बदन की घिसाई
1.
एक दिन;
एक दिन की बात है।
क्या भयानक वो रात थी,
मानसिक स्थिति मेरी ख़राब थी।
ज़िंदगी का सच सामने था,
झूठा कांच का आईना नहीं
झूठी मेरी परछाई थी।
पानी में मैं नहीं था,
पानी की गहराई थी।
फँस गई थी नाव मेरी,
आंधी से जो लड़ाई थी।
सारे रास्ते बंद हो चुके थे,
और सामने मेरे खाई थी।
इसलिए ये…
एक नई शुरुआत थी।
2.
अपनी ख़्वाइशों की पोटली,
तिज़ोरी में बंद कर आया था।
लगने लगे थे सब पराए,
और वक़्त भी पराया था।
उम्मीदों का वो कुसुम,
अब मुरझाने लगा है।
काँटे रास्ते में नहीं,
मेरा रास्ता ही कंटीला है।
काँप रहे हैं क़दम मेरे,
मुक़द्दर का सताया था।
आस-पास सबके हँसते चेहरे,
देख कर दिल घबराता था।
हौसला कहाँ से मिलता मुझे?
अपनों से ही तो चोट खाया था।
3.
चल पड़ा हूँ खरीदने दुनिया अपनी,
ख़ाली लेकर जेब।
मुफ़्त में कुछ नहीं मिलता,
हर चीज़ की एक क़ीमत है।
जाना घिसकर बदन अपना,
तेरे हाथ ही तेरी क़िस्मत है।
टूटता तारा टूट चुका है,
अब ख़ुद ही तारा
ख़ुद ही चाँद हूँ।
अंदर से भी टूट चुका हूँ,
इसलिए आवाज़ से मैं शांत हूँ।
4.
हुआ वाक़िफ मैं जब असलियत से,
ख़यालों में खोना अच्छी बात नहीं।
बन-बनावटी अपनी शख़्सियत से,
नहीं आएगा कोई बनकर फ़रिश्ता।
कर ली दोस्ती मैंने हक़ीक़त से,
बना ख़ुद का ही ख़ुद तिनका मैं।
पुल भी बनाऊँगा अपनी मेहनत से।
मंज़िल है जब पर्वत दीगर की,
तो बन शंकर जैसा मुसाफ़िर।
करनी पड़ेगी चढ़ाई शिखर की।
योद्धा बनकर लड़ना है अब,
बनाया थोड़ा मतलबी ख़ुद को
और सपनों की मैंने फ़िक्र की।
5.
जब खाली मेरे हाथ,
तो नए रास्ते मैं ढूँढता।
ज़िद्दी मेरी आत्मा है,
गोता मारने को नहीं भूलता।
जब कुछ नहीं है खोने को,
तो क्यों मजबूर हूँ रोने को?
आँसू मेरे सूख चुके हैं,
दर्द होता है सीने को।
सपने मेरे टूट चुके हैं,
कुछ नहीं है सोने को।
तुम नहीं समझोगे; रहने दो,
झूठी हमदर्दी नहीं चाहिए।
चोट मेरी है,
मुझे ही सहने दो।
लोग तो वैसे भी कहेंगे ही,
तो फिर उन्हें कहने दो।
6.
अब रोशनी की तलाश है,
एक उजाले राह की आस है।
दाम है मंज़िल का,
त्यागना पड़ा घर।
जुवारी नहीं हूँ किसी तरह का,
फिर भी दाँव खेलना पड़ा।
फिर अचानक से आया एक तूफ़ान,
और मैं पहुँच गया एक नए शहर।
तर-बतर दामन था मेरा,
और आँचल मेरा मेला।
मुक़द्दर की खोज में हूँ मंज़िल से दूर,
घर ढूँढने चला हूँ- घर से दूर।
राह अंजान है,
और राहगीर मैं अकेला।
भूख तो उड़ गई है,
लेकिन भूख से लड़ाई है।
7.
