उन्मत होना' पथ पर ध्येय नहीं....... - ZorbaBooks

उन्मत होना’ पथ पर ध्येय नहीं…….

.उन्मत होना’ पथ का ध्येय नहीं।

मानव जाना है दूर’ धीरे-धीरे चल।

क्षणिक आभाएँ वैभव का, ऐसे नहीं मचल।

मानक कर्तव्य का बोध’ नहीं अपना भाव बदल।

भटकाव जो मन का’ अंकुश से कस ले।

गठरी मत बांधो, अब बीती बातों का।।

दुविधा का सैलाब’ तुमको भ्रमित करेगा।

किंचित पथ पर विस्मय का होगा फैलाव।

तुम मानव हो’ रोको मन में होते हुए बदलाव।

अंधकार सा द्वंद्व न पालो, होगा तीक्ष्ण प्रभाव।

हृदय केंद्र में अब गीता के वाक्य को रट ले।

अब क्यों रुके हुए हो? इंतजार में अँधेरी रातों का।।

माना कि” बोध नहीं है अभी-अभी घटित का।

पथ पर पथिक का होता है’ कर्तव्य निर्धारित।

भ्रमणाए तो भ्रम फैलाती है करने को बाधित।

तुम मुक्त बनो’ त्यागो मन भाव व्यर्थ व्यतीत का।

भरने को जीवन रस नीर ठोस हृदय को कस ले।

रीति-नीति से अलग पथिक’ सामना होगा हालातों का।।

अब समझो कर्तव्यों का ध्येय’ मानव होने के नाते।

मुखरित होकर’ पथ पर पथिक, कदम बढाते जाओ।

जीवन अपना सा है, बस अपना स्नेह जताते जाओ।

बिंदु पर प्रकाश फैलेगा, तुम बस दीप जलाते जाओ।

मानवता के परिपाटी पर चल कर मीठा रस ले।

तोल-मोल से मतलब नहीं यहां होता बातों का।।

मानव’ उन्नत शिखर सहज पाने को ध्येय का।

मुखरित होकर सप्तपदी जीवन के संग निभाओ।

व्यर्थ ही उन्मत अंधकार से तुम प्रकाश में आओ।

जीवन का रस’ समग्र भाव से मानवता दिखलाओ।

लालसा व्यर्थ कंकर का त्याज्य’ स्वाद प्रेम का चख ले।

आगे बढते ही जाना है, भय क्यों करना कांटों का?


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