अध्याय–1 : प्रेम टेसूएं
चलित्तर को भलीभांति पता था कि धन का लालची व्यक्ति, चाहे वह स्त्री हो या पुरुष, निकट संबंधों की मर्यादा को तार-तार कर देता है. तभी उसने धन को इकट्ठा करने की जुगाड़ में अपनी जिंदगी को दाव पर नहीं लगाया. झाड़ू-पोछे से जो भी कमाता उसमें से एक हिस्सा, गुपचुप तरीके से, किसी होनहार बच्चों के भविष्य के लिए हाइराइज बिल्डिंग वाले सोसाइटी के बाहर की झुग्गी-बस्तियों में दान कर देता था. दूसरा हिस्से का कुछ भाग वह दैनिक उपभोग की वस्तुओं को खरीदने में खर्च करता और कुछ भाग किसी सज्जन व्यक्ति के आवभगत में खर्च कर देता. चलित्तर को भलीभांति पता था कि धन का लालची व्यक्ति, चाहे वह स्त्री हो या पुरुष, निकट संबंधों की मर्यादा को तार-तार कर देता है. तभी उसने धन को इकट्ठा करने की जुगाड़ में अपनी जिंदगी को दाव पर नहीं लगाया. झाड़ू-पोछे से जो भी कमाता उसमें से एक हिस्सा, गुपचुप तरीके से, किसी होनहार बच्चों के भविष्य के लिए हाइराइज बिल्डिंग वाले सोसाइटी के बाहर की झुग्गी-बस्तियों में दान कर देता था. दूसरा हिस्से का कुछ भाग वह दैनिक उपभोग की वस्तुओं को खरीदने में खर्च करता और कुछ भाग किसी सज्जन व्यक्ति के आवभगत में खर्च कर देता.
वसुधा सदैव अपने कर्म की इनायत पर पलती थी. अपने कर्म की इनायत पर पलने वाले इंसान में कुछ अलग तरह की ताकत होती है. वह इस दुनिया में दूसरों के भरोसे कभी नहीं रहता है. किसी के द्वारा दगाबाजी किए जाने के बावजूद वह अपनी राह से कभी नहीं भटकता है. अपनी निर्धारित यात्रा पूरी करने से भी वह नहीं चूकता है. विपरीत परिस्थिति में भी वह अपने विचारों की गरिमा को नहीं खोने देता है.
इस संसार में कोई भी प्राणी निःस्पृह नहीं है. फिर भी, कर्म की पूजा करने वाला इंसान सांसारिक लोभ, स्पृहा से दूर रहकर निःस्पृह बने रहने की कोशिश करता है. अपने किसी बुरे हालात के होने की शिकायत वह नहीं करता है. किसी चीज के बहुत कम या ज्यादा होने की शिकायत भी वह नहीं करता है. वह अक्सर चुनौतीपूर्ण हालात से गुजरता है लेकिन मुख से उफ्फ तक नहीं करता है. वह प्राकृतिक पर्यावरण से अपना घनिष्ठ संबंध बनाता है और लोगों द्वारा नजरंदाज किए जाने की दशा में प्रकृति के बीच खोने की कोशिश करता है.
केवल कर्म पर भरोसा करने वाला इंसान कई लोगों की धोखेबाजी का सामना करते हुए भी सबको गॉड-टुर की शुभकामना प्रदान करता है. अपनी भाषा और संस्कृति से वह कभी विचलित नहीं होता है. दूसरों में कमी ढूंढने से पहले वह अपने गिरेबां में झांकता है. किसी और के विषय में बुरा सोचने की फुर्सत उसके पास नहीं होती है. आम और खास दोनों लोगों का वह हितैषी होता है, तभी उसके कर्म से इस दुनिया में कभी-न-कभी खूबसूरत परिदृश्य बन ही जाते हैं. दूसरों में कमियां ढूंढने वाले कन्फ्यूज्ड लोगों से वह दूर रहने की हर संभव कोशिश करता है. प्रत्येक दशा में विनम्र अभिव्यक्ति वह जरूर करता है, लेकिन अच्छे लोगों की सुरक्षा और भलाई के लिए अपनी ताकत का इस्तेमाल करने से भी वह पीछे नहीं हटता है. जिस परिवार, समाज और देश में वह जन्म लेता है उसके प्रति दगाबाजी करने की वह कभी सोच भी नहीं सकता है. वह अपने कर्म-संदेश से लोगों और उनके प्राकृतिक परिवेश के बीच मजबूत संबंध बनाता है.
अच्छे काम से मतलब रखने वाला इंसान आलसी लोगों को दुत्कारता और फटकारता जरूर है लेकिन वह उसके प्रति हमेशा अच्छाई की भावना रखता है. ऐसा इसलिए कि भविष्य में आलसी लोगों की जिंदगी संभल जाए. अगर उसकी डांट-फटकार से आलसी लोग नहीं सुधरते हैं तो वह अपना हितकारी संदेश उसे सुनाना बंद कर देता है. वह किसी की नाकामियों को दूर जरूर करता है लेकिन उसकी नाकामियों के कुचक्र में वह नहीं फंसता है. वह नाकाम एवं निकम्मे लोगों से दूर रहता है, क्योंकि वह भलीभांति जानता है कि नाकाम एवं निकम्मे लोग नकारात्मक ऊर्जा के स्रोत हैं.
अच्छे कार्य और अच्छी बात से मतलब रखने वाले इंसान, स्वस्थ विचारों की आशा में, सभ्य लोगों को खूब प्रोत्साहन और समर्थन देते हैं. उसकी सोच देश और समाज की समृद्ध सांस्कृतिक विरासत होती है. वह अपने कार्य का ढिंढोरा नहीं पीटता है. लोकहित का कार्य वह हमेशा चुपचाप करता है, तभी वह इस संसार के लिए वह सकारात्मक ऊर्जा का एक सुंदर अनुस्मारक होता है. उसके वृद्ध या भुलक्कड़ हो जाने के बावजूद बेख़याली उसे छूती तक नहीं है. वसुधा भी ऐसी ही थी कि उसे अच्छाई के अलावा अन्य किसी चीज से इस दुनिया में मतलब ही नहीं था.
जीवन और मृत्यु के क्षण में, जीवित रहने के अलावा कुछ भी मायने नहीं रखता है. वसुधा का दिल उसकी छाती में धड़क रहा था, जब वह अपने जन्म के समय से ही सहजतापूर्ण जीवन को सादगी से जीने की लड़ाई को बहुत करीब से देख रही थी.
जिंदगी की अंतिम घड़ी में वसुधा दार्शनिक किंतु सच बातें चलित्तर को बताती है, “जो इंसान सच को कानी कौड़ी के बराबर भी इज्जत नहीं करता, उससे यह अपेक्षा नहीं की जा सकती कि वह भला आदमी ही होगा. जो भला आदमी होता वह दुनिया को यह कभी नहीं बताता है कि वह ही अच्छा-भला इंसान है. वह तो सदैव स्वयं को कष्ट में डालकर दूसरों के लिए नई राह निर्मित करता है.” जीवन की अंतिम घड़ी में वह चलित्तर को मनीषी बताती है. वह चलित्तर से कहती है, “जिन्हें तनिक भी लोभ-मोह, लिप्सा नहीं है वे ही मनीषी हैं. सांसारिक धन-दौलत में अविश्वास तो कोई मनीषी ही कर सकता है. मनीषी को छोड़कर दौलत में अविश्वास दूसरों से संभव नहीं है. पंक अर्थात् निम्न वर्ग, निम्न स्थान, निम्न समाज आदि में जन्म लेकर भी मनीषी सदैव खिले-खिले रहते हैं. पास में कुछ भी दिखावटी दौलत न होते हुए भी संसार की उन्नति के लिए बहुत कुछ छोड़ जाते है. तभी वे पंकज अर्थात कमल कहलाते हैं. वे सामाजिक व्यवस्थाओं एवं व्यवहारों के निर्माण का पुनर्नवा भी कहलाते हैं. मेरे चलित्तर! आप भी तो पंकज हैं. पुनर्नवा हैं.” इसके बाद वहां जमा हुए गिरिजा, अरबिंद बाबू और चलित्तर को देखकर वसुधा कहती है– “आपलोग अपने-अपने सपनों और इच्छाओं को दबाकर समाज की अपेक्षाओं पर खड़े उतरने का प्रयास कतई नहीं कीजिएगा. अन्यथा आपलोग दुनिया के बनाए बेफिजूल ढांचे में फंस कर रह जाइएगा.”