जानता हूँ बहुत अच्छे से,
है हुनर मेरी लिखाई में।
फिर क्यों कर रहा हूँ
यहाँ बदन की घिसाई में?
चाहता तो बन सकता था
कागज़ों के मिज़ाज में।
बचपन से पसंद नहीं सीधे रास्ते,
मज़ा है खड़ी चढ़ाई में, लड़ाई में।
बुराई में नहीं आता जीना मुझे,
भरोसा है पसीने की कमाई में।
स्याही में सनसनी सी बातें मेरी,
जाना मैंने ये हाल ही में।
8.
करना पड़ा काम यहाँ,
कोई इंतिख़ाब कहाँ है?
वहाँ था रुझान मेरा,
जहाँ मेरा जहान है।
यहाँ तो बस तन्हा हूँ,
मेरी तन्हाई का मैं ख़ुद ही गवाह हूँ।
वारा बदन और कीमती हर लम्हा है,
घिसने से घबराया नहीं,
पीड़ा से पछताया नहीं।
मार देना सपनों को भी एक गुनाह है।
9.
कौन? कर्म, कर्मा, कला और कसौटी?
सब दाम देख कर करते काम।
रह गया है नाम का ईमान यहाँ,
इंसानियत क्या होती है?
बिक जाता है इंसान जहाँ,
हाथों में हथकड़ियाँ नहीं हैं।
सब गुलाम अपनी लालच से,
कुछ सोच, कुछ अपनी हालत से।
आदत से मजबूर कहाँ?
एक इंसान लगा है लायक बनने,
दूसरा नालायक है नज़ाकत से।
10.
क्या पुण्य-पाप यहाँ?
सबको बनना जो मशहूर है।
बापू की बातें याद नहीं,
क्योंकि काफी गांधी की एक मुहर है।
इंसान, इंसान से बड़ा कैसे हो सकता है?
पूछने वाला ये कोई इंसान नहीं है।
अंजान नहीं हैं कोई इंसान से,
इंसानियत से बड़ा कोई एहसान नहीं है।
एक बना है कच्ची माटी से,
एक बड़ा है कागज़ के टुकड़े से।
दोनों हैं तो इंसान ही,
लेकिन दोनों समान नहीं।
11.
ऐसी मैंने दो दुनियाँ देखी,
इंसानों में हैवानियत देखी।
बंटते परिवार दौलत में,
ऐसी भी मैंने कहानियाँ देखी।
फिर मैंने कुछ ऐसे रिश्ते देखें,
ज़्यादा कम में उलझते देखें।
दो बीघा में बिकते देखा,
मय्योतों में हंसते देखा।
कुछ झूठे चेहरे देखे,
कुछ मेरे, कुछ तेरे देखें।
12.
बड़े रंग-बिरंगे लोग हैं।
दोस्त ने मतलबी समझा,
कुछ ने गाली दी,
कुछ ने फ़रेबी समझा।
निकले दोगले सब,
जिनको मैंने करीबी समझा।
भूल नहीं पाऊँगा मैं,
सागर से है घाव मेरे।
निगाहें आसमान पर,
और हैं अशांत लहरें।
वो हाथ नहीं ख़ुदग़रज़ी थे,
जिन्हें हर चीज़ समझानी पड़े
वो दोस्त ही सारे फर्जी थे।
13.
हाथ में कलम, हल्के क़दम,
सब मुक़द्दर की लिखाई है।
थोड़ी नींद, ज़्यादा कल्पनाएँ हैं,
जा रहा था स्वप्नलोक।
और मंज़िल कहाँ ले आई है,
ये बदन की घिसाई है।
काम आसान नहीं है,
ये तो खून की कमाई है।
करके काम थक जाना,
लेकिन थक जाने की मनाही है।
सूरज ढल चुका है मेरा,
फिर भी छोटी परछाई है।
14.
कभी यहाँ, कभी वहाँ,
फिर ठहराव है कहाँ?
