ग्रहीत मन के मैल धुले न धुले……
ग्रहीत मन के मैल धुले न धुले’
यत्न से, तन का मैल रगड़ कर धोए’
वह, निजता के भाव का राग सुनाए’
भ्रम के जाल बनाए और द्वंद्व संजोए।।
तनिक नहीं मरजाद’ मानव का दिखलाए’
कुछ तो ऐसे है, जो उलटी राग को गाए’
मतलब का स्नेह’ बांध, कंधे पर ढोए’
तीखे का स्वर स्वाद’ जैसे कांटों को बोए।।
प्रत्याशा’ धन के प्रति अधिक बढाए’
वह’ जीवन का वाहक, अब भी समझ न पाए’
मन चिन्ताओं के वशीभूत, व्यर्थ की बात बढाए’
कुंठित मन अवसाद लिए दुःख का रोना रोए।।
मन में जीवन के प्रति सहज नहीं जिज्ञासा’
लालच के झूले चढ खाए अति हिचकोले’
शब्दों को चाशनी रस डुबो’ मीठी-मीठी बोले’
समय चक्र से अज्ञात बना, अपनी सांसे खोए।।
अनुशंसित पथ के नियमों से अलग चले’
भूली बातों को भी जहां-तहां पर छेड़े’
पाने को अतिशय भाव, खड़ी करें वह घेरे’
अनुकंपा फिर पाने को मीठे स्वप्न संजोए।।
वह मानव’ अब तक भ्रम से अधिक ग्रसित हो’
जीवन का वह अटल नियम समझ नहीं पाए’
आनंद अलग वैभव का है, बस इतना ही गाए’
उन्मत हो निज भाव से, चादर तान कर सोए।।
ग्रहीत जो’ मन में मैल, अधिक क्लिष्ट है’
निरंतर लाभ को देखे, हृदय द्वेष को पाले’
आगे जो हो अनुमान नहीं, व्यर्थ समय को टाले’
जीवन का रस प्राप्य नहीं, व्यर्थ तृष्णा में खोए।।
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