जीवन का अंतिम पल मनुष्य के जीवन और उसके दर्शन के सिद्धांतों की व्याख्या के लिए होता है. वसुधा धरती भी थी तो सूर्य भी थी. सूर्य किसी का बुरा नहीं सोचता, वह सबको एक समान प्रकाश देता है. वह अंदर ही अंदर धधकता है (नाभिकीय संलयन की स्थिति जैसी) तभी वह नित ऊर्जावान रहता है. और, दुनिया को प्रकाश दे पाता है. दु:ख-दर्द झेलनेवाले सच्चे नर ऐसी स्थिति के पोषक होते हैं. वसुधा भी बिल्कुल सूर्य के समान थी. तभी वह जीवन-दर्शन की सहज व्याख्या करते हुए नित्य सूर्य-सा धधकने वाले अपने पति चलित्तर से कहती है, “समाज में फैले अंधविश्वास को दूर करना, मेहनतकश लोगों की दुर्दशा को ठीक करना, कृत्रिम बुद्धिमता वाले युग में जी रहे आधुनिक समाज की मूल्यहीनता को बड़ी सहजता से दुनिया को बताना, कई प्रकार के शोषण के कुचक्र में फंसी हुई जनता के हृदय में शोषण के विरुद्ध आवाज उठाने की हवा भरना, सामाजिक यथार्थ के परिप्रेक्ष्य में जनता की मनोवृत्तियों का चित्रण करना, और अपनी जिंदगी की मार्मिक कथाओं के माध्यम से यकीनन जग-जीवन को झकझोर कर रख देना ही मेरे जीवन का असली ध्येय था. मेरे जीवनसाथी! इसे मैंने यथासंभव कर दिया है. यकीनन अब मैं खुशी-खुशी अनंत की ओर प्रस्थान कर सकूंगी.”
कुछ देर रूक कर वसुधा पुनः बोली, अगर इस दुनिया में कुछ अच्छा करना चाहते हैं तो किसी से साथ देने की अपेक्षा कतई न करें. अकेला चलने की हिम्मत रखें, साथ ही धैर्य भी बनाएं रखें. किसी बड़े पहुंच वाले आदमी का साथ पाने की अपेक्षा तो भूलकर भी न करें. कठिनाई रूपी परीक्षाओं को पास करने के बाद सफलता खुद वो खुद आपके कदम चूमेगी.
ऐसा सुनते ही चलित्तर कहता है, “ओ वसुधे! इस समय तो दार्शनिक बातें मत कीजिए. आप मेरे मन की महारानी हैं और मेरे मन की महारानी बनकर रहिए. कम से कम मेरे लिए तो अपनी जिंदगी की खींचातानी से बेफिक्र होइए.”
“जिंदगी में खूब खींचातानी रहती है. क्योंकि इसके साथ में सन्नद्ध सोच की शैतानी रहती है. इसकी गाथाओं की गुत्थमगुत्थियों में प्राण नहीं है. इसकी कशमकश की रोमांचक दास्तान कहना आसान नहीं है. फिर भी, सबकी जिंदगी की गाथाएं लिखती जा रही हैं. और, उन गाथा-चिह्नों की रेख चीखती जा रही है. लेकिन, क्या यह श्रम-दीवार पर उकेरित की जा सकती है? क्या कर्म-दीवार पर फेरित की जा सकती है? क्या यह जीवन के प्रतीकों या बिंबों में मौजूद है? क्या इसका वैज्ञानिक स्रोतों में वजनदार वजूद है? क्या यह मिथकों में सन्नद्ध होती है? क्या यह तारीख़ों में बद्ध होती है? क्या यह आवेग में होती है? क्या यह अन्वेषण-लेग में होती है? क्या यह दर्शन की गुत्थियों में होती है? क्या यह रुपयों के गड्डियों की नत्थियों में होती है? क्या यह खुशियों के तरंगी व्यवहार में होती है? क्या यह दुखों के सतरंगी तार में होती है? क्या यह हमारी सोच की अँधेरी और रहस्यमय कंदराओं में होती है? क्या यह पल भर के लिए झलकती बुशराओं में होती है? क्या यह किसी पेड़ की टहनी पर खिले फूलों में होती है? क्या यह सुप्त छिपी वसूलों में होती है? क्या वक्त की तलछटी करवटों में होती है? क्या यह हर क्षण की तलहटीदार सलवटों में होती है? क्या यह हिमशिखर पर उग आए किरीट-शूलों में साजती है? क्या यह भीड़तंत्र के बारातघर के संश्लिष्ट सेहरों में घुस-घुस के भोंपूदार बाजती है? क्या यह झरमुटी चेहरों पर नक़ाब बनकर शोभती है? क्या यह अक्सों के भँवर को लोभती है? क्या यह आग की लपट में होती है? क्या यह मौक़े-बेमौक़ेदार कपट में होती है? हाय… हाय! इसके सौंदर्यशास्त्र को जो पढ़ लिया वह दुनिया में खो गया. और जो इसके अर्थशास्त्र को जो पढ़ लिया वह दुनिया का हो गया. मैंने जिंदगी के सौंदर्यशास्त्र को पढ़ा है. अतः, दुनिया से विदा होते समय मुझे कोई ग़म नहीं है, ओ मेरे जीवनसाथी!” अपने पति चलित्तर से यह कहकर वसुधा, जो धरती के समान सहनशील थी, अंतिम सांस लवसुधा के अंतिम सांस लेते वक्त चलित्तर की आंखों से अश्रु की धार निकल पड़े. वह बोल पड़ा, “ओ वसुधे! तुम सूर्य से उत्सर्जित प्रकाश की भांति थी. सूर्य से निःसृत किरणों से सीधे प्रकाश आता है और उससे पूरी दुनिया में उजाला फैल जाता है. उसी प्रकाश की तरह तुम भी थी. वह प्रकाश कभी मंद नहीं पड़ेगा. तुम इस दुनिया में उस धधकती आग की तरह प्रज्ज्वलित थी जिसमें धूपबत्तियों की सी सुगंधियां निकलती थीं. उन सुगंधियों से मेरे जीवन का वातावरण शुद्ध हो जाता था. तुम्हारी दिव्यता के दृश्य किरणों के अंश मेरे जीवन में विकिर्णित है. उसके अदृश्य नीललोहित किरणों के अंश दुनिया से टकरा-टकरा के लोक-जीवन में प्रकीर्णित है. उसी प्रकीर्णन से तो हम दोनों के जीवन की धूप खिली-खिली थी. अनंत विलीन वसुधे! अब तो मैं अकेला पड़ जाऊंगा.” यह कहकर वह वसुधा के निष्प्राण शरीर से लिपट लिपट कर रोने लगा.
