केवल नारी सम्मान का प्रतिनिधित्व नहीं करता, बल्कि समाज में मर्यादा, संयम और अनुशासन के विस्तार का प्रतीक भी है। रावण जैसे अत्यंत बलशाली, विद्वान, और पराक्रमी राजा ने जब इस मूल्य को तोड़ा और माता सीता का हरण किया, तब यह केवल एक स्त्री का अपहरण नहीं था, बल्कि समाज के मूलभूत धर्म और मर्यादा पर आघात था।

यहां ध्यान देने योग्य बात यह है कि प्रभु श्रीराम के पास मिथिला और अयोध्या जैसी शक्तिशाली राज्यों की सेना उपलब्ध थी। वह यदि चाहते तो एक संगठित सैनिक अभियान रावण के विरुद्ध प्रारंभ कर सकते थे। लेकिन उन्होंने ऐसा नहीं किया। उन्होंने उस संघर्ष के लिए उन लोगों को चुना जो वनवासी, निषाद, वानर और समाज के सीमांत समूहों से आते थे। उन्होंने दिखाया कि समाज के सुदूरवर्ती, सामान्य और वंचित वर्ग भी जब किसी मूल्य की रक्षा के लिए एकजुट होते हैं, तो सबसे बड़ी शक्ति को पराजित कर सकते हैं।

श्रीराम ने केवल रावण का सामना नहीं किया—उन्होंने वनवासी समाज में सामूहिकता, कर्तव्यबोध और नीति पालन का संचार किया। उनके नेतृत्व में वनवासी समाज न केवल संगठित हुआ, बल्कि उसने धर्म और नीति के पक्ष में अपने प्राणों की आहुति दी। इस प्रकार श्रीराम ने समाज के सबसे दूरस्थ और उपेक्षित वर्गों में वेद-निर्मित मूल्यों की स्थापना की।

प्रभु श्रीराम के जीवन से हमें यह भी सीखने को मिलता है कि उन्होंने अपने जीवन में हर निर्णय शास्त्रों के अनुसार लिया। जब भी वे किसी कठिनाई या जीवन संघर्ष में पड़ते, तो सबसे पहले वे देखते कि शास्त्र इस विषय पर क्या कहता है? उनके जीवन में मनमानी या मनःप्रवृत्ति की कोई जगह नहीं थी। उनका दर्शन अत्यंत अनुशासित, विनयशील और समर्पित था।

उदाहरण के लिए, जब उन्हें पिता की आज्ञा पर 14 वर्ष का वनवास मिला, तो उन्होंने बिना किसी विरोध के उसे स्वीकार किया। क्योंकि उनके लिए पिता की आज्ञा ही धर्म थी। जब माता कैकेयी ने उन्हें राज्य नहीं, बल्कि वनवास दिया, तब भी उन्होंने किसी के खिलाफ कटुता नहीं दिखाई, बल्कि सभी संबंधों की मर्यादा बनाए रखी।

उन्हें “मर्यादा पुरुषोत्तम” इसलिए नहीं कहा गया कि वे केवल बाहरी रूप से शालीन थे, बल्कि इसलिए कहा गया कि उनकी पूरी जीवनशैली मर्यादा, अनुशासन, शास्त्र-निष्ठा और समर्पण से बनी थी। उनका हर निर्णय समाज को यह सिखाने के लिए था, कि जब तक समाज शास्त्रों या मूल्यों पर आधारित रहेगा, तब तक वह पतन से बचा रहेगा।

प्रभु श्रीराम ने दिखाया कि एक आदर्श राजा वही होता है जो पहले आदर्श पुत्र, आदर्श पति, आदर्श भाई और अंततः आदर्श राजा हो। उनके जीवन में कोई भी निर्णय ऐसा नहीं था जो केवल सत्ता या लालच के लिए लिया गया हो। यहाँ तक कि रावण का वध भी धर्म की रक्षा के लिए ही किया गया, किसी वैयक्तिक प्रतिशोध से नहीं। रामायण केवल एक कथा नहीं, बल्कि वह सामाजिक मूल्यों की जीवंत पाठशाला है। उसमें दिखाया गया है कि कैसे परिवार, राज्य, मित्रता, स्त्री-पुरुष संबंध, प्रजा-राजा संबंध—इन सभी को यदि वेदों और शास्त्रों के अनुरूप संचालित किया जाए, तो समाज स्थायित्व, समरसता और समृद्धि की ओर बढ़ता है।

