अध्याय–2 : अंधेरों में सुकून

हरेक आदमी अपना पेट पालने के लिए ही कोई काम करता है. चाहे वह अच्छा काम हो या बुरा काम हो. इस दुनिया की अकाट्य सच्चाई है यह. पेट पालने के लिए काम करना सत्य है. आगे बढ़ने के लिए और शांतिमय जिंदगी गुजारने के लिए मेहनत करना सत्य है. बिना मेहनत के पुर-सुकून (शांतिमय) जीवन की कामना नहीं की जा सकती, इस बात से चलित्तर भलीभांति वाकिफ था. दुनिया का पेट भरने के लिए वह अन्न उपजाता था. अपना पेट पालने के लिए वह हाड़तोड़ मेहनत-मजूरी से कभी पीछे नहीं हटा. ‘पूरी दुनिया का पेट भरे, इसके लिए नित्य प्रति काम करना आवश्यक है, और यही सत्य है’; इस बात से चलित्तर अनजान तो कतई नहीं थअपने बारह-तेरह वर्ष की उम्र में एकदिन चलित्तर अपने खेतों की जुताई में व्यस्त था. वहाँ दो युवा चिड़िया उड़ते-उड़ते आई और एक-एक करके उसके दोनों बैलों के पीठ के ऊपर बैठ गई. वह खेत-खलिहानों में काम करते-करते चिड़ियों की भाषा को समझना कुछ-कुछ जान गया था. अतः उसने बैलों के पीठ पर बैठे चिड़ियों को भगाना उचित नहीं समझा. हालांकि दोनों चिड़ियां बहुत दूर से आई थीं, लेकिन उसमें से एक चिड़िया चलित्तर के घोर मेहनत वाले चरित्र की सच्चाई को पलक झपकते ही पहचान गई थी. वह इस धरती के मेहनती चरित्र को पलक झपकते पहचाने कैसे नहीं! वह तो खुदी अपना पेट पालने के लिए जन्म के तीसवें दिन से तकलीफों के पहाड़ों के बीच उड़ान भरना सीहल चलाते-चलाते चलित्तर कुछ गुनगुनाने लगा. तभी चलित्तर की ओर देखते हुए पहली चिड़िया दूसरी चिड़िया से बोली–”बहन! क्या तुम जानती हो कि मेरा जीवन विचित्रताओं से भरा है.”“नहीं तो. तुम बताओ तो सही. तभी तो मैं जान पाऊंगी कि तुम्हारे जीवन में क्या कुछ विचित्रता है?”–दूसरी चिड़िया पहली चिड़िया से पूछी.

पहली चिड़िया बोली- “संयोग देखो कि मेरे पिता अफगानिस्तान के थे, मां तुर्कमेनिस्तान की थीं. दोनों उड़ते-उड़ते हिंदुस्तान के बिहार राज्य के वैशाली जिले के विशुनपुर अड़रा गांव में आ गए. गांव के पेड़ों के झुरमुठों के बीच मेरा जन्म हुआ. किंतु मेरा पेट पालने के लिए मां ने मुझे अपने अंचरा, मेरा मतलब पंजा, में रखकर दिल्ली ले गईं. जबकि मेरे पापा दिल्ली की जगह बंगलुरु ले जाने की जिद पर अड़े थ“बंगलुरु में क्यों!?” दूसरी चिड़िया पहली चिड़िया से पूछी“क्योंकि बंगलुरु में पेट पालने का जुगाड़ बहुत अच्छा था. वहां चिड़ियों के बीच पापा की तरक्की की राह भी शायद अच्छी होती.” पहली चिड़िया दूसरी चिड़िया से बो“इसका मतलब तुम दिल्ली में पली-बढ़ी हो. पर, ये बताओं कि तेरे मम्मी-पापा एक साथ एक ही शहर में, अपना पेट पालने के लिए, काम करने हेतु जाने को तैयार क्यों नहीं हुए?” दूसरी चिड़िया पहली चिड़िया से पूछ“इसीलिए कि पापा बंगलुरु के रहने वाले चिड़ियों के एक बड़े सरदार, आई मीन बड़े ठेकेदार, को जानते थे. जबकि मेरी मां दिल्ली में रहने वाले तुर्कमेनिस्तान मूल, किंतु भारतीय, के दो बड़े ओहदेदार मंत्रियों को जानती थी“तो तुम्हारे पापा अकेले ही बंगलुरु चले गए.”

