अध्याय–3 : गुरु गोशो डॉट कम

अरबिंद बाबू की शादी हुई थी अठाइस की उम्र में. चालीस वर्षीया गिरिजा से शादी करके जब वे अकेले से दुकेले बने थे तब बड़े खुश नजर आ रहे थे. शादी के बाद काफी दिनों तक वे अपनी आँखों से गिरिजा की अनन्य सुंदरता को निहारते रहते थे. शादी के पहले अपने दोस्तों से सदैव कहते फिरते थे कि अकेले से दुकेले बनने में जो मजा है वह संसार में कहीं और नहीं है.

उनकी पत्नी गिरिजा पहाड़ के किसी घाणी की थी. जबकि अरबिंद बाबू समतल के किसी गाँव के थे. अपनी शादी के वक्त तक गिरिजा अपनी कंपनी, ‘गुरु गोशो डॉट कम’, को एक नई ऊंचाई पर पहुंचा दी हुई थी.

भारत के टॉप प्राइवेट यूनिवर्सिटी ‘फडानी गौगोलिक कंप्यूटर साइंस इंस्टिट्यूट’ की टॉपर थी गिरिजा. ‘स्पार्क कंबानी साइंस’ जैसे कंटाकाकीर्ण कोर कॉस्मिक सब्जेक्ट में हंड्रेड परसेंट अंक लाकर वह टॉपर बनी थी. लगभग पचीस की उम्र में वह माउंटेन-व्यू कैलिफोर्निया से ‘बैक-रबिक साइंस’ में पीएचडी की उपाधि प्राप्त की थी.

गिरिजा एम्पीथियेटरिक विचारों की धनी थी. पैसा तो वह खूब कमा ली थी. पर, अब उसे कोई असंख्य गूगोलिक सोच वाले दूल्हे की तलाश थी. आखिर चालीस की उम्र में उसने अठाइस वर्षीय हट्ठे-कट्ठे, विचार से तगड़े लड़के पर डोरे डाल ही दी.

अरबिंद बाबू देखने में काफी हैंडसम थे. ओह्हो! हैंडसम नहीं बल्कि पैंडसम कह लीजिए. कठ-काठी से बिलकुल अजूबे किस्म के आदमी थे अरबिंद बाबू. गिरिजा से शादी के समय उनका बार्किंग हर्ट था. कमाल का दुबटनिया क्रेजिक शर्ट था. गर्दन में लाई था. पैरों में टाई था. कमर में टेल्ट था. हाथों में बेल्ट था. ऐसे ही हमसफ़र की तलाश थी गिरिजा को. कॉफी-टेबल पर तो उसने कई लड़कों के साथ कॉफी पी थी लेकिन हाथों में बेल्ट यानी बंदूक थामने वाला लड़का उसे अब मिला. अरबिंद बाबू क्रिमिनल तो बिलकुल नहीं थे. न ही वे किसी शादी-विवाह में घुरकी देने वाला बंदुकधारी छिछालेदरी थे. खांटी आईपीएस थे वे हाँ! मौका तो बहुत था उन्हें फाईएएस बनने का. लेकिन कहते हैं ना कि संतोष परम् सुखम्. पक्का संतोषी थे वे. और विचार भरोसी थे वे.

शादी के बाद अरबिंद बाबू के दोस्त उन्हें ‘आदम’ कहकर पुकारने लगे. जबकि सारे आईपीएस दोस्त और उनके अन्य दोस्त उनकी पत्नी गिरिजा को ‘अव्वा’ कहकर पुकारने लगे. दोस्तों के मुख से ‘आदम’ शब्द सुनकर अरबिंद बाबू हंसने लगते थे, जबकि गिरिजा ‘अव्वा’ शब्द सुनकर नाक-भौं सिकोड़ लेती थी.