गिरिजा बोली, “ओ अनंत विलीन वसुधे! मैं तेरे स्नेह की विद्युल्लता से अपने अपार अलौकिक सौंदर्य की कली-दल को खोलती थी. तेरे स्नेहमयी स्वर-मधुरिमा को सदैव अपने कानों में अनुगूंजित करती. मेरे प्रति तेरे अपूर्व आनंद का प्रवाह मेरे अंगों को अपादमस्तक नहला जाता था. हाय! अब तो मेरी स्नेहमयी स्वर-मधुरिमा ही छीन गई.”
गिरिजा के पति अरबिंद बाबू बोले, “ओ अनंत में विलीन प्यारी बहना! तेरी चुलबुलाहट की गुदगुदी से मेरे तमाम अंग खिल उठते थे. तेरी हंसी सौंदर्योज्ज्वल पारिजात की तरह होती थी, जो मेरे मन में खिली खिली सी ज्योत्सना दे जाती थी. हाय! अब उस ज्योत्सना का स्रोत ही नहीं रहा तो अपनी सिद्धि-प्राप्ति की कलुषित कामना को मैं कैसे संजोऊचलित्तर बोला, “ओ अनंत में विलीन वसुधे! अब तो मेरी अतुल नैसर्गिक कल्पना का आलोक मद्धिम पर जाएगा. अब तो मेरा संसार मृग-मरीचिका के ज्योति-चित्र की तरह हो जाएगा, जिसमें डंपिंग संपिंग होगा लेकिन बंपिंग नहीं होगा. तेरे संग में रहते हुए मैं तो सपनों के किरण-तंतुओं का जाल बुनता था. वह जाल ही जीर्णशीर्ण हो गया और मेरी आकांक्षा त्वरित ढंग से कौंध गई यथा बिजली कौंधती है.”
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चलित्तर अपने हर हरक्यूलियन टास्क को पूरा करता था. देवू भी अपने हरक्यूलियन फिट के सहारे अपनी राह में आगे बढ़ा जिसके कारण दर्शना का अटूट प्रेम उसे मिला.
“जिंदगी की राहों में खुशियाँ छुपी हुई हैं. जरूरत है बस सही से अपनी नजरें खोलने की. सचमुच सही से नजरें खोलकर देखें तो उन खुशियों का मिलना तय है. जिंदगी के हरेक पल में एक नई उमंग है, हरेक सांस में एक नई खुशी का संग है. हम अपने हर पल को खुशियों से भर दें अगर हम जिंदगी को पूर्ण परिश्रम के साथ प्यार से जियें.” दर्शना अपने जीवनसाथी देवू से कहते हुए अपने मार्ग में आगे बढ़ते जा रही थी.
दर्शना के अनंत यौवन का सौंदर्य एवं प्रेम पाने के लिए देवू क्षण भर को रुक गया. वह दर्शना की ज्योर्तिमयी रंग-बिरंगी आभा को गौर से निहार रहा था. दर्शना के माथे पर सिंदूर की लंबी लकीरें ऐसी थीं कि मानों इंद्रधनुषी नील नभ में फलित फुहार हों. मुखमंडल पर शोभित उसकी टिकुली (माथे की बिंदी) नील गगन में अवस्थित सूर्य की रोशनी की सी थी. कानों में अवस्थित उसकी दोनों बालियां नीले आकाश में झूलती फुहारों की झालरें सी प्रतीत हो रही थीं.
दुनिया में भला ऐसा कौन नर होगा जिसकी आँखें सौंदर्य की नवनीत ज्योति की ओर न निहारे, सौंदर्य को देखने के लिए जिसके कदम कुछ पल के लिए न रुके, सौंदर्य के मजे की ओर जिसके कोमल कर इंगीकरण न करे. पौरस्कारिक सौंदर्य पाने के लिए जिसके ललाट लालायित न हो.
वैसे भी, इस धरती पर हर आदमी का कदम टपोरी होता है, क्योंकि वह फाकामस्त कभी होना नहीं चाहता, और न ही वह किसी की फाकेमस्ती से प्रभावित होना चाहता है. कुछ आदमी ने तो अपने कदम को इस धरती पर सबसे बड़ा लुच्चा-लफंगा बना दिया है, तभी उसका कदम हर तरफ कोमल धरती पर आसीन होना चाहता है. उसके कदम कांटों से भरी राहों में आगे बढ़ना तक नहीं चाहते. आदमी की देह भी बड़ी सयानी और तेज तर्रार होती है, क्योंकि वह सिर्फ स्वच्छ गद्देदार शय्या चाहती है. आदमियों के हाथ भी बड़े शातिर होते हैं. हाथ कभी भी खुरदरे होकर टटाना पसंद नहीं करता. हाथ हमेशा कोमल रहकर ही हाथ गरम करने वाले आगंतुक की ओर कुतूहल भरी दृष्टि डालकर देखता रहता है. आदमी का कंधा भी बड़ा शैतान होता है, वह मरे हुए को कंधा देना चाहता है लेकिन असली स्वच्छ जिंदगी की चाह वाले की मिट्टी पलीद करने में कोई कोर कसर नहीं छोड़ता. आदमियों का मन भी बड़ा भ्रमित करने वाला होता है. वह सामने वाले में विषाद देखना चाहता है लेकिन खुद हर्ष में रहना चाहता है. आदमियों का मुख भी बड़ा सयाना होता है, वह पहली ही फूंक की मार से कमजोर धूल को उड़ा देना चाहता है. वह चारों ओर नाचती हुई धुलिकाएं के सौरभ को मजे से निगल लेता है, किंतु बदबू की तीखी लहरों में गलती से भी उछाल लेना नहीं चाहता.
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हरक्यूलियन टास्क के धनी चलित्तर अड़तीस की आयु पार कर चुका था जब वह पुस्तक लेखन-क्षेत्र में अपने आपको पुनर्स्थापित किया. पेट की खातिर उसने खेलने कूदने की उम्र में मजदूरी किया. बच्चों को ट्यूशन दे-दे कर तथा रात के अंधेरे में रिक्शा चला-चला कर कुछ पैसे कमाते हुए उसने स्नातक आनर्स तक की अपनी पढ़ाई पूरी की. स्नातक के अंतिम वर्ष में उसे बैंक में क्लेरिकल पोस्ट पर नौकरी भी लगी. उसने दो दो बैंकिंग सर्विसेज रिक्रूटमेंट बोर्ड में इंटरव्यू दिया और दोनों जगह टॉप टेन में जगह भी बनाया. उसने नौकरी तो किया लेकिन उसकी सेहत ने उसके साथ दगा दे दिया था. वह अपनी सेहत की खातिर तथा कुछ बढ़िया करने की चाहत में, एक के बाद एक, दोनों जगह से इस्तीफा दे दिया. फिर दिल्ली में क्लेरिकल पोस्ट पर सरकारी सेवा किया. उस सेवा से उसे अपना और अपनी मां का देखभाल करने में काफी कठिनाई होती थी. महीने के पंद्रह तारीख तक उसके वेतन के पैसे खत्म हो जाते थे. आर्थिक तंगी को दूर करने के लिए वह अहले सुबह भोर में उठता. फिर शहर के हाइराइज बिल्डिंग वाले सोसाइटी में जाकर वह झाड़ू-पोछा किया करता. उससे उसे कुछ पैसे मिल जाते थे. वह इस मंत्र को रट्टा लगा लिया था कि मेहनत से ही जिंदगी की हर जंग जीती जा सकती है, मेहनत से बड़ी कोई बटोर नहीं है. मेहनत का कोई तोड़ नहीं है. मेहनत की बदौलत उसने इस दुनिया में जीने के लिए बहुत कुछ सीखा. मेहनत की बदौलत ही उसने तंगहाल जनता को आगे बढ़ाने के लिए बहुत कुछ लिखा. संसार में टिकने के लिए छोटे-मोटे कामों से तौबा करने की अपेक्षा उसमें मन लगाकर मेहनत करना उसके जीवन का मूलमंत्र बन चुका था.