“ह्ह्हां…”

“तुमने पापा के साथ जाने को जोर-जबरदस्ती क्यों नहीं की.”

“पापा खुद ही मुझे नहीं ले जाना चाहते थे.”

“क्यों?”

“क्योंकि वे मेरी नादानियों से झल्ला जाते थे.”

“अच्छा…बहना! अब पूरी बात समझ में आई. लेकिन तू ये बता कि तेरी मां दिल्ली में कैसे और क्यों गई?”

“मैं पहले ही बता चुकी हूं कि मां तुर्कमेनिस्तान मूल, किंतु भारतीय, के दो बड़े मंत्रियों को जानती थी. मां को विश्वास था कि दोनों मंत्री उसकी मदद करेंगे. किंतु दिल्ली आने पर मेरी मां उन दोनों मंत्रियों और तड़क-भड़क में लिप्त रहने वाले कुछ नौकरशाहों तथा नौकरशाहों से मिलीभगत रखने वाले बड़े-बड़े ठेकेदारों के चंगुल में बुरी तरह फंस ग“चंगुल में फंसने का मतलब?”

“यही कि मेरी मां बड़ा नाम कमाने एवं बहुत पैसा कमाने के चक्कर में पड़ गई. वह दिखावों के पीछे पड़कर अपना पेट भरने से भी चूक गई; क्योंकि सबने बड़े प्रेम से प्रेम का दिखावा करते हुए मां के पेट पर लात मार दिया.”“मतलब?”

“मंत्रियों और नौकरशाहों से सांठ-गांठ रखने वाले सभी ठेकेदारों से प्रताड़ित और शोषित होकर मेरी मां ने अपनी जीवन लीला समाप्त कर ली. उस समय मैं लगभग डेढ़ महीने की थी.“ओह्ह्ह, तुम्हारे साथ बहुत बुरा हुआ.”

“हां.”

“उसके बाद तेरा लालन-पालन कैसे हुआ?”

“मुझे मेरे मां और पिता के नहीं रहने का दर्द था. उसी दर्द के कारण मैं अकेले ही बेधड़क होकर गगन में उड़ना सीख गई. उड़ते-उड़ते एकदिन ईरान नामक देश में पहुंव ग“अब तो तू दो साल की हो गई हो. अच्छा तू ये बता कि पिछले एक साल साढ़े दस महीने तक क्या सिर्फ अपना पेट पालने के लिए ही ईरान में रुकी थी? अथवा कोई प्रेमी-व्रेमी के चक्कर में पड़ कर तुम वहां रुकी थी?“अरे, चुप्प्प्प!! क्या तुझे यह नहीं पता कि पेट की आग बुझाने के लिए मेहनत करना पड़ता है!? तू याद रख, इस दुनिया में कोई भी किसी का प्रेमी नहीं हैं. आजकल प्रेम बस एक दिखावा बन कर रह गया है. यह सिर्फ इच्छाओं की पूर्ति के लिए ही है.” कुछ सेकेंड के लिए रूक कर वह भड़कते हुए बोली– अरी ओ बहन! अगर किसी को प्रेम करना ही है तो अपनी मेहनत और अपने निःस्वार्थ कर्म से प्रेम करना चाहिए.”“अरी ओ कलमुंही! तुम भड़क क्यों रही हो? यही बात तू सामान्य तरीके से भी तो मुझे बता सकती हो.”

“क्या तुझे यह नहीं पता कि सच्चाई में ही भड़कन होती है? झूठ में तो बड़े प्रेम से बातें करके एक-दूसरे को फंसाया जाता है. एक बात और, झूठे लोग केवल अच्छाई का सब्जबाग दिखाकर दुनिया को गुमराह करते हैं.“यार! तू सच-सच बता कि तूने अब तक शादी की भी कि नहीं?”

“शादी की कामना तो मैंने कभी की ही नहीं.”

“यदि नहीं की तो अब कर ले. तू अब भारत में उड़कर आई हो. भारत सोने की चिड़िया थी. और आज भी यह सोने की चिड़िया है. यहां शादी करोगी तो कोई धोखा नहीं मिलेगा“भारत में उड़कर आई हूं क्या! मैं तो भारत की ही हूं. मेरा जन्म भारत में हुआ था. यहां के कुछेक गांवों की बेहतर संस्कृति का प्रभाव मुझपर अवश्य है. किंतु शहरी चकाचौंध भरी संस्कृति से मैं दूर ही रहने की कोशिश करती हूं.”“वाह! यह सुनकर अच्छा लगा कि भारत की गंगा-जमुनी तहजीब का प्रभाव तुझपर है. पर, तू ये बता कि अब केवल भारत की ही होकर रहेगी या नहीं?”

