कब तक मानवता के धर्म को तौलेगा
कब तक मानवता के धैर्य को तौलेगा।
सिंहासन अब कुछ ना कुछ तो बोलेगा।
आज हुआ जो अभिमान छिन्न- भिन्न।
शायद तो क्रुद्ध हो राजनीति क्या डोलेगा।
अब कब तक भृगु का नयन कुपित होगा।
किवदन्ती है या भृगु कुपित नयन को खोलेगा।।
आज हुआ जो मन स्वीकार करूं तो कैसे।
हृदय की पीड़ा का अब भार धरूं तो कैसे।
जो हुआ अकल्पित था, आर करूं तो कैसे।
इस अपमानित प्याला से श्रृंगार करूं तो कैसे।
अब तक था छाया धुंध ,कब सूर्य उदित होगा।
वेदना असह सी है, कब भृगु कुपित नयन को खोलेगा।।
अब क्या उपमानों के अलंकार का मतलब होगा।
राजनीति की रोटी पर प्रबल प्रहार कब होगा।
इन प्रहार से घायल हृदय का उपचार कब होगा।
शान- बान का हनन करें, ये बंद व्यापार कब होगा।
कब होगा ऐसा ,रुद्र का हृदय युद्ध को प्रमुदित होगा।
धरा हुई लाचार, कब भृगु कुपित नयन को खोलेगा।।
आज हुआ जो है, तार-तार सा हुआ शर्म भी।
उपमानों की परिधि भी लाचार, हुआ ऐसा कर्म भी।
नम भारत के नैन हुए, हृदय में छुपे मर्म भी।
लहू-लूहान सा हुआ साख ,लूटे देश धर्म भी।
कोई तो कर ले वीरोचीत व्यवहार उचित होगा।
ऐसा हुआ प्रहार, कब भृगु कुपित नयन को खोलेगा।।
Discover more from ZorbaBooks
Subscribe to get the latest posts sent to your email.