अरबिंद बाबू अपनी पत्नी के स्वभाव को भांप लेते थे और सारे दोस्तों के चले जाने के बाद पत्नी के पास जाकर बोलते– “आई लव यू माई डियर गिरिजा. ओह्हो, गिरिजा! आर यू मुरब्बा….आई आई मीन ‘अव्वा’.” पति के मुख से ऐसा सुनकर गिरिजा भड़क जाती और झट से अरबिंद बाबू को धक्का देते हुए कहती–’लब्बैक’. अरबिंद बाबू जब ‘लव बैक’ कहकर मजे लेने लगते तो गिरिजा कहती- “बड़े मजे ले रहे हो… मैंने तो तुम्हें ‘दूर हटो’ कहा था. लेकिन तुमने तो इसे ‘लव बैक’ बना लिया.” अरबिंद बाबू कहते, “वह इसीलिए कि मैं बंदूकधारी होकर भी तुम्हें सीधे-सामने से नहीं बल्कि फ्रंट-बैक से प्यार करता हूँ.” जब गिरिजा पूछती ‘ये बैक से प्यार क्या होता है?’ तो अरबिंद बाबू कहते, “जो प्राइवेट यूनिवर्सिटी में अथाह पैसे देकर पढ़ा-लिखा होता है उसे तो बैक से ही प्यार किया जाता है ना.” 

“तुम कहना क्या चाहते हो? तुम बहुत बदमाश आदमी हो. क्या तुझे पता नहीं कि उमर में बारह साल बड़ी हूँ मैं तुमसे!? ज्यादा कुछ बोलोगे तो हसद करने लगूंगी और तेरे विषय में सोशल मीडिया में ‘गो’ कर दूंगी.” यह सुनकर अरबिंद बाबू भी बोल उठते- “गर तुम ‘गो’ करोगी तो मैं बंदूक निकाल कर ‘शो’ करूँगा.”

एकदिन किसी बात पर पति से बहस करते-करते गिरिजा को ख्याल आया कि उसे अपनी कंपनी में ड्यूटी पर जाना है. वह झट से अरबिंद बाबू के माथे को चूमते हुए बोली, “ओ डॉलिंग! बस्स्स, मुझे आफिस जाना है. अब तुम आगे कुछ मत बोलना.” 

इसपर अरबिंद बाबू भी बोले उठे, ‘लेकिन तुम अपना मुँह मत खोलना.’ 

“अब तुम तो फसाद करने लगे” गिरिजा बोली.

“लेकिन तुम तो दंगा करने लगी” अरबिंद बाबू बोले.

“दंगा!!! ….. चल हट लफंगा” यह कहकर गिरिजा झट से अपना बैग उठाई और अपना स्विफ्ट डिजायर स्टार्ट करके अपने ऑफिस को प्रस्थान करने लगी.

तभी अरबिंद बाबू बोलने लगते हैं,”मैं विभव में जीता नहीं हूँ. जीर्ण अपमान को सीता नहीं हूँ. अभिशाप से पराभूत नहीं होता हूँ. आशीष से अभिभूत नहीं होता हूँ. तिरस्कार से डरता नहीं हूँ. ललकार से अखरता नहीं हूँ. किसी की बुरी बातों पर भड़कता हूँ. अपने जिद्दी स्वभाव से सरकता हूँ. मैं तो खुला किताब हूँ. जग में जलाता दिव्य अलाब हूँ.”

गिरिजा बोली, “मैं भी आपसे कम नहीं हूँ. अंदर ही अंदर पीती गम नहीं हूँ. ज्यादा बोलोगे तो मैं तुम्हारी बातों पे झूलस-जल जाऊंगी. कम बोलोगे तो मैं तुम्हारे ऊपर उछल जाऊंगी.”

“ना बाबा.. ना! मेरे ऊपर तो भूल से भी नहीं उछलना. भले ही तुम बड़बड़ाते हुए गूगोल-दंड पर चलना.”