“अरी ओ बहन! मैं भारतीय संस्कृति के गंगाजल से लवरेज होने के कारण पूरे विश्व की हूं. मेरे लिए तो वसुधैव कुटुंबकम्. यहां की वैज्ञानिक संस्कृति ने मुझे पूरे विश्व का जीव बना दिया है.”

“इसका मलतब कि यहां की संस्कृति में विज्ञान घुली-मिली हुई है.”

“ह्ह्हां…. बहना! …..ह्ह्हां.”

“लेकिन मैंने तो सुना है कि भारतीत संस्कृति में विज्ञान नहीं बल्कि खानदान की कथा को आगे बढ़ाया जाता है.”“सहमत हूं. किंतु….. पूरी तरह नहीं.”

“किंतु… क्यों!?”

“तो सुन—

जन्म लेने के पांचवें दिन से ही मैं अपने पिता को ‘बापू’ कहती थी. मां को ‘गे ईया’ कहती थी. बापू बताते थे कि जीवंत इतिहास उसी का बनता है जो अपने पहुंच और पैरवी के भरोसे आगे बढ़ता है. उन्होंने ही मुझे बताया कि अपने यश के लिए, अपनी पहचान बनाने के लिए बड़े-बड़े लोगों तक पहुंच का होना आवश्यक है.“हां-हां पहुंच-पैरवी से ही तो सामाजिक जीवन का आगाज होता है.“

“केवल सामाजिक जीवन ही मुझे प्रिय नहीं है, बल्कि वैयक्तिक जीवन से भी मुझे गहरा लगाव है.”

“चल-चल ओ छलिये! तू शादी नहीं की, ये अच्छा है. तेरी विलासिता रहित कठोर जीवन और तेरी अनुशासन-प्रियता का मैं कायल हूं. किंतु ये बता कि भारत देश में बड़े-बूढों के प्रति तेरी सम्मान भावना कैसी है?”“मैं स्वेच्छाचार से रहित हूं. बल प्रयोग का त्याग करती हूं. मिलजुल कर चिड़ियों के बीच रहने का प्रयास करती हूं. बहुमत द्वारा किसी बात का निर्णय करना मेरी आदतों में शुमार है. अपनी कमियों को मैं पहचानती हूं. चारों ओर फैले बुराइयों का अवलोकन करके उसमें से भी केवल अच्छाइयां ढूंढती हूं. बस, तू अब इसी बात से समझ जा.”

“मतलब कि भारत के ग्रामीण इलाकों में और खेत-खलिहानों में कदम पड़ते ही विश्व के निवासियों के प्रति तेरे मन में ऊंचे सम्मान की भावना आ ही गई.”“ह्ह्हां…ह्ह्हां.”

“पर ऐसा कैसे?”

“क्योंकि मैं प्राणशक्ति को दृढ़ता पूर्वक धारण करती हूं. प्राणशक्ति विश्व के सारे विज्ञान की जड़ है. प्राणशक्ति में इच्छाशक्ति का निवास है. यह हमारी कल्पनाओं को सुदृढ़ आकार प्रदान करती है. बता दूं कि जो कल्पनाओं को सुदृढ़ आधार प्रदान करे वही विज्ञान ह“तभी विपरीत परिस्थितियों में भी तेरी पीड़ा किसी को भी, यहां तक कि मुझे भी, दिखाई नहीं पड़ती है.“यह तो तूने सही कहा… बहना!”

“ओक्के, चलो अब दोनों उड़-उड़ कर धरती के मानव-समाज के आंसुओं को गिनते हैं.“नहीं… नहीं, बहन! हमलोग गगन में ही हुर्दंगी हरकत की टोकरी बिनते हैं.”

“लेकिन उससे तो दिखावटी ताना-बाना अपना पैर पसारेगा!”

“तभी तो आदमी-आदमी आपस में लड़कर एक-दूसरे को काटेगा-मारेगा.”

इसे सुनकर दूसरी चिड़िया गाने लगती है–

“पहुंचना था नरक में,

किंतु पंहुचे स्वर्ग द्वारे;

लाग लपेट के चक्कर में,

लुट गए स्वप्न सारे.