क्योंकि दांव पर है रिहायशी,
ढूँढ रहा हूँ एक पनाह।
दिन में खोया खोया सा,
काली रातों में हूँ तन्हा।
कहानी सी है कहानी मेरी,
हाँ, थोड़ी देर से मैं समझा।
बहुत चलना है, थक जाएगा,
ख़ुद से मैंने कहा, अब तू थम जा।
ज़्यादा घिसना नहीं होगा,
अगर तू खाने में कम खा।
खाना ही है तो ग़म खा,
एक चिंगारी ही काफ़ी है,
जब जलानी हो पूरी लंका।
15.
नापता हूँ वक्त जैसे,
दीवार पर लटकी कोई घड़ी है।
रुक-रुक कर चलता है,
घड़ी का कांटा मेरा।
सब वक्त का खेल है, पगले,
वक्त ही तो नहीं है,
जो नहीं चाहता था करना कभी,
लेकिन मेरा रास्ता ही वही है।
वक्त कटता नहीं था,
काटा मैंने।
घड़ी घूरता रहता था, फिर
दिन को चार भाग में बाँटा मैंने।
16.
मुझे अब हंसना भी न आता,
लगता हूँ उन्हें बनावटी।
ज़्यादा चुप रहने लगा हूँ,
और बंद है दिखावटी।
कब से छोड़ चुका हूँ वो गलियाँ,
जाता नहीं उन रास्तों पर तब से।
फंस गया था मँझदार में ऐसे,
मांगनी पड़ी मदद सब से।
सबने दिया मुझे ज्ञान,
जैसे कर रहे थे कोई मुझ पर एहसान।
जरूरत उंगली की नहीं,
हाथ की थी।
नकली मुस्कान मेरे चेहरे पर,
झूठी बातें भी बर्दाश्त की थी।
17.
अकेला हो गया हूँ,
इसलिए भरी भीड़ में चलता हूँ।
बनाकर खयालों की एक दुनियाँ,
सिरहाने हाथ रखकर सोता हूँ।
दिखाता नहीं किसी को आंसू,
लेकिन अंदर ही अंदर में रोता हूँ।
कौन पराया, कौन अपना?
सबने वो सब कुछ कहा,
जिससे मायूस होता हूँ।
काश ये निशा किसी ज़ख्म के होते,
तो निराश इतना न होता।
काश कोई मलहम होती,
तो दर्द इतना न होता।
18.
शून्य हूँ अंदर से,
बताता नहीं किसी को।
ख़ुद से ही बातें करने लगा हूँ,
भाने लगी है ख़ामोशी मुझको।
ख़ुद सवाल हूँ;
खुद ही जवाब हूँ,
थोड़ा सा सच,
थोड़ा सा ख़्वाब हूँ।
ख़ुद से ही लड़ता हूँ,
ख़ुद से ही सुलझता हूँ।
मैं दीपक हूँ मुक़द्दर का,
कभी जलता;
कभी बुझता हूँ।
मैं सूरज हूँ सफ़र का,
कभी उगता; कभी डूबता हूँ।
19.
वज़न मेरा कम है,
क्योंकि उड़ना आसमान में है।
गरज नहीं किसी खुदग़र्ज की,
भरोसा मुझे मेरे भगवान में है।
सुना है बहुत चर्चा तेरे नाम में है!
दस लोग इकट्ठा होते,
बस तेरे एक ऐलान में हैं।
सभी त्यौहारों पर लगते पोस्टर तेरे,
और बड़े-बड़े लोग दुआ-सलाम में हैं!
तेरे दोस्त भी वैसे वाले हैं,
नई जींस और पैसे वाले हैं।
खैरियत जो मिली,
खैरात में है।
20.
नहीं चाहिए जगह किसी पोस्टर में,
भरोसा मुझे अपनी मेहनत में है।
पहुंच सकूँगा नहीं,
पहुंच तक मेरी।
लगा ले ज़ोर, जितना तेरे खानदान में है,
जो तेरी कल्पना से भी बाहर है।
वैसी हकीकत मेरे मुक़ाम में है।
चल, सब छोड़, एक बात बता,
तूने कितना उखाड़ा है?