“जब गिरूंगी तब क्या होगा… अरबिंद बाबू?”

“होगा तो वही ना जो भगवान चाहते हैं. हम दोनों गिरेंगे उसपर जिसे इंसान गाहते हैं.”

“मतलब?”

“मतलब ये कि कहर्षि कतंजलि के देश में हमलोग गिरेंगे. और बाबा आदम के देश में अकबकाते फिरेंगे.”

“अजी! जब हमलोग अकबकायेंगे तभी हमलोग फिस वेश में माल बनायेंगे.”

“फिस वेश… या…. इस देश!”

“जो समझना है तुम्हें… वह समझो. मैं तो चलती हूँ बाबा! पहले ही काफी लेट हो चुकी हूँ. “

“ओक्के, बाई”

“बाय……बाय.“

xxxxx

अरबिंद बाबू की फुफेरी बहन वसुधा थी. वह अरबिंद बाबू से लगभग ग्यारह-बारह साल बड़ी थी. हिस्ट्री ऑनर्स में एडमिशन कराते ही वह अपनी सारी सहेलियों की चहेती बन गई थी. उसका कारण भी था. वह हमेशा चहकती रहती. हँसती-खिलखिलाती रहती. वह हमेशा सभी सहेलियों से कहती फिरती कि–

“इस जग में कोई काम,

सदैव कर लो ठोस

नहि करेगा बुरा वक्त,

गर्गेंचुअन भकोस

गर्गेंचुअन भकोस,

देता है मन को तोड़

होती खुशि खामोश,

देती हर उन्नति छोड़

मन को दो झकझोर,

रखो दिव्यदृष्टि लग में

सुकर्म पर दो जोर,

होगे सफल इस जग में”

उसकी उत्साहवर्धक बातों के कारण उसकी सहेलियां उसके आगे-पीछे घूम-घूम कर उसे विविध प्रकार से लुभाती रहती. गिरिजा भी उन्हीं सहेलियों में से एक थी. एकदिन वसुधा अपने हाथ में सिम्मड़ (सेमल) की रुई लेकर कालेज गई. वह साइकिल से कालेज गई थी. दूसरी साइकिल पर सवार होकर उस समय पंद्रह वर्षीय किशोर अरबिंद बाबू भी अपनी फुफेरी बहन के साथ उसे कालेज छोड़ने गए थे. वसुधा के हाथ में रुई देखकर गिरिजा पूछी– “क्या यह टेरीडोफाइटिक फर्न है?” इसपर वसुधा जोर-जोर से खिलखिलाने लगी थी. अपनी बहन हो या रिश्ते की बहन हो, भला उसे हँसते-खिलखिलाते कौन भाई नहीं देखना चाहता होगा. किशोर अवस्था में भी अरबिंद बाबू काफी हाजिरजवाब थे. वे बहन की खिलखिलाहट के बीच ही गिरिजा से बोले– “नहीं… नहीं, यह तो ब्रायोफाइटिक काई की कुंडलित कली का रिटर्न है.” किशोरवय अरबिंद बाबू के मुख से ऐसा सुनकर गिरिजा बोली– “धत्त तेरी के… थैलोफाइटिक शैवालों की डालियाँ!”

“क्यों नहीं! यहाँ उपस्थित गलबहियाँ खेलते बहुतेरे लड़कों की सालियाँ!” अरबिंद बाबू बोले.

“हाय री! मैं तो अब मर जावाँ” गिरिजा बोली.

“क्यूँ री! अब तो तुम तर जावाँ” वसुधा बोली. इसके बाद वसुधा अपने फुफेरे छोटे भाई अरबिंद बाबू को घर जाने का इशारा कर देती है.

