कछु दिन' उत्सव के रंग ढलो..... - ZorbaBooks

कछु दिन’ उत्सव के रंग ढलो…..

कछु दिन’ उत्सव के रंग ढलो’

नूतनता का वह प्रखर आवरण’

जीवन के संग, कदम मिलाये चलो’

मानव, निजता का अभिमान छोड़’

पथिक बन’ पथ के धर्म निभाओ रे’

मन मेरे’ जीवन का संगीत रचाओ रे।।

कछु दिन’ दिव्य ज्ञान सुधा को पी ले’

पथिक छोड़ मान, सहज भाव से जी ले’

जीवन के पगडंडी पर, हो गगन से नीले’

रिक्त नहीं और रिक्त भी, तू नवीन हो जी ले’

मानव का गुण, मन सरस राग में गाओ रे’

मन मेरे’ जीवन का संगीत रचाओ रे।।

कछु दिन’ हृदय में खुद को मंथन कर ले’

जीता जो अनुराग, लाभ-हानि को छोड़ो’

खेलो’ जीवन के संग फाग, द्वंद्व हृदय के तोड़ो’

लेने को जीवन रस का भाग, मन अपने तो धो लो’

मानक गुण का केंद्र हृदय कुंज बनाओ रे’

मन मेरे’ जीवन का संगीत रचाओ रे।।

कछु दिन’ मानव मन अंतर्हित तो हो जा’

निज स्वभाव में ढल जीवन के संग में खो जा’

सहृदयता का आनंद’ कलुषता को धो जा’

चैतन्य का वह दिव्य वेग’ तू नवीन तो हो जा’

मानवीय मूल्य का भाव, अपने हृदय लगाओ रे’

मन मेरे’ जीवन का संगीत रचाओ रे।।

कछु दिन’ मन वितराग भाव को भज लो’

झूमो निज आनंद’ जीवन का मीठा रस लो’

संघर्ष का अमूल्य लेप’ माथे अपने घिस लो’

जीवन के संग’ नूतनता का धन सर्वस्व लो’

अब तक भ्रम था, तन्मय हो दूर भगाओ रे’

मन मेरे’ जीवन का संगीत रचाओ रे।।


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