उन्नीस वर्ष की अवस्था में, अपनी पढ़ाई के दौरान, वह लेखकीय तौर पर पहली बार कुछ लिखा था. उसने यह लिखा था कि संसार में ‘प्रेम का बंधन’ बड़ा ही दुर्लभ है. ‘प्रणय का बंधन’ तो उससे भी दुर्लभ है. इस बात से भी वह भलीभांति वाकिफ था कि किसी व्यक्ति द्वारा प्रेम-सूत्र में बंधे बिना प्रणय-सूत्र में नहीं बंधा जा सकता. तभी वह प्रणय और प्रेम का अंतर करते हुए उन्नीस वर्ष की आयु में पहली बार कविता की शैली में लिखा था कि “कुछ बाप अपने बेटे का मडरगस्त व्यापारी हुआ करते हैं, लेकिन बेटियों के बाप तिल-तिल कर मरते हैं. बेटियों के बाप आहें भरते हैं, लेकिन बेटों के बाप उससे अखरते हैं. कुछ बाप अपने बेटे की शादी के समय किसी कन्या के पिता से दहेज मांगने से नहीं चूकते हैं. और, दान-दहेज कम मिलने पर बेटियों के दरवाजे पर थूकते हैं.”
समाज में सच्चा प्रेम धारण करने से हृदय में प्रणय करोड़ों गुणा हो जाता है. देश और समाज से सच्चा प्रेम करने वाले न तो कभी अपनी उन्नति के लिए सोचते हैं और न ही कभी एक ही व्यक्ति के उत्थान के लिए सोचते हैं. संपूर्ण मानव समाज के लिए सोचने वाले अपने हृदय में प्रणय का फूल पनपाते हैं. ताकि किसी एक व्यक्ति की भलाई के लिए नहीं, बल्कि पूरी दुनिया की भलाई के लिए सोचा जा सके. इन सब बातों से भी चलित्तर भली प्रकार से वाकिफ था.
खेतों में काम करते हुए एकदिन चलित्तर अपने आपसे कहता है, “किसी के कुह-ए-रहमत (दया के पहाड़) तले रहने की आदत मुझे नहीं है. अंदर से हृदय को मलीन रखकर बाहर से सआदत (सच्चाई) दिखाने की आदत मुझे नहीं है. अपने अच्छे कार्यों का ढिंढोरा पीटकर जन्नत में जाने की चाह भी मुझमें नहीं है. धरती पर किसी भी प्रकार से अंधेरगर्दी मचाने की राह भी मुझमें नहीं है. मैं जो भी हूँ, जैसा भी हूँ, ठीक हूँ. इस दुनिया में अच्छाई बाँटने वालों में निर्भीक हूँ.” ऐसा सोचते-सोचते वह गुनगुनाने लगता है—
“हँसा भी जाता है आदमी
रुला भी जाता है आदमी
बुरे वक्त में साथ छोड़केदूर चला जाता है आदमी
तोड़ जाता है आदमीमरोड़ जाता है आदमी
अंध कूप में धकेलके
छोड़ जाता है आदमीकई रूप-रंग आदमी के
कलंक अदंग आदमी के
गर गजब देखना हो तो
देखिए कुसंग आदमी के
आदमी रोज रोज बदल रहा
आदमी आदमी से जल रहा
कई तरह के रूप धर-धरके
जग की सच्चाई निगल रहा
आदमी ही तूल जाता है
आदमी गुल खिलाता है
आदमियत खो-खो कर
सब कुछ भूल जाता है ”
आदमी के चाल-चरित्र के ऊपर गुनगुनाते-गुनगुनाते चलित्तर की आँखों से आंसू छलक आते हैं. आंसू छलके भी क्यों नहीं! व्यक्ति की आंसूएँ ही तो श्रम की कीमत समझती हैं.
बचपन में चलित्तर अल्हड़ जरूर था लेकिन कामचोर तो कतई नहीं था. मेहनत और परिश्रम को वह ईश्वर की भांति पूजता था. जब पंद्रह वर्ष का रहा होगा तो उसने अपना जन्म-स्थान छोड़ दिया था. वह भी पेट पालने की खातिर. पेट ही आदमी से सारे उल्टा-सीधा करवाता है. फिर भी, पेट हमेशा शूद्र का शूद्र ही रहता है. जन्म-स्थान छोड़कर भी वह अपने जन्म-स्थान जाने का रास्ता भूला नहीं था.
शहर के हाइराइज बिल्डिंग सोसाइटी के लोग उससे झाड़ू-पोछा करवाते थे, लेकिन उसे बिल्कुल अपढ़ तो नहीं समझते थे. सोसाइटी में बड़े-बड़े लोग थे. लेकिन सब लोग एक-दूसरे के लिए अजनबी थे. वैसे भी अजनबियों के आसपास अनजान लोग आते हैं और कुछ-न-कुछ अनोखा कारनामा करके चले जाते हैं. पर, जाने-पहचाने लोग उसे भौंचक देखते रह जाते हैं.
कई लोग सुकर्म छोड़ कर केवल अपनी जफील बजाते हैं. दूसरे की नाक को काट कर अपनी नाक में कील सजाते हैं. कुछ लोग अपनी सीटी बजा-बजा कर दूसरे के सीटी की आवाज को दबा देते हैं. धन या कुछ अन्य चीजें पाने की लालसा में उन्हें नाकों चने चबबा देते हैं. लालची में लालच की कोई सीमा नहीं है. उनमें दोगलापन युक्त निर्णय भी धीमा नहीं है. लालच और दोगलेपन के कारण कई लोग अपनेपन की मर्यादा को तार-तार कर देते हैं. कुछ लोग तो अपने जान-पहचान वालों की तरक्की को भी दुश्वार कर देते हैं. कई लोग घटिया लालसा पाल कर दूसरे की राह में अड़ंगा डाल देते हैं. और, ऐसे ही लोग किसी की सिद्धि-प्राप्ति में पंगा डाल देते हैं. धीरे-धीरे ये सारी बातें चलित्तर को अपने अनुभव के आधार पर ज्ञात हो गया था.
चलित्तर को भलीभांति पता था कि धन का लालची व्यक्ति, चाहे वह स्त्री हो या पुरुष, निकट संबंधों की मर्यादा को तार-तार कर देता है. तभी उसने धन को इकट्ठा करने की जुगाड़ में अपनी जिंदगी को दाव पर नहीं लगाया. झाड़ू-पोछे से जो भी कमाता उसमें से एक हिस्सा, गुपचुप तरीके से, किसी होनहार बच्चों के भविष्य के लिए हाइराइज बिल्डिंग वाले सोसाइटी के बाहर की झुग्गी-बस्तियों में दान कर देता था. दूसरा हिस्से का कुछ भाग वह दैनिक उपभोग की वस्तुओं को खरीदने में खर्च करता और कुछ भाग किसी सज्जन व्यक्ति के आवभगत में खर्च कर देता.