और कितना तेरे बाप का है।
हा माना, मेरे दोस्त ज़्यादा नहीं हैं,
क्योंकि मैंने पैसों से खरीदा नहीं है।
बोरियत होती है ऐसे लोगों से,
जिनसे बात करने का इरादा नहीं है।
मतलब छुपा होता है जिनकी बातों में,
इससे अच्छा तो खो जाऊँ अपने जज़्बातों में।
21.
अपना ज्ञान अपने पास ही रख,
केवल बातों से चूल्हा नहीं जलता है।
जब सपने बहुत बड़े होते हैं,
तो दाल-रोटी से पेट नहीं भरता है।
मेरी जिंदगी है, मुझे पता है,
बिना मतलब के सलाम नहीं मिलता है।
झूठ इंसान नहीं, पैसा बोलता है,
खोटे रिश्ते चलते हैं,
फटा नोट नहीं चलता है।
हवा से ही तो आंधी है,
लेकिन हवा की परवाह किसे?
बनना है तो आंधी बन,
फूंक से पत्ता नहीं हिलता है।
22.
दस आयेंगे, बताने तुझे,
कौन सही, कौन ग़लत था।
ख़ुद अपने उसूल बना,
तू कर सकता है,
क्यों चाहिए बहाने तुझे?
कुछ आयेंगे अपने,
कुछ सपने बनकर।
बह मत जाना उस बहाव में,
बहुत आयेंगे बहकाने तुझे।
खो मत जाना भीड़ में कहीं,
लेकिन भीड़ से गुजरना है।
मजबूती से है कदम बढ़ाने तुझे,
आग सीने की ताकत देंगी तुझे,
उसे अपनी ढाल बनाना,
क्योंकि बहुत आयेंगे बुझाने तुझे।
23.
ज़ोर दिया कदमों पर,
बदन पर कोई घिन नहीं है।
देख कर अनदेखा करते,
मुझ पर किसी को यकीन नहीं है।
एक वाहिद चीज़ जो मैं कर सकता हूँ,
कर सकता है,
इस बारे में कोई संगीन नहीं है।
वो दान से सपने पूरे करते हैं,
अफ़सोस, मैं उतना ज़हीन नहीं हूँ।
ज़िद्द है, पास कोई जिन नहीं है,
मन नहीं है;
आराम कर लेता हूँ।
ऐसा कोई दिन नहीं है।
तैराकी भी बहाव से सिखा है,
नौका पार कर लेना ज़ोर में;
ये इतना भी मुमकिन नहीं है।
24.
करना पड़ा ये काम, क्योंकि
बुरे हैं मेरे हालात।
कमर झुक गई है,
और खाली मेरे हाथ।
चोट मेरी अंदरूनी है,
परिस्थिति ने दी है मात।
साँस भी गिनती की ले रहा हूँ,
दिन है मेरा सात से सात।
साँस रुक गई है;
खुला है आसमान,
कोहरा छा गया है;
आँखों के सामने,
मंजिल देखना भी नहीं है आसान।
इसलिए बयां कर रहा हूँ,
बातें कुछ अनकही,
और अनकहे कुछ अरमान।
25.
ये कोई कहानी नहीं है,
मन से मैंने बनाई नहीं है।
कलम की स्याही से निकली,
अनसुनी एक सच्चाई है ये।
हर एक शब्द बयां करता है,
ख़ुद में ही एक अफ़साना है।
कलम की स्याही वसीयत मेरी,
और बस शब्दों का ख़ज़ाना है।
घुट-घुट कर साँसे लेना,
ये कोई फ़साना नहीं है।
26.