हँसी-ठिठोली के बाद कालेज के सारे लड़के-लड़कियाँ अपने-अपने सब्जेक्ट के क्लासेज किए. क्लासेज करने के बाद सभी अपने-अपने घर को चले गए. फिर वक्त भी कहाँ रूकने वाला था. कई सारे स्टूडेंट्स अपने देश में ही भिन्न-भिन्न संस्थानों से हायर स्टडी किए और फिर विदेश चले गए. कई तो विदेश में ही हायर डिग्री हासिल करने गए और वहीं पर काम-धाम करते हुए सेटल भी हो गए. गिरिजा विदेश में सॉफ्टवेयर में पीएचडी की डिग्री प्राप्त करने गई. डिग्री प्राप्त करने के बाद वह अपने देश की सेवा करने की ठान लेकर इंडिया वापिस आ गई.

विदेश से लौटने के आठ वर्ष बाद जब गिरिजा अरबिंद बाबू की हो गई तो वह पुराने ख्यालातों में खो जाती है. “समय गुरु है, समय सबसे बड़ा धन है, यह मैंने शुरू से ही जाना. किन्तु, इसका ‘शो’ तो कभी किया ही नहीं. कारण भी है कि समय के कुचक्र को मैंने कभी देखा ही नहीं. हो सकता है कि भूल-चूक से मैं भी समय की राष्ट्रीय बर्बादी में कभी-कभार शामिल हो गई हूं. इसे आजकल सोशल मीडिया पर अच्छे से बुरे की ओर हुटिंग, लघु क्लिपिंग, त्वरित रीलों के माध्यम से स्क्रॉलिंग करना भी कहा जा सकता है.” यह सोचते-सोचते गिरिजा अपने बचपन में कहीं खो जाती है.

फिर वह आगे अपने पति अरबिन्द बाबू से कहती है- “अजी सुनते हो, मैं समय के वास्तविक रीलों के एक नए चलन के बारे में बात कर रही हूं. इसमें वह सबकुछ है जिसके माध्यम से मुझ जैसे सम्पन्न लोग सड़क किनारे फुटपाथ पर पड़े बच्चों को हर सुविधा मुहैया करा सकते हैं.” 

“हाँ, सुन ही तो रहा हूँ. वास्तकिता यह है कि मुझ जैसे संपन्न लोग सड़क पर बेतरतीब ढंग से पड़े बच्चों में अपने मन मुताबिक चलने वाले बच्चों को चुनते हैं और उनके लिए स्वादिष्ट भोजन, फैंसी कपड़े, महंगे जूते आदि की व्यवस्था करते हैं. लेकिन किसी गरीब घर में पैदा हुए होनहार बच्चों को हर हाल मे रौंदते हैं, उन्हें जलील करते हैं, उन्हें दबाते हैं, उनसे जलते हैं. किसी भी दशा में हम अमीर लोग उसे आगे बढ़ते हुए नहीं देखना चाहते है. यह सच्चाई है.”

“रियली, यू आर गुरु गोशो, माई डियर अरबिन्द बाबू!”

“व्हाट डू यू मीन?”

“तेरी बात ने मुझे सोचने पर मजबूर कर दिया है. हालाँकि फ़िज़िक्सकीय डायनामिकी उसमें नहीं है, लेकिन मेरे दिमाग की प्रकाशिकी के लिए महत्वपूर्ण है.”

“मैं अब भी कुछ समझा नहीं.“

“मैं भाग्यशाली थी कि मैं ऐसे परिवार में जन्म लिया जिनके पास मुझे शिक्षित करने और अच्छा जीवन देने का साधन था. अरबिंद बाबू! मैं तो तुमसे कुछ सुनकर अपनी अगली पीढ़ी को वह विरासत सौंपेंगे जो उनके माइंड के लिए कम्प्युटर से भी तेज साबित होगा. यानी कि… गोशो!”

“क्या हमने एक पल के लिए भी उस परिदृश्य के बारे में कभी सोचा है कि हम ऐसे माता-पिता के घर में पैदा हुए हैं जिनके पास आगे बढ़ने के लिए किसी तरह के साधन न थे. अथवा कोई विलायती रोआब या तथाकथित संपन्न विरासत नहीं थी?”