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कोई जरूरी नहीं कि इस धरती पर हर कामयाब इंसान काबिल ही हो. कामयाब होना और काबिल होना दोनों में बहुत अंतर है. कई लोग तो कामयाब होने के बावजूद काबिल या योग्य नहीं होते. काबिल इंसान कभी यह नहीं चाहता है कि वह हर मोर्चे पर कामयाब ही हो. काबिल आदमी कभी यह भी नहीं अपेक्षा करता कि कोई उसकी काबिलियत की तारीफ करे. काबिल इंसान तो गुमनामी में ही अपनी जिंदगी गुजारते हुए अपने त्याग परक कार्यों से प्रीत करता है. और, गजब के कार्यों से अपने देश और समाज का हित करता है. उसे न तो फिक्र रहती है अपनी जाति-बिरादरी की. और, न ही फिक्र रहती है उसके तारीफों के पुल बांधने वाले पादरी की. अपनी कठिनाइयों में भी वह काबिल इंसान बनकर जीता था. वैसे इंसान के लिए किसी प्रकार की कामयाबी कतई कोई मायने नहीं रखती जो अपने जीवन में कई समस्यायों से घिरकर भी काबिल बनकर जीना सीख लिया हो. कामयाब इंसान और काबिल इंसान में फर्क है. फर्क यह है कि काबिल इंसान को हमेशा से यह दुनिया नकारती आई है. जबकि कामयाब इंसान के पीछे पूरी दुनिया दीवानी रहती है. ऐसा क्यों!? ऐसा इसलिए कि कामयाब इंसान से उन्हें भौतिक चीजों की चाहत होती है.
संसार के धोखे और धोखेबाजों के बीच पलने वाला चलित्तर काबिल तो था किंतु कामयाब नहीं. भले ही वह अपने गांव में और हाइराइज सोसायटी वालों में कामयाब इंसान नहीं था. किंतु अपनी जमीर से काबिल इंसान वह जरूर था. किसी व्यक्ति और समाज की गुटबाजी से कोसों दूर था, इसलिए उसे हमेशा छोटे-बड़े सभी लोगों से केवल नजरअंदाजियां और अवहेलनाएं ही मिलतीं. वह जाति-बिरादरी के गुटबाजी से भी कोसों दूर था, अतः उसके जात के लोग भी उसे दुत्कारते रहते. उसकी जाति वाले दबे जुबां चोरी-छिपे कहते फिरते– “पता नहीं! यह धरती का बोझ है, मरेगा कब. यमराज इसका प्राण हरेगा कब.” बचपन में चलित्तर को खेती और घर गृहस्थी में मन कुछ ज्यादा लगता था.
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यह चलित्तर के बचपन की बात है कि वह गांव के खेतों में चलित्तर एकदिन भौंडी शैली का चेहरा बनाकर घूम रहा था. ओठों को बिन बिचकाए ही वह कुदाल चलाए जा रहा था. उसी समय लिच्छवी गणराज्य के वैशाली शहर से चार मील दूर उसके पड़ोसी श्रमिक भाई रघुवीर उधर से गुजरा. मुंह के अंदर-बाहर जीभ चिट-पिट करते हुए और कंगूरेदार भौहों को घुमाते हुए सहसा वह चलित्तर से कहने लगा– “चलित्तर भैया! बदलती हुई दुनिया के बदलती हुई जरूरतों को पूरा करने के लिए समय का पाबंद होना पड़ता है. हर अच्छा से अच्छा काम को वक्त पर ही करना पड़ता है. और हां, वक्त पर हर अच्छा करने के लिए हमें वक्त के साथ बदलना भी पड़ता ह“सही बात है. लेकिन ऐसे काबिल इंसान बिरले ही हैं. यदि हैं भी उन्हें कोई साथ देनेवाला नहीं.” ऐसा कहते हुए चलित्तर अपना सिर हिलाया. सिर हिलाकर ही वह रघुवीर की बातों पर हां में हां मिलाया. कुछ देर रूक कर वह रघुवीर से कहा– “सुनो, रघुवीर भाई! वर्तमान दुनिया के बदलते हुए स्वरूप पर नजर गड़ाते हुए चलने वाला इंसान ही अक्सर दुनिया की झोलियों में खुशियां भर पाता है. अब तुम देखो ना, मेरे पड़ोसी अरबिंद बाबू नोएडा में सिविल सर्वेंट के रूप में पदस्थापित हो गए हैं, और लगता है कि वे देश और समाज के लोगों की झोलियों में खुशियाँ भर देंगे.“हां, तुम्हारी बातों में दम तो है”, रघुवीर ने भी चलित्तर की बातों पर हां में हां मिलाया.
“और….. हां, रघुवीर भाई! समय की मौन महत्ता को पहचान लेने वाला इंसान दुनिया को रुलाने की कोशिश कभी नहीं करता बल्कि विभिन्न खतरों से लड़-झगड़कर सबको हंसाने की कोशिश करता है.“हां, तेरी बात में बिलकुल दम है. किंतु ये बताओ कि बिना खास बने हुए क्या तुम किसी इंसान को कभी हंसा भी सकते हो? सृष्टि की शुरुआत से मदद पानेवाला, मदद लेनेवाला इंसान ही जीवन भर हंस और मुस्का पाता है.”
“भाई, मैं मामूली आदमी हूं. और सदैव मामूली इंसान बनकर रहना ही पसंद करूंगा.”
“मैं जानता हूं कि तुम भले ही तपस्वी नहीं हो, किंतु सत्यवादी और धार्मिक प्रवृत्ति के इंसान जरूर हो. अतः तुम थोड़ा सा प्रयास करो. तुम लोगों की भीड़ को जुटाओ और अपना नाम कमाओ.रघुवीर की बातों ने चलित्तर को अंदर तक झकझोर दिया. वह रघुवीर से कविता के लहजे में बोला—
“न ही मैं धर्मिष्ठ हूं,
न हूं तपस्वी सत्यवादी;
जग के झूठों के,
हूं पोल खोलने का आदी.
बच्चों की तरह हृदय,
रखने का है प्रयास;
झूठी शान रखकर,
नहीं बनना कुछ खास.
बातें भले ही असभ्य,
पर नहीं असभ्य है आन;
महिला-मर्यादा रक्षण को,
देना चाहता हूं प्राण.”
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चलित्तर और रघुवीर की बातचीत जारी ही थी कि वहां दर्शना और देवू का आगमन हुआ. दर्शना और देवू गांव से शहर में जाकर बसे एक निम्न वर्गीय अधिकारी रामबिलास के बहू और बेटे थे. दर्शना गुजराती थी जबकि देवू बिहार के सारण जिले के ग्रामीण इलाकों से था. शादी के बाद दोनों के बीच उत्पन्न हुई खटपट को दूर करने के लिए ही उन्हें गांव में घूमने हेतु भेजा गया था. देवू गुजरात में रहकर पढ़ाई किया था और वहीं के एक यूनिवर्सिटी से उसने एयरोस्पेस इंजीनियरिंग में मास्टरर्स डिग्री लिया था. पढ़ाई के दौरान ही उसे दर्शना से आंखें चार हुई थीं. दर्शना उस यूनिवर्सिटी के संस्थापक सदस्य, मांवरलाल, की बेटी थी और उम्र में देवू से लगभग दस वर्ष बड़ी थी. मांवरलाल नामी-गिरामी बिजनेसमैन थ“सतत बे वर्ष तारी साथे चालीने हुँ खूब थाकी गयो छुँ. हवे मने मुक्त करो. मारे मारी रीते जिववुँ छे, देवू!” दर्शना देवू से बोली.
“मतलब? मैं कुछ समझा नहीं” देवू बोला.
“लगातार दो वर्षों से तेरे साथ चलते-चलते मैं काफी थक चुकी हूं. अब तो मुझे आजाद कर दो. मुझे अपने तरीके से जीना है, देवू!”
“मतलब तुम शादी के बंधन से आजाद होना चाहती हो.”