स्वर्ग घूमने के चक्कर में,

न जुड़े जमीनी हकीकत से;

सपने साकार करने के लिए,

नहीं जुड़े ग्रामीण मत से.

कड़ी मशक्क़त के बावजूद

फूट गए भाग्य हमारे;

लाग लपेट के चक्कर में,

लुट गए स्वप्न सारे.

उपलब्धियों का ढिंढोरा पीट,

घसीटा अपने डैनों को;

उड़ान से सर भिड़ाता रहा,

भाव दिया न निज पैनों को.

हांफ-हांफ कर बढ़ा,

देह हुई लकुटिया सहारे;

लाग लपेट के चक्कर में,

लुट गए स्वप्न सारे.

चुनरिया धानी फेर-फेर,

छुपाया चेहरा पल्लुओं में;

टकराई दृष्टि दिखावों से,

घुमाया मन निठल्लुओं में.

झुंड-मुंड में शामिल हो,

लौटा गया थके-हारे;

लाग लपेट के चक्कर मेें,

लुट गए स्वप्न सारे. “

दोनों चिड़ियों के आपसी वार्तालाप और एक-दूसरे को संबोधित हर्षपूर्ण गानों को सुनकर चलित्तर को खुशी का ठिकाना न रहा. चलित्तर दोनों चिड़ियों की विपरीत परिस्थितियों से वाकिफ तो हुआ ही, अपनी सच्चाई से भी वह भली प्रकार से वाकिफ हुआ. चिड़ियों के परिवार में अवहेलना के दृश्य को भांप कर अगले ही क्षण वह सोचने लगता है, “यदि किसी की शारीरिक मार के कारण शरीर में यदि बड़ी-छोटी उमेठन हो जाए तो चलेगा. किंतु किसी की अवहेलना के कारण हृदय में जो उमेठन आती है वह हमारी सोच को तबाह और कुंद कर देती है. बेहतर होगा कि ऐसे लोगों, चाहे वे कितना भी सिद्ध या योगी या महाजन क्यों न हों, से दूर ही रहा जाए. वैसे लोग हौसलों को येनकेन प्रकारेन पस्त करना चाहते हैं.

खेतों में काम करते-करते फिर वह अगले पल कुछ और ही सोचने लगता है और स्कूल से होते हुए कालेज जाने की कामना में अपने आपसे कुछ कहता है, “सैंकड़ो सामाजिक शोध करके पीएचडी किया हुआ प्रोफेसर यदि यूनिवर्सिटी में बिना कोई दिखावा या बिना कोई फोटोक्लिक के झाड़ू-बुहाडू करने लगे, स्वयं से ही खाना बनाने लगे, स्वयं से ही अपना जूता साफ करने लगे, स्वयं से ही अपना सारा का सारा काम करने लगे तो उसके अनुयायी छात्र न तो कभी बीड़ी-सिगरेट पियेंगे, न तो कभी दारू-शराब पियेंगे, न ही गांजा-भांग के नशे में चूर होंगे, न ही किसी प्रकार के अहंकार के नशे में चूर होंगे. बल्कि वैसे ज्ञानविदों द्वारा पढ़ाए-बढ़ाए गए छात्र देश-दुनिया की असली तरक्की में शरीक होंगे. वैसे होनहार लोग तो बड़े उमंड से धरती की सारी पासदारियां खत्म करने में मसगुल होंगे.”

खेतों में काम करते-करते अंधेरा हो चुका था. चीरते हुए अंधेरों के बीच से सुकूनदायक आवाज़ आई, “जो अपने सपनों की पूर्ति के लिए दृढ़ संकल्पित रहता है वह जीवन में कई दिक्कतों का सामना करते हुए भी कभी हार नहीं मानता. जिसने जीवन की मुश्किलों से डरने की जगह उससे लड़ते हुए आगे बढ़ने को ठान लिया है, उसके सामने दुनिया की सारी समस्याएं दम तोड़ देती हैं. सारी अड़चनें घुटने टेक देती हैं. विपरीत परिस्थितियां भी उससे हार मान लेती हैं.” इस आवाज को सुनकर चलित्तर घर वापिस तो आ गया, लेकिन वह उसी चीरते हुए अंधेरों के बीच सुकून की तलाश में शहर का रुख करने की ठान लिया.

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गंवरु प्रमोद (Ganvru Pramod)
Uttar Pradesh