श्रीराम का प्रभाव भारतीय जनमानस पर इतना गहरा है कि आज भी जब कोई व्यक्ति नीति और धर्म से विचलित होता है, तो उदाहरण के लिए कहा जाता है: “राम जैसा बनो।” यही कारण है कि भारतीय मानस में श्रीराम केवल एक राजा नहीं, एक जीवन-दर्शन के रूप में प्रतिष्ठित हैं।

डार्विन ने जहां मानव विकास को शारीरिक और मानसिक अनुकूलन के रूप में देखा, वहीं प्रभु राम का अवतार यह स्पष्ट करता है कि समाज का वास्तविक विकास उसके नैतिक और सांस्कृतिक मूल्यों में होता है। श्रीराम का अवतार मानवता को यह दिशा देता है कि धर्म, नीति और मर्यादा से जुड़कर ही सच्चा समाज निर्मित होता है।

जब तक भारतीय समाज रहेगा, जब तक वेद और शास्त्र जीवित रहेंगे, तब तक प्रभु श्रीराम भारतीय जीवन के आदर्श बने रहेंगे—जिनकी उपस्थिति समाज को याद दिलाती रहेगी कि कानून, मर्यादा और धर्मनिष्ठा के बिना कोई भी शक्ति टिक नहीं सकती ।

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

भगवान श्रीकृष्ण

जब भी समाज में स्थापित मूल्य समय के साथ रूढ़िवादिता का रूप लेने लगते हैं, तब परिवर्तन की आवश्यकता अनिवार्य हो जाती है। लेकिन यह परिवर्तन मूल मूल्यों को मिटाकर नहीं, बल्कि उनकी अभिव्यक्ति और सामाजिक अनुसरण की पद्धति में समायोजन करके होती है। यही प्रक्रिया आधुनिक भाषा में “ऑपरेटिंग प्रोसीजर का संशोधन” कहलाती है, और यही कार्य भगवान श्रीकृष्ण ने अपने जीवन और शिक्षाओं के माध्यम से किया। उनका समूचा अवतार सामाजिक सुधार, मानसिक परिवर्तन और नैतिक मूल्यों की नवीन व्याख्या का प्रतीक है।

भगवान कृष्ण का जीवन केवल एक धार्मिक कथा नहीं है, बल्कि वह एक सामाजिक क्रांति का गूढ़ सन्देश है। जब-जब धर्म का बाहरी प्रदर्शन आडंबर बन जाता है, जब कर्मकांड श्रद्धा पर हावी हो जाते हैं, और जब समाज का व्यवहार स्वार्थ, हिंसा और असंवेदनशीलता से भरने लगता है—तब एक ऐसे अवतारी पुरुष की आवश्यकता होती है जो वर्तमान के अनुरूप मार्गदर्शन दे सके। श्रीकृष्ण ने यह कार्य न केवल युद्धभूमि में अर्जुन को उपदेश देकर किया, बल्कि बचपन से लेकर युवा अवस्था तक हर मोड़ पर सामाजिक कुंठाओं को चुनौती दी।

कृष्ण का बचपन ही व्यवस्था-विरोधी किंतु मूल्य-स्थापनात्मक घटनाओं से भरा है। उनके द्वारा किया गया “माखन चोरी” केवल एक शरारत नहीं, बल्कि संपत्ति के केंद्रीकरण और लोभी मानसिकता के विरुद्ध एक सांकेतिक प्रतिक्रिया थी। जहां एक ओर गोकुल के सम्पन्न व्यापारी अपने संसाधनों को छिपा कर रखते थे, वहीं कृष्ण ने यह संदेश दिया कि समाज में बाँटने की प्रवृत्ति होनी चाहिए, न कि संग्रह की।

इसी प्रकार, जब समाज इंद्र पूजा के रूढ़िपंथी आयोजन में व्यस्त था, तब उन्होंने निसर्ग के महत्व को रेखांकित करते हुए गोवर्धन पूजा का प्रारंभ किया। उन्होंने स्पष्ट किया कि प्राकृतिक संसाधन—जैसे वर्षा, धरती, अन्न और जल—इंद्र के भय के कारण नहीं, बल्कि प्रकृति से संतुलित व्यवहार के परिणामस्वरूप हमें प्राप्त होते हैं। इस प्रकार उन्होंने धर्म को अंधश्रद्धा से निकाल कर प्राकृतिक विज्ञान और संतुलित जीवनशैली से जोड़ा।

