जीवन फिर बसंत सा खिलकर'...... - ZorbaBooks

जीवन फिर बसंत सा खिलकर’……

जीवन फिर बसंत सा खिल कर’

रंग उत्सव के उर्मित रंग मिल कर’

मन उपवन में पराग कण के पड़े छींटे’

पुष्प सा सहज ही भाव हृदय में बिहँसे।

मानक गुण में आलोट’ पाऊँ चिन्मय आनंद।

जीवन पथ पर पुष्प बनूं’ बिखर जाऊँ।।

इनकार नहीं इन बातों से’ दुःख भी आएंगे’

मन प्रसन्न बन सहज ही आगे कदम बढाऊँ’

मानवता के स्नेह सूत्र से’ निर्मल नीति अपनाऊँ’

आगे मंजिल तक जाना है, मैं पुनीत हो जाऊँ।

मानक गुण में आलोट’ पाऊँ चिन्मय आनंद।

निर्मल झरना सा बनकर और निखर जाऊँ।।

वह पुनीत प्रकाश’ आकांक्षी हूं जिसका कब से’

निर्मल व्यवहार हो’ पथ पर मिलते लोगों से’

लाभ-हानि का द्वंद्व’ बचूं इन निर्मम योगों से’

मन विशाल हो’ बचा रहूं विस्मित भय-रोगों से।

मानक गुण में आलोट’ पाऊँ चिन्मय आनंद।

जीवन उत्सव है दिव्य’ मैं अभी संवर जाऊँ।।

मन विलास में उलझेगा’ दावानल सा प्रज्वलित हो’

मानवता को वरण कर, इन विकार से बचा रहूंगा’

द्वंद्व हृदय में ग्रहीत न हो’ इन विकार से बचा रहूंगा’

उन्मत नहीं होना, ध्येय हृदय में लिए डटा रहूंगा।

मानक गुण में आलोट’ पाऊँ चिन्मय आनंद।

वह ध्येय’ जीवन रंग लिए, संग लिए नजर आऊँ।।

मानव हूं, गुण-कर्मों से पुष्प सहज सुगंध बिखेरूँ’’

अनुयायी बन जाऊँ बसंत का, रंगों में मिलकर’

रस प्रधान है जीवन’ रहूँ स्नेह में इसके खिलकर’

पुण्य प्रसून बन जाऊँ, तारों के संग हिल- मिल कर।

मानक गुण में आलोट’ पाऊँ चिन्मय आनंद।

स्नेह सुधा वह मधुर भाव’ वाणी में असर लाऊँ।।


Discover more from ZorbaBooks

Subscribe to get the latest posts sent to your email.

Leave a Reply

मदन मोहन'मैत्रेय'