“हां.”
“देखो, दर्शना! शादी के पहले भी तुम आजाद थी और शादी के बाद भी तुम आजाद हो. तुम जहां चाहो वहां आ-जा सकती हो.”
“तुम दो-तीन घंटे जो अपने चंगुल में जकड़ते हो, उससे भी मैं आजाद होना चाहती हूं. क्या तुझे यह मान्य है?”“दर्शना! क्या तुम आजादी का मतलब समझती हो? मेरे विचार से शायद नहीं!!”
“देवू! मैं आजादी का मतलब भलीभांति समझती हूं. एक मर्द के पीछे पुराने ख़्यालातों में बंधकर रहना मेरे लिए अब संभव नहीं. वह भी आधुनिक बौद्धिक युग में. हाय! तुम जब मेरी देह को भंभोरते हो तो मैं ऊब जाती हूं.”“ओह्ह्ह्ह! अच्छा अच्छा, ये बात है!”
“आज ही चलो शहर में. गांव में तो मेरा कोई घर है नहीं. यहां सबको एक ही छत के नीचे गुजारा करना पड़ता है. मैं शहर के घर में दूसरे कमरे में सोऊंगा. तुम मां के साथ सोया करना. गारंटी है कि तुम्हारी इजाजत के बेगैर मैं तुझे छूऊंगा तक नहीं.”“देवू! तुम समझते नहीं. मैं तुझसे पूरी तरह संतुष्ट नहीं हो पाती हूं. मुझे तुझसे आजादी चाहिए. समझे कुछ कि नहीं.”
“क्या?”
“मुझे तुमसे तलाक चाहिए. क्या तुम तलाक के पेपर पर साइन कर दोगे?”
“दर्शना! इसके लिए मुझे तुझसे बहस करने की जरूरत नहीं है. मुझे अपने मां-बाप से चर्चा कर लेने दो. फिर, मैं तुझे तलाक के पेपर पर साइन करके दे दूंगा.”
“मुझे बीस लाख रुपये भी तुझे देने होंगे, जिसे मेरे मां-बाप ने शादी के समय खर्च किए थे.”
“किंतु मैंने तो किसी प्रकार के खर्च करने हेतु उन्हें मना किया था. लाखों खर्च करने का दिखावा तो उन्होंने ही किया था. मैंने उन्हें बैंड, बाजे, बारात आदि पर सिर्फ दिखावे के लिए अथाह खर्च को तो नहीं कहा था. मैंने कभी न तो तुझसे और न ही तेरे माता-पिता से एक फूटी कौड़ी तक नहीं मांगा था. मैं तो बचपन से ही दहेज और शादी में अनाप-शनाप खर्च किए जाने के विरुद्ध हूं. यह सब सुनाने से तो अच्छा है कि तुम मुझे जहर देकर मार दो.”“अरे! ओ मेरे देवू! गुस्सा क्यों होते हो? गुस्सा तो थूक दो.”
“दर्शना! तुम तो अब तक सारी की सारी बातें गुस्सा दिलाने वाली ही कर रही थी.”
“हटो. यहां खेतों-खलिहानों में मुझे दौड़ाते-दौड़ाते मेरी देह को रौंदना छोड़ दो. मैं तो तुम्हारे धैर्य की टेस्ट ले रही थी. चलो, घर चलो. नहा-धो लो. यह गांव है, यहां घर के देवता की भी पूजा कर लो. सूरज भगवान आकाश में काफी ऊपर उठ आए हैं. नहा-धोकर उन्हें जल भी चढ़ाना हदर्शना की बातों को सुनकर देवू एकदम खामोश हो गया है. वह यह सोचते हुए हक्का-बक्का सा रह कि दर्शना किस मिट्टी की बनी है. “अरे बाबा, क्या सोच रहे हो! चलो भी. मैं तेरे लिए आज गांव के मिट्टी के चूल्हे पर ही नाश्ता बनाऊंगी, ताकि तुम जल्दी नाश्ता करके अपने आपको तरोताजा महसूस करो.”
“नहीं…नहीं. यहां खेतों में तुम थोड़ी देर के लिए मेरे साथ रहो न. तुम आगे चलो. मैं चलित्तर काका से कुछ गुफ्तगू करके आता हूं.” दर्शना को यह कहकर देवू उसके पंजरे में जोर से चिकोटी काट लिया और उसकी कलाई को जकड़ लिया. ‘धत्’ कहकर दर्शना देवू के जकड़न से निकल गई. “हैं कैसी तेरी शोखियां, यह नहीं जानता; पर, तेरे तबस्सुम ने मेरा दिल लुट लिया.” यह कहते हुए वह खेतों की पगडंडियों पर धीरे-धीरे आगे बढ़ दर्शना को आगे बढ़ता देख देवू भी उसके पीछे हो लिया और उससे पूछा, “तुम्हारी सोच कैसी है? दकियानुसी सोच तो तुम्हारी कतई नहीं है.” “हमारी सोच कैसी है, यह सिर्फ हमें पता होता है. कोई भी दूसरा व्यक्ति यह कभी नहीं बता सकता कि हमारी सोच का रंग आधुनिक डायनामिक आर.जी.बी. (रेड ग्रीन ब्लू) है या पुरातन दकियानुसी आर.वाई.बी. (रेड येल्लो ब्लू) है.”दर्शना की बातों में सच्चाई थी. किंतु यह सच्चाई किसी आईने के पीछे वाला पेंटेड फलक थी न कि सामने वाला पार्ट जिससे सीधे तौर पर चेहरा साफ-साफ दिखाई दे. देवू दर्शना को दुनिया की सच्चाई से अवगत कराने के लहजे में कहता है– “कुछ लोग बिना अच्छा काम किए ही प्रसिद्ध हो जाते हैं. और वे येन-केन-प्रकारेन सिद्ध हो जाते हैं. क्योंकि उनके पास गाड़ी है, बंगला है, पैसा है, पहुंच-पैरवी है. और उनकी धमकी से डरके उनके पास रहतीं सदा दुर्जेय रागों की देवी भैरवी है.”
“हां, तो!? ये देखो, तुम तो इसी गांव में पैदा हुए हो. तो सुन लो. इनकी भी बातें.”
“किनकी बातें.”
“अरे बाबा, सुनो तो सही.”
“अरे हां, ये तो मेरे बचपन के मित्र पतित मानव की आवाज लग रही है. और दूसरी आवाज भाभी रिदीमा का है.”
“क्या पतित मानव आपके बचपन के मित्र हैं!?”
“हां दर्शना! चलो, खेतों की पगडंडियों से हटो और इनकी भी बात को जरा सुन लो.”
इसके बाद, दर्शना और देवू बड़े ध्यान से पतित मानव और रिदीमा की बातें सुनने लगे.“मैं बहुत देर से आपसे मिन्नतें करती जा रही हूं. लेकिन आप हैं कि यहां बेखौफ काम में लगे पड़े हैं. आपके कानों पर जूं तक नहीं रेंग रही.” मजदूर रिदीमा, जोकि पोस्टग्रेजुएट थी, ने अपने पति पतित मानव, जोकि ग्रेजुएट था, से ये बातें कही.
“तुम्हीं बताओ. जूं रेंगे भी तो कैसे!? यह दुनिया बड़ी मतलबी है. किसी की बुराइयों को दबाकर उसकी खूबियों को बखान करने की शक्ति आज शायद दुनिया में मौजूद किसी व्यक्ति में हो.” पतित मानव ने कहा. इसके बाद पतित मानव रिदीमा से प्रश्न कर देता है, “क्या आपको नहीं पता, कि इस दुनिया में सब के सब अपने आप से मतलब रखते हैं?”“हां-हां, क्यों नहीं! जानती हूं कि सब कोई अपने आप से मतलब रखता है. कलियुग है, जी! किसी के सामने प्रेम-प्रदर्शन के समय भी हर लम्हा सबके अंदर चोर छुपा रहता है.” रिदीमा कहती है.