इन उदाहरणों से यह स्पष्ट होता है कि श्रीकृष्ण सुधारवादी विचारधारा के समर्थक थे। वे सिखाते हैं कि जब समाज के मूल्य बाह्याचार बन जाएं, तो उनका पुनर्परिभाषण आवश्यक होता है, न कि उनका परित्याग। वे नई पीढ़ी को यह सिखाते हैं कि श्रद्धा केवल पूजा तक सीमित नहीं, बल्कि वह व्यवहार में झलकनी चाहिए।

भगवान कृष्ण का चरित्र केवल सामाजिक स्तर पर ही जागरूक नहीं था, बल्कि उन्होंने मानव मन की गहराइयों को भी समझा। नरकासुर वध के बाद, उन स्त्रियों को जिन्हें बलात बंदी बनाकर लाया गया था, समाज ने स्वीकारने से इंकार कर दिया। यह स्त्री के साथ हुए अत्याचार के बाद दूसरी बार मानसिक अपमान था। तब स्वयं भगवान ने उन स्त्रियों को अपना स्थान देकर स्त्री सम्मान की पुनर्स्थापना की। यह कार्य उस युग के लिए ही नहीं, बल्कि आज के समाज के लिए भी प्रेरणा-स्रोत है, जहां पीड़ितों को समाज के सहयोग की जरूरत होती है, न कि तिरस्कार की।

श्रीकृष्ण ने स्त्री-पुरुष संबंधों की परिभाषा को भी गहराई से छुआ। जहां एक ओर समाज में पुरुष और स्त्री के मेल को केवल वासना की दृष्टि से देखा जाता था, वहीं उन्होंने राधा-कृष्ण संबंध के माध्यम से निर्मल प्रेम, मैत्री और समर्पण की नई परंपरा आरंभ की। उन्होंने यह दर्शाया कि स्त्री और पुरुष के बीच मित्रता, विश्वास और सहयोग पर आधारित संबंध भी संभव हैं, जो समाज के लिए अनुकरणीय हो सकते हैं।

भगवान श्रीकृष्ण का सबसे प्रभावशाली योगदान महाभारत काल में दिया गया गीता का उपदेश है। जीवन के सबसे जटिल मोड़ पर, जब अर्जुन कर्तव्य और संबंधों के द्वंद्व में उलझ जाता है, तब श्रीकृष्ण उसे केवल युद्ध नहीं, बल्कि जीवन का मर्म समझाते हैं। गीता केवल एक धर्म-ग्रंथ नहीं, बल्कि मानव विचारों का दिशा-निर्देशक है। उसमें कर्म, धर्म, विवेक, समता, भक्ति, ज्ञान और संन्यास—सभी जीवन तत्वों का सम्यक् समायोजन है।

श्रीकृष्ण हमें यह सिखाते हैं कि युद्ध जब परिवार के भीतर भी हो, तब भी यदि उद्देश्य धर्म की रक्षा हो, तो वह आवश्यक हो जाता है। उन्होंने पांडवों को यह सिखाया कि यदि परिवार के लोग भी अधर्म के मार्ग पर हों, तो मूल्य की रक्षा के लिए कठोर निर्णय लेने में संकोच नहीं करना चाहिए। यही विचार आज के समाज में भी प्रासंगिक है, जहाँ भ्रष्टाचार, जातिवाद, और अन्याय कभी-कभी अपनों से ही आते हैं।

परंतु इन सभी परिस्थितियों में श्रीकृष्ण यह सुनिश्चित करते हैं कि धर्म—अर्थात सामाजिक मूल्य—कभी आहत न हो। क्योंकि यदि समाज अपने मूल्यों से डगमगा जाता है, तो वह पुनः बिखरे हुए झुंड में परिवर्तित हो जाता है। एक संगठित समाज वही है, जहाँ मूल्य व्यवहार में उतरते हैं, और श्रीकृष्ण उसी संगठन का सूक्ष्म और सशक्त मार्गदर्शक हैं।

आज जब हम “अमेंटमेंट इन ऑपरेटिंग प्रोसीजर” जैसी आधुनिक प्रशासनिक भाषा को सुनते हैं, तो महसूस होता है कि श्रीकृष्ण के काल में भी यही विचार था—कि स्थल, काल और परिस्थिति के अनुसार नीति का संचालन हो, मूल्यों का नहीं। उन्होंने सिखाया कि समाज अगर गतिशील रहना चाहता है, तो मूल्यों की आत्मा को बनाए रखते हुए, उसके अनुपालन के तरीकों को लचीला और समसामयिक बनाना होगा।

इस रूप में भगवान श्रीकृष्ण केवल एक योद्धा या दार्शनिक नहीं, बल्कि एक महान समाज सुधारक और मनोवैज्ञानिक मार्गदर्शक हैं। उन्होंने समाज को आडंबर से निकालकर आत्मबोध और विवेक की ओर मोड़ा, और जीवन को कर्तव्य, प्रेम, त्याग और नीति के पथ पर चलाने की राह दिखाई।