“मेरे घर में सुख-सुविधा के सारे साधन मौजूद है, अरबिंद बाबू! फिर विलायती रोआब! इसका मतलब?”

“कुछ लोग तो बहुत आसानी से विलायती रोआब का श्रेय अपने कर्म को दे सकते हैं, जिससे मैं कुछ हद तक ही सहमत हूं. लेकिन, क्या अंग्रेजों, मुगलों और सल्तनतों ने हमें अपने से कमजोर लोगों की साझा संस्कृति को अपनाने से कभी रोका है? अच्छा बनने के लिए न तो गुरु के उपदेश की जरूरत होती है और न ही सुंदर-सुंदर गोशोइक महाराज के प्रवचन ही सुनने पड़ते हैं. जिसमें चाह है वह अच्छा बन ही जाता है.”

“हेल्लो, अरबिंद बाबू! तभी मैं कहती हूँ कि हम परिदृश्य के बारे में सोचें जहां हम में से हर कोई, जब हम अपने-अपने घरों से बाहर अपने सॉफ्टवेयरिक कार्य पर होते हैं, अपने से कम भाग्यशाली भाइयों के लिए कुछ भोजन या कुछ कपड़े या रहने के लिए मकान की व्यवस्था कर दें ताकि ‘डॉट कम’ वाली सोच तो बरकरार रहे.”

“सोच बरकरार रहे या आपस में तकरार रहे.”

“प्यार में तकरार और टकराव होते हैं, अरबिंद बाबू!”

“हाँ, और प्यार की… बस एक ठो… झप्पी भी दो.”

“क्या!! तुम्हें!!!”

“ओह्ह नो…नो, अभाव में गुजर-बसर कर रहे होनहार लोगों को…. सब कुछ बेड़ा गर्क करने वाले लोगों को नहीं.”

“नो….नो, बस्स्स एक ठो……… ओक्के! चलो, गिरिजा! तुम अपनी कहानी सुनाओ.”

“दस साल पहले, जब मैंने अपना उद्यम शुरू किया, तो मेरे कार्यों में तकनीक, व्यवसाय मॉडल और व्यवसाय रणनीतियाँ शामिल थीं. इस दौरान, मैं स्टूडेंट डेव्लपमेंट लाइफ से जुड़ गई. पीछे मुड़कर देखती हूँ तो कोई भी क्षेत्र मेरे सामने पाँच साल से ज़्यादा नहीं टिका सका.”

“क्या सॉफ्टवेयर भी नहीं?”

“नहीं, उसे छोडकर. मुझे पाँच साल की एक अजीब सी मानसिक खुजली थी. मैंने मेटालिक इंस्ट्रूमेंटेशन से शुरुआत की, फिर सूचना प्रौद्योगिकी एवं दूरसंचार में आगे बढ़ी तथा इन्फॉर्मेशन एवं कम्युनिकेशन टेक्नालाजी में आगे बढ़ी. ई-कॉमर्स भी मुझसे अछूता नहीं रहा. मैं हमेशा अगली पीढ़ी के नवीनतम क्षेत्र में जाना चाहती थी.”

“लेकिन….गिरिजा! मुझे तो शिक्षा और प्रौद्योगिकी क्षेत्र ही सबसे ज्यादा लुभाता है, जिसे तुम जैसे सॉफ्टवेयर के जानकार इसे ‘एडटेक’ कहते हैं.”

“हाँ…हाँ, यहाँ भी मैं गलती से करियर काउंसलिंग सेगमेंट में आ गई और मुझे यह पसंद भी आया.”

“क्या तुम्हें कोई ऑफलाइन या ऑनलाइन साइकोमेट्रिक उत्पाद बनाने में योगदान मिली यहाँ कि नहीं?”