जो हुआ वो अच्छा हुआ,
मान के मैं चलता हूँ।
मैं वो सूरज हूँ,
जो हर रोज़ ढलता हूँ।
औरों से नहीं,
मैं तो ख़ुद से ही जलता हूँ।
एक ही किरदार है,
बहुत सारी कहानियाँ हैं।
हर रोज़ एक नया पन्ना पलटाऊँ,
थोड़ा खामोश हूँ, थोड़ा लिखता हूँ।
जानता हूँ, मेरी क़िस्मत रंग लाएगी,
मैं वो फल हूँ,
जो थोड़ी देर से फलता हूँ।
मुझे देख कर नजरें इनकी झुकती हैं,
शायद मैं उन्हें खलता हूँ।
चुंबक हूँ, चुंबक ढूँढता हूँ,
बाकी झूठे बंधन मैं खोलता हूँ।
27.
छोटा-बड़ा कुछ नहीं होता,
बस तू काम करते जा।
तकलीफ़ों का दरिया पार करना है,
बूँद-बूँद से अपनी गागर भरते जा।
मेहनत बेकार नहीं जाएगी तेरी,
सागरयानी कभी रुकते नहीं।
कुछ नहीं करेगा,
तो राह भटकेगा।
कुरुक्षेत्र जीतना है जीवन का,
तो योद्धा बनकर लड़ते जा।
ग़लतियों से मत डरना,
सबक बनेंगी वही ग़लतियाँ।
सफ़र में जब मिलें शाबाशियाँ,
उनसे अपने घाव भरते जा।
28.
चल, चल; चलता रह, रुक मत।
चलने से ही इंसान सीखता है,
क्या सही, क्या ग़लत?
साफ़-साफ़ दिखता है।
कभी इंसान, कभी ईमान
क्या-क्या बिकता है।
मत कर वो, जो करना नहीं है,
जिसमें मन तेरा झिझकता है।
बाक़ी सब बह जाएगा,
समय किसी के लिए नहीं टिकता है।
डटे रह अपने राह पर,
हवा भी उसके साथ बहती है;
जिसका जूता घिसता है।
काम कर, और आगे बढ़।
फिर देख कैसे,
सारा संसार झुकता है।
राह चुन, राह में अपनी चाह ढूँढ।
बुरा वक़्त भी टल जाएगा।
बाधाएँ तो आती ही हैं सिखाने तुम्हें,
बस थोड़ा सा सब्र रखना।
हर प्रश्न का हल हो जाएगा।
29.
मुखड़े पर कोई मुखौटा नहीं है,
खोट उनकी निगाह में है।
किसी ने समझना भी नहीं चाहा,
शायद वजह उनकी फ़िज़ा में है।
मैं तो बस भीड़ का एक हिस्सा हूँ,
सबसे क़रीब जो लोग हैं मेरे;
और मैं उनकी शिकाह में हूँ।
उन्होंने मनोरंजन समझा,
जिन्हें
मैंने अपना समझा।
किसी ने सच ही कहा है;
सब उस हवा का ही असर है।
साथ बहे तो चलना सहल,
वरना मुश्किल से बढ़ता कदम।
ढूँढने पर मिलता है हर हल,
सरगर्मी दिखा अपने काम में;
और धीमे कदमों से चल।
कुछ बाधाएँ बड़ी होंगी,
सोच से, कुछ संकोच से।
मायने तो बदलते रहेंगे सदा,
याद रहेंगे तो कुछ ख़ास पल।
30.
आँखें बाज की है,
अर्जुन कमान भी पास ही है।
मन मेरा अगस्त्य से ओत-प्रोत,
शिवा ने मार्गदर्शन दिया,
बनकर राह में अखंड ज्योत।
भार उठाने मुसीबतों की
ताकत भीम ने दी है।
हृदय में लड़ने की आग
भरी जैसे परशुराम ने है।
लड़त रहना बिना हारे,
लड़ना मैंने अभिमन्यु से सिखा।
और जगह मेरे जीवन में
एकलव्य की भी ख़ास ही है।
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