इसलिए, भगवान श्रीकृष्ण को केवल धार्मिक तथा आध्यात्मिक दृष्टि से देखना उनकी व्यापक भूमिका को सीमित करना होगा। वे भारतीय सभ्यता की चेतना हैं, जिसने अतीत से आज तक समाज को यह सिखाया कि मूल्य केवल पुस्तकों में नहीं, व्यवहार में जीवंत होते हैं। और जब वह व्यवहार रूढ़ हो जाए, तो उसका सूझ-बूझ से नया मार्ग बनाना ही कृष्ण की सच्ची प्रेरणा है।

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

गौतम बुद्ध: आत्मचिंतन से सामाजिक जागरण तक का नवम अवतार

भारतीय अध्यात्म और दर्शन की समृद्ध परंपरा में गौतम बुद्ध एक विलक्षण प्रकाशस्तंभ के रूप में प्रतिष्ठित हैं। उनका जन्म 563 ईसा पूर्व में लुंबिनी (वर्तमान नेपाल) के शाक्य गणराज्य में हुआ था। उनके पिता राजा शुद्धोधन इक्ष्वाकु वंशीय क्षत्रिय थे, और माता महारानी महामाया कोलीय वंश से थीं। दुर्भाग्यवश, बुद्ध के जन्म के सात दिन बाद ही उनकी माँ का निधन हो गया और उनका लालन-पालन उनकी मौसी महाप्रजापति गौतमी ने किया। बालक सिद्धार्थ (बुद्ध का बाल्य नाम) का बचपन अत्यंत सुख-सुविधाओं से परिपूर्ण राजसी वातावरण में बीता, किंतु उनके भीतर बचपन से ही एक असाधारण संवेदनशीलता और गहन जिज्ञासा थी।

सिद्धार्थ के जन्म के समय कुछ विद्वानों और साधुओं को बुलाकर उनका भविष्य पूछा गया। उन्होंने स्पष्ट किया कि यह बालक या तो चक्रवर्ती सम्राट बनेगा—जो संपूर्ण पृथ्वी पर शासन करेगा, या फिर एक बुद्ध बनेगा—जो संसार को ज्ञान, करुणा और मोक्ष की ओर ले जाएगा। यह भविष्यवाणी मात्र न रहकर आने वाले युगों की दिशा भी थी।

राजा शुद्धोधन ने सिद्धार्थ को हर प्रकार के दुःख-दर्द और असंतोष से दूर रखने के प्रयास किए। उन्हें दुनिया की पीड़ा से अनभिज्ञ बनाए रखा गया। परंतु नियति को कुछ और ही मंजूर था। एक दिन नगर-दर्शन के समय उन्होंने वृद्धावस्था, रोग और मृत्यु को देखा—और पहली बार जीवन की नश्वरता और असत्यता को महसूस किया। इन्हीं अनुभवों ने उन्हें भीतर से झकझोर दिया। उसी क्षण से उनके भीतर परिवर्तन की प्रक्रिया शुरू हो गई। उन्होंने निर्णय लिया कि जब तक वे मानव जीवन के दुखों का समाधान नहीं खोज लेते, तब तक वह न तो राजा बनेंगे, न गृहस्थ।

उसी रात, 29 वर्ष की उम्र में, सिद्धार्थ ने अपनी पत्नी यशोधरा और शिशु राहुल को त्याग कर सत्य की खोज में गृह त्याग किया। उन्होंने कठोर तपस्या की, अनेक गुरुओं से शिक्षा ली, और अंत में बोधगया में बोधि वृक्ष के नीचे सप्ताहों तक ध्यान कर के आत्मज्ञान प्राप्त किया। वहीं से वे बन गए गौतम बुद्ध—साक्षात ज्ञान के सागर, जिन्होंने जीवन को भीतर से देख लिया था।

बुद्ध का योगदान इस बात में था कि उन्होंने शत्रु की पहचान बाहरी दुनिया में नहीं, बल्कि मानव मन की गहराइयों में की। उन्होंने बताया कि क्रोध, मोह, लोभ, ईर्ष्या और अज्ञान ही वे शत्रु हैं जो मनुष्य को दुःखों की ओर ले जाते हैं। उन्होंने हिंसा का त्याग किया, सत्य को अपनाया, मौन और ध्यान को साधना बनाया। वे सिखाते हैं कि जब तक हम अपने अंतर्मन में नहीं झांकते, तब तक बाह्य परिवर्तन संभव नहीं।