“अजी! मैंने तो मनोविज्ञान की दुनिया को भी समझना शुरू कर दिया है. मेरे विचार भी विरोधाभासी से सुलझे हुए हो गए हैं.”

“तभी तो…… तेरे ज्ञान में अद्भुत शक्ति है.”

“मेरे ज्ञान में अद्भुत शक्ति होने के कारण ही कई आशाओं में बंधा हुआ वक्त हमारा आदर्श काल मुहूर्त है.”

“तभी जाने-अनजाने में पूरी दुनिया की आशा का रूप मूर्त है.”

“अरबिंद बाबू! क्या तुम जानते नहीं कि अमूर्त अवधारणाओं में निराशा अपनी पैठ बनाने से नहीं चूकती है?”

“हाँ…हाँ, लेकिन मेरी बातों की खूबसूरती के आगे निराशा नहीं रूकती है.”

“तुम तो हमेशा मजबूत इरादे रखते हो, मजबूत इरादे वालों की आशाएं कभी नहीं छिन्न-भिन्न होतीं.”

“यह मैं भली प्रकार से जानता हूँ. लेकिन इरादों के चंगुल में फंसकर मेरी यादें खिन्न होतीं.”

“जाइये जी! यादें तो एकदिन सबके खिन्न हो जाया करतीं हैं. आप अपनी यादों को सहेजिए, मैं तो चली अपनी ड्यूटी निभाने.”

“कौन सी ड्यूटी!?”

“दिमागी घोड़े दौराने की ड्यूटी.”

“ओके… बाय…. गो.”

“गो नहीं, बल्कि शो.” यह कहकर गिरिजा खिलखिला कर हँस पड़ती है.

“ऐसी कोई तदबीर है ही नहीं.”

“मैं तो धरती माँ की तलबी पे भारत देश में जन्म ली हूँ. फिर, कोई अच्छी युक्ति बताने से तुम कतरा क्यों कर रहे हो.”

“मैं कतरा नहीं रहा हूँ, बल्कि जिंदगी में थोड़ी-सी राहत पाने की युक्ति तुम्हें बता रहा हूँ कि रातोरात कोई भी उपलब्धि हासिल नहीं की जा सकती. जिंदगी में छोटी-बड़ी उपलब्धियाँ हासिल करने के लिए कुछ खोना पड़ता है.”

“खोना पड़ता है या रोना पड़ता है.”

“हाँ तुम जो समझो; किंतु—

अपनी खुशियाँ तो मैं, दूसरों में बांट देता हूं.

जग का दर्द सहकर, बुरा वक्त छांट देता हूं.

बुरे वक्त में भी मैं, जिंदगी का मजा लूटता हूं.

जब रोने का मन करता तो, हर्ष-धान कूटता हूं.”

“यार अरबिंद! तुम अड़ते बहुत हो.”

ऐसा सुनकर अरबिंद बाबू अपनी पत्नी गिरिजा से कहते हैं—

“अच्छी बातें मनवाने हेतु, जग में अड़नी पड़ती है.

घी निकालने के लिए, उंगली टेढ़ी करनी पड़ती है.

चाहे कोई भी अकादमी हो,

चाहे कोई भी आदमी हो,

अज्ञानी और मूर्ख ही क्यों न हो,

बहुत पढ़ा-लिखा ही क्यों न हो,

हमसे जलते सब के सब हैं,

क्योंकि हमारे ऊपर में रब हैं,

अंधेरगर्दी मचने पर, अक्ल को घास चरनी पड़ती है.

घी निकालने के लिए, उंगली टेढ़ी करनी पड़ती है.

बड़े-छोटे सबलोग जग में,

कर रहे हैं खूब दिखावा;

कुछ लोग तनिक भी न डरते,

लेकर बड़ा-बड़ा चढ़ावा.

दान-दहेज के चक्कर में,

जवान नर, बैल बन रहे हैं;

खा-पीकर दूसरों का माल,

मोटे-तगड़े हो ठन रहे हैं.