“कौन-सा चोर?”
“वह चोर है- ‘कदम-कदम पर किसी को गुमराह करनेवाला चोर’.”
“हां, यह बात तो है. आज कोई आदमी किसी और के लिए छोटी-सी जहमत तक नहीं उठाना चाहता.”
“आखिर ऐसा क्यों?” पतित मानव पूछता है.
“आपके मुख से प्रश्न उठना लाजिमी है.” रिदीमा कहती है.
“आदमी के प्रश्न-प्रतिप्रश्न का सिलसिला दुनिया में तभी तक चलता है, जब तक उसमें जान है.” पतित मानव ने कहा.
“बात तो सही है.” रिदीमा पतित मानव की बात का समर्थन करती है. फिर उसके बाद वह उल्टे प्रश्न दाग देती है, “तो फिर आपके प्रेम वाली रस्म पर मुझे ऐतराज क्यों न हो?”
“वह तो मैं नहीं जानता. वह तो आप ही बता सकती हैं.”
“तो सुनिए. जिसे अपने अड़ोसियों-पड़ोसियों तथा परिवार-जनों से आजीवन लानत-अलामत मिलता हो उससे दुनिया को क्या अपेक्षा करनी चाहिए?“कुछ भी तो नहीं.”
“कुछ भी नहीं! ऐसा क्यों?”
“ऐसा इसलिए, कि आज दुनिया के सारे रस्म बेमानी है. बेमानी भी इसलिए कि इस धरती पर हर कोई अपनी सुडौल देह और खुशनुमा दिल के एक कोने में बुराई को बदस्तूर जारी रखना चाहता है.”
“हां-हां, वह भी इसलिए कि सबको बड़े लोगों की छत्रछाया उन्हें चाहिए होता है.”“बड़े पद या पैसे वालों की छत्रछाया भी तो जरूरी है. इसके अभाव में किसी व्यक्ति का व्यक्तित्व मुरझा-सा जाएगा. वह न तो बड़ा आदमी बन पाएगा और न ही देश-समाज का सच्चा सेवक.”
“किसी महापुरुष, बड़े पद या पैसे वाले व्यक्ति की छाया सबको पसंद है. किंतु उनके छत्रछाया में रहने से किसी भी व्यक्ति का व्यक्तित्व कांतिहीन हो जाता है. वह व्यक्ति नयी राह बनाने से भागता है और पूरी दुनिया को कहता फिरता है कि ‘तुम फलाने व्यक्ति, फलानी संस्था का अनुयायी बन जाओ.’ बिना किसी को धोखा दिए और बिना किसी को कष्ट पहुंचाए अपनी प्रगति की राह इस दुनिया में सभी नहीं बना पाते. इसी कारण से, सृष्टि की शुरुआत से ही इस धरती पर असमानता फैली है और ऊंच-नीच की खाई बनी है. ज्ञान-विद्या-बुद्धि में अहंकार उत्पन्न हुआ है. यह अकाट्य और कटु सत्य है. अपनी प्रगति की राह बनाना आसान है किंतु वैश्विक प्रगति की मंगलमय राह बनाना बहुत मुश्किल है. और इस धरती पर जिसने भी अपने कर्म से वैश्विक प्रगति की राह बनाया है वही मनुष्य एकदिन श्रीराम और श्रीकृष्ण हुआ है. वही मनुष्य एकदिन तुलसीदास और वाल्मीकि हुआ है. वही मनुष्य एकदिन बुद्ध और महावीर हुआ है. वही मनुष्य एकदिन आइंस्टीन और महात्मा गांधी हुआ है. वही मनुष्य एकदिन प्रेमचंद और टॉल्सटॉय हुआ है. छत्रछाया रहित किंतु सत्य आधारित कर्मपथ पर अग्रसर व्यक्ति की अमरता को सृष्टि का निर्माणकर्ता भी रोक नहीं पाता है. ऐसे लोगों की जीवनी का कांतियुक्त होना एकदिन तय है.”गेहूं के खेत में मजदूर रिदीमा और पतित मानव के बीच बातचीत का सिलासिला चल ही रहा था कि बालक चलित्तर वहां कुदाल लेकर पहुंच गया. बालक चलित्तर कर्मठ था. वह बोलता कम था, किंतु काम करता अधिक था. कुदाल कंधे पर रखकर वह बचपनिया भू-भौतिकविद् की भांति रिदीमा से कहने लगा–
“यूरेनस बृहस्पति बुध,
औ मँगल नेपच्यून;
शनि सूर्य औ शुक्र संग,
खचरई चले न्यून.
क्रांतिवृत्त गगन जब भी,
भू को समझाईस;
रेख देख घुमावदार,
मन खुश हो जाईस.
सूर्य महाराज का पथ,
निहारें नग्न नैन;
तभी तो इस दुनिया में,
मिलेगा खूब चैन.
चैन मिलने की खातिर,
करो कष्ट सारे सहन;
सबकुछ तुम भूलकर,
वर्तमान में जियो, बहन!”
रिदीमा चलित्तर को छोटा देवर मानती थी. वह चलित्तर के मुख से ऐसा सुनते ही प्रश्न परक लहजे में बोली– “हम वर्तमान में अच्छे-भले चल रहे होते हैं, लेकिन कई घटनाएं हमें खींचकर भूत में पहुंचा देते हैं. जबकि हम हर वक्त, हर ओर, हर किसी को यह कहते-फिरते हैं कि हम अपने भविष्य की चिंता के साथ-साथ सबके भविष्य की चिंता करते हैं. फिर तो आप ही बताइए, छोटू देवर जी! कि इस धरती से किसी मानव की चिंता कैसे दूर होगी!?” बाल मजदूर चलित्तर को चुप देखकर वह खुद ही समाधान परक लहजे में उससे बोली, “इस धरती से किसी मानव की चिंता कभी नहीं दूर होगी, जब तक कि वह दूसरों को मात देने में लगा रहेगा और मानव-प्रेम एवं जन-जन से प्रणय की भाषा नहीं समझ सकेगा.” चलित्तर को खेतों में मृदा-छंटाई के लिए जाना था, सो, वह वहां से चला गया.
हालांकि रिदीमा के मन की सई अब इस बात पर अन्वेषण करने के लिए अड़ गई कि कोई साधु-संत प्रणय-सूत्र में बंधे बिना कैसे रह लेता होगा. अथवा क्या वे तो ईश्वर के साथ प्रणय-सूत्र में बंध जाते होंगे. तभी तो उन्हें दुनिया के झंझावातों से लड़ने की क्षमता प्राप्त हो जाती होगी. वक्त और परिस्थिति से दो-दो हाथ करने वाले को यदि इस दुनिया में कम-से-कम भी सुख मिलता है तो उसे ही सही सिद्धि कहा जा सकता है. वक्त से लड़े बिना चांदी की कटोरी और स्वर्ण-थान वाला सुख तो प्रसिद्धि का होता है, सिद्धि का नहीं. बिना किसी प्रसिद्धि-सिद्धि की आशा लिए इस धरती पर चलना आसान तो नहीं लेकिन मुश्किल भी नहीं है.