इसीलिए बुद्ध के जीवन में युद्ध, राज्य, विजय जैसे शब्द अनुपस्थित हैं। वे हमेशा ध्यानमग्न, शांत, करुणामय और आत्म-निरीक्षण में लीन दिखाई देते हैं। उन्होंने बताया कि जीवन का लक्ष्य केवल भोग नहीं, बल्कि आत्मज्ञान और दूसरों के प्रति करुणा होना चाहिए।

बुद्ध के उपदेशों का प्रभाव इतना गहरा था कि कुछ ही वर्षों में उनके विचार एशिया के कोने-कोने तक फैल गए। जहां दुनिया बाह्य युद्ध, असत्य, हिंसा और क्रूरता से त्रस्त थी, वहां बुद्ध की अहिंसा, सम्यक दृष्टि और अष्टांग मार्ग की शिक्षा मानवता के लिए नवजीवन बन गई।

उन्हें भगवान विष्णु का नवम अवतार भी माना जाता है, क्योंकि वे उन मानव शत्रुओं से लड़ने आए जो बाहरी नहीं, बल्कि अंदर के विकार थे। वे हमारे मन में बैठे उन दुर्गुणों के खिलाफ खड़े हुए जो समाज को भीतर से खोखला कर देते हैं। यही कारण है कि वेदों के दृष्टिकोण से जब हम संकल्प मंत्र पढ़ते हैं, तब हम अभी के समय को “बौद्धावतारे” कहते हैं। यह केवल धार्मिक परंपरा नहीं, बल्कि इस बात का स्वीकार है कि बुद्ध का समय आज भी जीवित है।

आपने देखा होगा कि हर एक पूजा के समय जब संकल्प मंत्र पढ़ा जाता है, तो उसमें स्थल और काल की गणना करते समय निम्न वाक्य आता है:

ॐ विष्णुर्विष्णुर्विष्णु:, ॐ अद्य ब्रह्मणोऽह्नि द्वितीय परार्धे श्री श्वेतवाराहकल्पे, वैवस्वत मन्वन्तरे, अष्टाविंशतितमे कलियुगे, कलि प्रथमचरणे, जम्बूद्वीपे, भरतखण्डे, भारतवर्षे… बौद्धावतारे…”

इस वाक्य में बौद्धावतारे शब्द यह दर्शाता है कि हम अभी भी उसी समय में हैं जब बुद्ध के विचार सार्वकालिक रूप से मानवता का मार्गदर्शन कर रहे हैं।

बुद्ध के विचार केवल धर्म तक सीमित नहीं थे—वे जीवन की पद्धति बन गए। उन्होंने तप, यज्ञ और बलि की अपेक्षा करुणा, ध्यान और सेवा को सर्वोच्च माना। उन्होंने जाति, वर्ग, लिंग या समुदाय के आधार पर भेद नहीं किया। उनके संघ में स्त्रियाँ, शूद्र, व्यापारी, राजा, सब समान रूप से प्रवेश करते थे।

श्रीराम, श्रीकृष्ण जैसे पूर्ववर्ती अवतारों में जहाँ समाज के बाह्य समस्याओं और व्यवस्था की रक्षा केंद्र में थी, वहीं बुद्ध का अवतार समाज के भीतर छिपी मानसिक और आत्मिक कुंठाओं से लड़ने के लिए था। उन्होंने दिखाया कि एक सच्चा परिवर्तन तब आता है जब मन का परिवर्तन होता है।

उन्होंने किसी को शास्त्रों या परंपराओं से डरा कर नहीं, बल्कि तर्क, करुणा और आत्मबोध से जोड़ा।

अत्त दीपो भव

अर्थात “स्वयं अपने दीपक बनो”—यह वाक्य उनकी समस्त शिक्षा का सार है। उन्होंने हर व्यक्ति को आत्मनिर्भरता, स्वतंत्र चिंतन और स्वावलंबन का मार्ग दिखाया।

इसलिए बुद्ध केवल धर्मप्रवर्तक नहीं, बल्कि एक समग्र सामाजिक सुधारक, मनोवैज्ञानिक, दार्शनिक और मानवतावादी थे। उनका जीवन एक जीवंत प्रमाण है कि जब समाज बाहरी शत्रुओं को हटा कर अंदर के विकारों से लड़े, तब ही सच्ची शांति और संतुलन की प्राप्ति होती है।

 

भगवन कल्कि आ रहे है!….

 

ाजशास्त्रीय


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Jitendra R Deshpande