रगड़े लेने वाले आजकल,

तगड़े कहे जा रहे;

उठ-कूद बहती गंगा की ओर,

खुदी बहे जा रहे.

हीरे बनने हेतु तड़ित् को, गोबर में सड़नी पड़ती है;

घी निकालने के लिए, उंगली टेढ़ी करनी पड़ती है.

दूसरों की उंगली पकड़-पकड़,

जो निज उन्नति-कमंडल बना रहे;

वे निज मुंह में घी चपोर-चपोर कर,

पूरी दुनिया को ही जना रहे;

चारित्रिक शब्द पढ़-पढ़ के जो,

मुंह छुपाने पर अड़े हैं;

उनके दूदर्जे दरवाजे पर आके,

लोग कान ढांप के खड़े है.

लज्जा जब झुकती है, तो शर्म में गड़नी पड़ती है.

घी निकालने के लिए, उंगली टेढ़ी करनी पड़ती है.” 

“वाह! कमाल की बातें करते हो. मेरे दिल को चोट पहुँचाकर, उसपर अपनी कविता कहकर, मलहम लगाने से तुम भाग रहे हो.”

“लेकिन तुम तो मेरी बातों को त्याग रहे हो!”

“जा… जा, तुझमें अलग व्यवहार है.”

“लेकिन तुझमें तो अलग झूमार है.”

“मेरी जिंदगी में सिर्फ झूमेला है.”

“लेकिन मुझे लगता है कि कुछ खेला है.”

“देखो जी, मुझे तंग मत करो, माहौल मनभावन बनाओ.”

“ओह्हो! सिर्फ यही कहना है, जीवन को उद्भावन बनाओ.”

“आप मेरी दास्तां पढ़िए… उसपर गौर कीजिए. “

“किसी स्त्री के जीवन की दास्तां तो सभी पढ़ना चाहते हैं, परंतु कोई भी किसी पुरुष के जीवन की दास्तां से वाकिफ होना कोई नहीं चाहता.”

“ऐसा आप कैसे कह सकते हैं, अरबिंद बाबू! क्या इसका कोई आधार या संदर्भ है आपके पास?”

“गर इसकी झलक देखना चाहते हो तो मेरे अंदर झांको. सब कुछ स्पष्ट हो जाएगा.”

“तुम्हारी जिंदगी से जुड़ने के बाद मैं तुम्हारे अंदर की कला के सौंदर्य को लगातार निहार ही तो रही हूँ. पर, मुझे अब तक कुछ खास मिला नहीं.”

“खास तो उसे मिलता है जो आम बनकर रहना पसंद करता हो.”

“क्या मैं आम नहीं हूँ!?”

“मैंने ऐसा तो कुछ कहा नहीं!”

“धत्! मैं तुमसे बात नहीं करती.”

“लेकिन तुम तो मन को हरती.”

“नहीं.. नहीं, तुम्हारी बातों में डेको डेकोर है.”

“लेकिन मैं तो समझ रहा था कि फ्रंट कारिडोर है.”

“धत्! कारिडोर में भी इंटीरियर डिजाइन है.”

“ना… ना, उसमें एक्सटीरियर साइन है.”

“क्या तुम्हारी बातों में लताड़ है!?”

“ना… जी… ना, इसमें पुनर्परिभाषित परिष्कार है.”

“हाँय्य! तेरी बोली की प्रवृति कैसी है?”

“आँय्य! तेरी तिरछी आँख जैसी है.”

“कुछ तो लालित्य है तुझमें.”

“ना.. जी.. ना, बिलकुल नहीं.”

“ओह डार्लिंग! यू कैन से एनीथिंग.”

“ओक्क्के…….ओक्क्के, रायता विंग!”

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गंवरु प्रमोद (Ganvru Pramod)
Uttar Pradesh