फिर अगले ही पल रिदीमा अपने आपसे कहती है, “मुझे अपनी चाहत की पूर्ति तो भूरे बाल के सदृश है; जबकि मेरा भूत घना-गूंथा बाल था, वर्तमान काले-लहराते बाल हैं तथा भविष्य सफेद बाल होंगे. सफेद यानी कि दुनिया के सारे अनुभवों से परिपूर्ण किंतु कुछ बड़ी-सी उपलब्धि के चक्कर में गुमसुम खोया हुआ-सा.”
दर्शना, देवू, पतित मानव और रिदीमा आपसी बातचीत में अपने अपने दृष्टिकोणों के ऊहापोह में पड़े हुए थे. इसी ऊहापोह के बीच विश्व के प्रथम गणराज्य की धरती वैशाली में दो संतों, चुन्नी जी और लल्लू जी, में लड़ाई शुरू हो जाती है. उसे देखकर सभी अपने मन को प्रफुल्लित करते हैं.
चुन्नी जी ध्यानमग्न लल्लू जी से बोले, “कि हो, इहाँ बइठल-बइठल तू कथि करइछहु हो?”
“आयें, तू कथि बोलइत हत हो, ज्यादा बोलव त तोरा हम निम्मन से भम्होर लेबौ.”
“न न, तू भम्होरने की गलती न करिह. न त तोरा के हम बतीसी झाड़ दिहव.”“जा….जा, हमरा के बरियारी न दिखाव हो; न त तोहरा के कुतवा की तरह हबक लेबउ.”
“दुर-दूर हो जा अभगला कहीं के! तू हमरा सामने सुक्खल फुटानी न झाड़िह…हां.”
“चलहट्ट, चुहाड़ कहीं के। अगर तू लबड़-लबड़ करवे त उठा के पटक देबउ. अउर तोहर बाल-बुतरूं सहित कपड़ा की तरह मचोर-मचोर के फिंच-फांच देब“तू बड़ा फड़फड़ाइछे रे रे दुमुंहवा! तू चुप्पे रह्ह न त तोहरा के मुंह करिया कर देबउ. अगर हम्मर बात न मानबे त तोहरा के ओखली में रख के कूट देबउ“अगर तोहरा के मिजाज लहराइछउ, त उकरा के समेट ले. न त तोहरा के खैर न हउ. तोहरा के तनी-मनी न मारबउ, अभरी त कानि उंगली से तोहरा के उठाके आसमान की ओर बीग देबउ.”
“चल हट्ट रे मुंहफट्ट! तोहरा त हम चाय में बोर-बोर के खा जबउ.”
“कइसे! छुच्छे या कि नमक के बोरिया में ढूंक-ढूंक के!?”
“रे… रे छितरियरवा! ज्यादा बदमाशी करबे त तोहरा के हम्म गंदी नाली में गोंत-गांत देबउ.”
“रे मरदे! तू हमरा जियादा नर्रभसाब मत, न त तोहरा के मार-मार के कचुमरिया निकाल देहव. सुनल कि न तू.”
“अरे चुप्प, न त हमनिओ के भी बोलेला अबइछई. चुप्पे न रहबे त तोहरा के हम भुरकुस कर देम.”
“चल हट्ट, रे बकलोलवा! तू चुप्प, न त तोहरा के एक्के बार में नरेट्टी जांत देम.”
“ये लह्ह! अगर तू न चुप्प होबे त तोहरा के हम झोंटा नोंच-नांच लेहम अउर तराजू पर उकरा के तउल के बेच देम.”
इसके बाद कुछ देर के लिए दोनों ओर निस्तब्धता छा जाती है. लेकिन जब चुन्नी जी लल्लू जी से बोले, “भाक् भुच्चर! तोहर भविष्य कइसन हउ. एकरा बारे में तनिका भी तोहरा के पता हउ. अगर हां, त तू हमरा के उकरा बारे में बता?”
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चुन्नी जी के ‘भाक् भुच्चर’ शब्द सुनकर ही पतित मानव का पारा चढ़ गया. वह मन ही मन बुदबुदाने लगा, ‘लिच्छवी गणराज्य के लोगन त बड़ा सुकुमार हत्थिन, अउर बड़का महीन भी छत्थिन. हुनकर कोमल-कोमल हाथ सबको लउकत बा, गद्देदार बिछौना पर गुलगुले तकिए लगा के उ सब के सब सोइत हत्थिन. दिन चढ़ने तक सब के सब सोवत रहे. ओकरा बाद एक अउर बात कि सब के सब सपने में ही एक-दूसरे के विरुद्ध दाँव-पेंच खेलत रहे. फिर, सबकी उन्नति इहां कइसे होइत! इहां तो सब के सब एक दूसरे को मात देने में और एक दूसरे को नीचा दिखाने में लगे हुए हैं!पतित मानव को मन ही मन बुदबुदाते देखकर उससे दर्शना कहती है– “दो जून की रोटी की खातिर अपने आपको संभालने वाले इंसान खुद तो वियांश (जीवंत) बनते ही हैं, वे दूसरों को भी वियांश कर देते हैं. लेकिन ऐसी स्थिति उन सबको दिखती नहीं जिनके आंखों पर किसी प्रकार के स्वार्थ की पट्टी बंधी होती है. अब चलिए, पतित मानव भाई! आप और रिदीमा अपना-अपना काम कीजिए. मैं भी देवू के साथ यहां से जा रही हूं. बहुत दूर. वहां जहां सिर्फ मेहनत की पूछ होगी. मेहनतकश लोगों की निहुछ होगी.”
जाते-जाते चुन्नी जी और लल्लू जी की ओर देखते हुए दर्शना गाने लगती है–
“जीवन एक झमेला है,
धता यह जरूर बताएगा;
खाली हाथ आया है रे बंदे,
खाली हाथ ही जाएगा.
संगी-साथी जो दिख रहे हैं,
वे तो सांसारिक घेरे हैं;
जब तक सांसें चल रही हैं,
तब तक ही फेफड़े तेरे हैं.
गलबहियां मत खेल वक्त से,
ये वक्त भी धोखा दे देगा;
प्रकृति का लेख समझा कर,
यह वक्त अनोखा दे देगा.
दौलत पर कभी घमंड मत कर,
क्योंकि यह भरमाएगा;
खाली हाथ आया है रे बंदे,
खाली हाथ ही जाएगा.
गलत गिद्ध-दृष्टि से तू,
सिरफ जग-रोग पाएगा;
जितना भी गलत कमाया है,
कभी न भोग पाएगा.
ज्ञान का भंडार तो तेरे,
चारों ओर का केरा है;
न प्रीत-पंखुरी तेरी है,
न तो प्रेम-पंख तेरा है.
मन को बांध के रख रे बंदे!
तभी जख्म कम हो पाएगा;
खाली हाथ आया है रे बंदे,
खाली हाथ ही जाएगा.
खुद में खोट कभी ढूंढा नहीं,
पर दूसरों में खोट ढूंढा है;
इसीलिए तो सारे ऐश्वर्य पाकर,
तेरा मन नित कूंढा है.
शोहरत को तूने ठुकराया नहीं,
तो सिद्धियां कहां मिलेंगी;
संसार में ही स्वर्ग-नरक है,
सारी कर्म-दीवारें यहीं हिलेंगी.
अंतिम प्रस्थान से पूर्व,
तेरे आंखों का दृश्य उतर जाएगा;
खाली हाथ आया है रे बंदे,
खाली हाथ ही जाएगा.”
इसके बाद दर्शना अपने पति देवू के साथ बहुत दूर अपने गंतव्य की ओर निकल जाते हैं. पतित मानव मन ही मन उन दोनों के उज्ज्वल भविष्य की कामना करता है. फिर वह अपना भविष्य-निर्माण के लिए पैसे कमाने हेतु खेतों में काम पर लग जाता है.
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